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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतइलैयाराजा तो राज्यसभा में पहुंच गए, लेकिन पहला लोक कलाकार वहां कब पहुंचेगा

इलैयाराजा तो राज्यसभा में पहुंच गए, लेकिन पहला लोक कलाकार वहां कब पहुंचेगा

कला को लेकर भारत में जो शास्त्रीय दृष्टि है, उसकी जड़ें धर्म शास्त्रों में है. ऐसा माना गया और कला शिक्षण में ये पढ़ाया भी जाता है कि भारत की सभी शास्त्रीय कलाओं की जड़ें भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में है.

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संगीत सम्राट इलैयाराजा का कलाकार श्रेणी में मनोनीत होकर राज्यसभा पहुंचना सामाजिक विविधता की दिशा में एक बड़ा और महत्वपूर्ण कदम है. वे अनुसूचित जाति पृष्ठभूमि से हैं और इस पृष्ठभूमि से राज्यसभा में कलाकार के तौर पर मनोनीत होने वाले वे पहले व्यक्ति हैं.

लेकिन, राज्यसभा के सामने अभी एक दीवार और है जिसे अब तक कोई पार नहीं कर पाया है. नरेंद्र मोदी भी नहीं. वह बाधा है लोक कला और शास्त्रीय कला के बीच की दीवार. ये दीवार जाति की दीवार से भी ज्यादा मजबूत साबित हुई है. इसकी वजह भी यही है कि लोक कला का सार्वजनिक प्रदर्शन अक्सर परंपरागत रूप से नीची करार दी गई या मानी गई जातियों के लोग ही करते हैं और ऐसी कलाओं और कलाकारों को सम्मानित नहीं माना जाता है.

जैसा कि मैंने अपने पिछले लेख में बताया था कि कलाकार श्रेणी से अब तक 21 लोग राज्यसभा में मनोनीत होकर पहुंचे हैं. इनमें से कोई लोक कलाकार नहीं है.

सत्ता और कला के रिश्तों में लोक और शास्त्र का क्या स्थान है 

ऐसा क्यों हुआ, इसके लिए ये समझना होगा कि सत्ता और कला के रिश्तों में लोक और शास्त्र का क्या स्थान रहा. भारत में खासकर सत्ता प्रतिष्ठान, सरकार और अभिजन वर्ग यानी इलीट के लिए कला का मतलब कला का शास्त्रीय रूप ही रहा है. जो कला शास्त्रीय है, उसे उच्च स्थान दिया गया और जो ‘लोक’ है बल्कि यहां तक कि जो पॉपुलर है, उसे नीचा दर्जा मिला. कई तरह की गायन और नृत्य कलाएं तवायफों के पास और कोठों में या देवदासियों के पास सुरक्षित रहीं. लेकिन जब उसमें सम्मान और पैसा आया और उन्हें राष्ट्र के गौरव और सम्मान से जोड़ दिया गया तो परंपरागत कलाकर्मियों को किनारे लगा दिया गया.

ये दिलचस्प है कि ऑल इंडिया रेडियो जब प्रसारण का एकमात्र और सबसे बड़ा माध्यम था, तब के दौर में तवायफों के वहां गाने पर रोक थी. तत्कालीन प्रसारण मंत्री बी. वी. केसकर ने 1954 में ये कहा था कि जिनकी निजी जिंदगी में घपले हैं उन्हें हम काम पर नहीं रखेंगे.

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ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि राष्ट्रीय कला अकादमी बनी तो उसके जरिए शास्त्रीय कलाओं को बढ़ावा दिया गया. भारतीय कला का विदेशों में उत्सव होगा तो शास्त्रीय कलाओं– नृत्य और गायन- को भारतीय कला के तौर पर पेश किया जाएगा. जब पद्म पुरस्कार देने की बारी आएगी या कला संस्थाओं में उच्च पदों पर नियुक्ति की बारी आएगी तो शास्त्रीय कला के जानकारों और उस्तादों को स्थान मिलेगा. यही समीकरण राज्यसभा मनोनयन में भी काम करता है. वरना बिदेसिया कलाकार भिखारी ठाकुर, पांडवानी की उस्ताद तीजन बाई, छउ नाच के महारथी धनंजय महतो और प्रभात महतो, लंगा और मंगनियार कलाकारों आदि को भी उच्च सदन में जगह मिलती!

भारतीय कला का मतलब क्या होगा, इसकी बुनियाद दरअसल भारत के राष्ट्र निर्माण के समय ही रख दी गई थी. 1947 में लाल किले की प्राचीर से शहनाई पर राग काफी बजी. बेशक शहनाई पर उस धुन को बजाने वाले कोई इलीट कलाकार नहीं, बल्कि एक साधारण दरबारी गवैया परिवार के बिस्मिल्ला खान था. ये भी दिलचस्प है कि जिस व्यक्ति की धुन से भारत का पहला स्वतंत्रता दिवस का समारोह संगीतमय हुआ, वे खुद कभी राज्यसभा के लिए मनोनीत नहीं हुए, बेशक उन्हें भारत रत्न भी मिला.

आजादी मिलने से पहले से ही कला को शास्त्रीय रंग देने की कोशिशें चल रही थीं और इसमें ब्रिटिश अभिजन वर्ग भी शामिल था. चूंकि ब्रिटेन से जो पढ़े-लिखे उच्च परिवारों के लोग भारत आए, उनका संपर्क भारत में आम लोगों से कम ही हुआ. इस वजह से उन्होंने जिस भारत को जाना वह अभिजन या इलीट भारत ही था. ये आश्चर्यजनक नहीं है कि हिंदू धर्म को समझने के लिए उन्होंने मनुस्मृति और वेदों का इंग्लिश अनुवाद कराया और कई अंग्रेजों ने तो बाकायदा संस्कृत सीखी. इसी तरह कला को भी उन्होंने भारतीय इलीट समुदाय के नजरिए से देखा.

इसे जॉर्ज अरुंडेल के उदाहरण से समझा जा सकता है. ब्रिटेन के अमीर परिवार में जन्मे जॉर्ज ने भारत आकर इतिहास के शिक्षक का काम किया. वे थियोसॉफिस्ट थे और तमिलनाडु के अडयार थियोसॉफिकल सोसायटी के वे अध्यक्ष भी बने. भारतीय संस्कृति को उन्होंने शास्त्रीय नजरिए से देखा, और 1936 में उन्होंने और उनकी पत्नी रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने अडयार में कलाक्षेत्र संस्थान की स्थापना की. भारत में शास्त्रीय नृत्य परंपरा को स्थापित करने में इस संस्था ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.


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दक्षिण भारत नृत्य का केंद्र

दरअसल तमिलनाडु और दक्षिण भारत के बड़े हिस्से में मंदिर ही नृत्य के केंद्र थे और देवदासियां ही नाचती थीं. तमिलनाडु में इन नृत्य को सादिर अट्टम या दासी अट्टम कहा जाता है. ये नृत्य देवताओं को समर्पित होता है. इस नृत्य में यौनिकता होती है और जाहिर है कि देवदासियों के साथ जुड़े होने के कारण इस नृत्य को सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता है. रुक्मिणी अरुंडेल ने दासीअट्टम को शास्त्रीय रुप दिया, उसमें से यौनिकता को हटाया और इसे ही भरतनाट्यम के रूप में प्रसिद्ध किया. लेकिन इस क्रम में जब भरत नाट्यम को मान्यता मिली तो देवदासियों को इसमें जगह नहीं मिल पाई. शास्त्रीय होने के साथ ही ये कला अभिजनों यानी इलीट की हो गई.

कला को लेकर भारत में जो शास्त्रीय दृष्टि है, उसकी जड़ें धर्म शास्त्रों में है. ऐसा माना गया और कला शिक्षण में ये पढ़ाया भी जाता है कि भारत की सभी शास्त्रीय कलाओं की जड़ें भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में है. भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट भी इस मान्यता की चर्चा करती है. ऐसा माना जाता है कि इंद्र ने जब दानवों को हराया तो पहली बार भरत मुनि ने नृत्य का प्रदर्शन किया. इसमें भरत मुनि के बेटों का साथ अप्सराओं ने दिया, क्योंकि संभ्रांत परिवारों की लड़कियां संभवत: नाचती नहीं होंगी और असंभ्रांत परिवारों की लड़कियों को इंद्र के सभा में कैसे प्रस्तुत किया जाता? भरत मुनि के नाट्य शास्त्र को पांचवा वेद भी कहा जाता है. कला के शास्त्रीय रूप को मिले ऊंचे स्थान की कल्पना इसी बात से की जा सकती है, कि उनका स्रोत पांचवां वेद है.

जब भारत ने अपनी परंपराओं की ओर लौटने का फैसला किया और परंपरा का मतलब शास्त्रीय होना हो गया. ऐसी स्थिति में शास्त्रीय कला के मुकाबले लोक कला का टिक पाना संभव नहीं रह गया था. कला के विकास के लिए जो भी सरकारी या कारपोरेट पैसा आया, वह शास्त्रीय कलाओं के विकास के लिए जाता रहा. कला अकादमियां वास्तविक अर्थों में शास्त्रीय और सांस्कृतिक कला अकादमियां बन गईं और वैसे ही लोग उसके संचालक बन गए जो कला का मतलब शास्त्रीय समझते थे. भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद ने जब भारतीय कलाकारों के दलों को विदेशों में भारतीय कला के प्रदर्शन के लिए भेजना शुरू किया तो यही सोच हावी रही. इसकी वजह से ज्यादातर शास्त्रीय कलाओं के लोग ही विदेशों में प्रदर्शन करने के लिए गए. इसका ये भी परिणाम हुआ कि शास्त्रीय कलाओं में पैसा और सम्मान आया और इन कलाओं में जो चंद गैर इलीट रह गए थे, उनको भी किनारे लगा दिया गया.

कला और सौंदर्यशास्त्र के शिक्षक और शोधकर्ता ब्रह्म प्रकाश लिखते हैं कि ‘हिंदू सवर्ण संस्कृति ही भारतीय संस्कृति बन गई.’ ब्रह्म प्रकाश अपने शोध के आधार पर कहते हैं कि आजादी से पहले के दौर में सांस्कृतिक राष्ट्रवादी और ब्रिटिश प्राच्यविद यानी ओरियंटलिस्ट में इस बात पर आम राय थी कि भारत में जो पुराना और सांस्कृतिक है, वही श्रेष्ठ है. वे लिखते हैं कि, ‘संस्कृत के नाटक महान भारतीय नाटक बन गए और लोक नाट्य परंपराओं को बेकार मान लिया है.’ शास्त्रीय उच्च है और लोक नीच है, यह धारणा स्थापित की गई है और इसके पीछे शासन और समाज की सत्ता ने अपनी भूमिका निभाई.

शास्त्रीय कलाओं की उच्च कला के तौर पर स्थापना होने से ये फर्क पड़ा कि समाज का अभिजन वर्ग बड़ी संख्या में इसने प्रवेश कर लिया. इसका असर फिल्मों पर भी पड़ा. कला इतिहास के क्षेत्र में काम करने वाली अना मारकम, जो लंदन यूनिवर्सिटी के रॉयल होलोवे में प्रोफेसर हैं, लिखती हैं कि 1930 तक फिल्मों में जो भी महिलाएं काम करती थीं, उन्हें सम्मानित नहीं माना जाता था. महिला नर्तकियां दरबारी, कोठेवालियां, या नाचनेवालियां होती थीं जो आम तौर पर विवाह योग्य नहीं मानी जाती थीं.” प्रोफेसर मारकम आगे बताती है कि आजादी के बाद और खासकर 1990 के बाद तो ये काम पूरी तरह से उच्च वर्ग और जाति की महिलाओं ने पकड़ लिया और परंपरागत नर्तकी परिवारों की लड़कियां यहां से गायब हो गईं.

स्थिति ये हो गई है कि परंपरागत और लोग नृत्य और संगीत परंपराएं और इसमें लगे लोग अब सिर्फ अकादमिक शोध के क्रम में ही उच्च वर्ग के संपर्क में आते हैं. वे अब एंथ्रोपोलॉजी और सोशियोलॉजी के विषय हैं. सरकार ही नहीं, कॉरपोरेट और एनजीओ सेक्टर भी शास्त्रीय कलाओं को बढ़ावा देने में लगा है, जिनमें SPIC MACAY प्रमुख है, जो युवाओं के बीच शास्त्रीय कलाओं को लोकप्रिय बनाने में वर्षों से लगा है. ऐसा कोई संरक्षण लोक कलाओं को नहीं मिलता. इसलिए उनकी परंपराएं सूख रही हैं.

भारत में कला शिक्षण के सबसे बड़े उस्ताद माने गए लोग जैसे नारायण भातखंडे और विष्णु दिगंबर पुलस्कर ने अमीर और प्रभावशाली लोगों के सहयोग से अपने प्रशिक्षण संस्थान खोले. इन संस्थानों में शास्त्रीय संगीत और नृत्य को आधुनिक शिक्षण के तहत पढ़ाया जाता है. यहां कला का रूप सांस्कृतिक और शास्त्रीय ही होता है और प्रशिक्षण के लिए ग्रंथों का संदर्भ दिया जाता है, जो कला को और शास्त्रीय बना देते हैं. अना मारकम अपनी किताब में बताती हैं कि भातखंडे ने तवायफों से मिलने से मना कर दिया था क्योंकि “संगीत को व्यवस्थित रूप देने का उनका जो लक्ष्य है, उसमें इनसे कोई मदद नहीं मिलती.”

इन तमाम प्रक्रियाओं के जरिए शास्त्रीय कलाओं को वैचारिक, धार्मिक और सौंदर्यशास्त्र में श्रेष्ठता हासिल हो गई और उन्हें उच्च और पवित्र मान लिया गया. ऐसे में लोक कलाओं और लोक कलाकारों तथा संगीत और नृत्य में लगे परंपरागत समुदायों की दुर्गति तो होनी ही थी.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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