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Sunday, 3 November, 2024
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म्यांमार में तेज होते युद्ध की अनदेखी उत्तर-पूर्व भारत में फिर से अशांति पैदा कर सकती है

तीन दशक पहले भारत के उत्तर-पूर्वी बागियों के खिलाफ मुहिम में म्यांमार के फौजी हुक्मरान के सहयोग का प्रतिदान देने के लिए जिस अराकान आर्मी की बलि चढ़ाई गई थी उसने जोरदार वापसी की है.

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छोटी नौकाओं का वह बेड़ा सुबह की चमकती धूप में अंडमान द्वीप समूह के बीच समुद्र पर तैरता हुआ अंततः लैंडफॉल द्वीप के तट से जा लगा था. नौकाओं पर सवार लोगों ने फटाफट हथियारों से भरे बक्से उतारने शुरू कर दिए. ये हथियार वे थाईलैंड से खरीदकर लाए थे ताकि उत्तरी अंडमान में अपना नया प्रशिक्षण अड्डा बना सकें. उनकी अगवानी कर रहे भारतीय सेना के खुफिया अधिकारी ले.कर्नल वी.जे.एस. ग्रेवाल ‘हथियार’बंद होकर आए थे, पांच बोतल रम के साथ चश्मदीदों ने बाद में बताया कि सबने कैंपफायर के साथ रम का सेवन किया.

इसके बाद, 10 फरवरी 1998 की सुबह, बागियों के पांच कमांडर— अराकान आर्मी चीफ खइंग रज़ा, उसके साथी पाड़ो मुलवाय और थेईन औंग ख्याव, करेन नेशनल आर्मी के कैप्टन म्यिंट श्वे के अल्वा रेडियो ऑपरेटर फो चो— जंगल से होते हुए द्वीप के हेलीपैड की ओर बढ़ गए. वहां वे आला भारतीय सेना अधिकारी से मिलकर म्यांमार में भारत के आगामी गुप्त युद्ध के बारे में बात करने वाले थे.

उस दिन बाद में गोलियों की आवाज गूंजी और वे छह लोग फिर कभी नजर नहीं आए. समुद्रतट पर उतरे लोगों को भारतीय सैनिकों ने घेर लिया और उन्हें जेल में पहुंचाया, जहां वे एक दशक से ज्यादा समय तक बंद रहने वाले थे.
तीन दशक पहले भारत के उत्तर-पूर्वी बागियों के खिलाफ मुहिम में म्यांमार के फौजी हुक्मरान के सहयोग का प्रतिदान देने के लिए जिस अराकान आर्मी की बलि चढ़ाई गई थी उसने जोरदार वापसी की है.

लड़ाई से क्षेत्रीय संकट का खतरा है और बांग्लादेश के साथ तनाव पैदा हो सकता है. भारत के लिए इससे भी खतरनाक बात यह है कि अराकान आर्मी की सफलता भारत की सीमा के पास चिन, सगैंग और कचिन में जमे हुए बागियों को ताकत हासिल हो सकती है.

लैंडफॉल द्वीप में उन हत्याओं के बाद से उत्तर-पूर्व में बागियों को कमजोर करने में म्यांमार की सेना ‘सिट-टेट’ की सहायता निर्णायक रही है. ‘सिट-टेट’ के बिखरने का अर्थ यह होगा कि वह हथियारों और सुरक्षित अड्डों तक उत्तर-पूर्व के बागियों की पहुंच में रुकावट नहीं डाल सकेगी.


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अराकान आर्मी का पुनर्जन्म

म्यांमार के सीमावर्ती शहर माउंगडॉ में कई हफ्तों से भीषण लड़ाई जारी है. तोपों के गोले और बंदूकों आदि की गोलियां सीमा पर करके बांग्लादेश में भी पहुंच रही हैं. पिछले महीने ‘सिट-टेट’ के हेलिकॉप्टरों ने अराकान के बागियों के अड्डों पर रॉकेट दागे जो बांग्लादेश के तामरु गांव पर जा गिरे. अपने अड्डों पर बमबारी के बाद अराकान आर्मी ने म्यांमार की सीमा पर चौकियों पर कब्जा किया और उस क्षेत्र की ओर बढ़ रही ‘सिट-टेट’ के सैनिकों को घेर लिया.

अराकान बागी पिछले एक दशक से मजबूत हो रहे हैं. यह विकास की कमी के साथ-साथ लोकतांत्रिक और फौजी सरकारों द्वारा भी जातीय स्वायत्तता की मांग की उपेक्षा की वजह से हुआ है.

म्यांमार की सेना ने 2011 के बाद आर्थिक और राजनीतिक सुधारों की शुरुआत की थी लेकिन राखाइन क्षेत्र के लिए शायद ही कुछ किया. विदेशी नौकाएं उनके समुद्री क्षेत्र में घुसकर मछली मारती हैं. चीन ने भारी निवेश किया है, खासकर क्यौक फियू के मुक्त व्यापार क्षेत्र में, लेकिन स्थानीय गरीब अराकानियों को यांगून या काचिन के कीमती जेड पत्थर की सरकारी खदानों में मजदूरी मांगने पर मजबूर होना पड़ा है. हजारों लोगों को चीन और थाईलैंड के कारखानों में रोजगार मिला.

विशेषज्ञ जाक्वा लेडा ने लिखा है कि ‘लेकिन इस रोजगार के वेतन से उनके परिवारों की गरीबी दूर नहीं हुई.’ ये प्रवासी बागी गुटों के लिए चन्दा उगाहने और रंगरूट भर्ती करने के स्रोत बन गए.

2015 के चुनाव से पहले ‘सिट-टेट’ ने बड़े बागी गुटों के साथ शांति समझौता किया. इसके जोश ने पश्चिमी देशों में शांति के समर्थकों को भी अपनी चपेट में लिया लेकिन जैसा कि विद्वान बर्टिल लिंटनर ने कहा है, सरकार से लड़ रहे 80 फीसदी बागियों का प्रतिनिधित्व करने वाले गुटों ने समझौते पर दस्तखत करने से मना कर दिया. लड़ाई हेरोइन के केंद्र माने गए कोकांग जैसे नए क्षेत्रों में फैल गई. कई गुटों को समझौता वार्ता में शामिल नहीं किया गया, जिनमें अराकान आर्मी भी थी.

2015 में नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी (एनएलडी) की सरकार बनी तो कुछ राखाइनों में यह उम्मीद जागी कि व्यापक क्षेत्रीय स्वायत्तता का लक्ष्य हासिल हो जाएगा. लेकिन एनएलडी की सरकार भी अपने पूर्ववर्ती फौजी हुकूमत की तरह स्थानीय लोगों की मांगों के खिलाफ थी. विदेश मंत्री और सरकार की वास्तविक मुखिया ओंग सान सू ची ने अराकान आर्मी से लड़ रहे ‘सिट-टेट’ के सैनिकों की तारीफ की और कहा कि बागी देश में लोकतंत्र स्थापित करने में बाधा पहुंचा रहे हैं.

2016-17 में रोहिंगिया संकट के बाद ‘सिट-टेट’ ने अराकान आर्मी से इस उम्मीद में सुलह करने की कोशिश की कि उसका मुख्यतः बौद्ध काडर जिहादी गुटों को दबाने में मदद करेगा. लेकिन स्थानीय-राष्ट्रवादी अराकान आर्मी ने इस जाल को भांप लिया और अपने कब्जे वाले इलाकों में रोहिंगियों को सुरक्षा दी.

जब ‘सिट-टेट’ रोहिंगियों के सफाये में जुटा था, तब अराकान आर्मी ने अपना दायरा बढ़ाया और धमकी तथा हत्याओं के बूते केंद्र सरकार की क्षेत्रीय ताकत को कमजोर करने में जुट गई. स्थानीय प्रशासकों से सामूहिक इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह अराकान आर्मी के रंगरूटों ने ले ली.

अंततः, 2020 में ‘सिट-टेट’ ने अराकान आर्मी से युद्धविराम करवाया और तख्तापलट के बाद कुछ महीने के लिए सेना को शांति दिलाई. लेकिन पिछले साल के आखिरी दिनों से सेना ने अराकान आर्मी पर लगाम कसना शुरू किया क्योंकि उसे डर था कि उसकी ताकत बढ़ी तो दूसरी जातीय बगावत शुरू हो सकती है. इस साल गर्मियों के शुरू में सेना ने दक्षिण-पूर्वी काईन स्टेट, जिस पर करेन नेशनल यूनियन का कब्जा है, में अराकान आर्मी के अड्डे पर बमबारी की. इसके बाद से चिन स्टेट के राखाइन और पड़ोसी पलेटवा में लड़ाई जारी है.


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पराजित पर लगाया दांव

भारत ने जैसा लैंडफॉल द्वीप में किया, उसे विजेता का समर्थन करने की जरूरत है, लेकिन यह फैसला करना आसान नहीं है. 1988 में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों और इसके साथ जनसंहारों के शुरू होने के बाद भारत ने फौजी हुकूमत से रिश्ता तोड़ लिया था. भारत का खुफिया तंत्र लोकतंत्र समर्थक उन प्रदर्शनकारियों को ट्रेनिंग और हथियारबंद करने लगा था जो सीमा पार कर गए. उनमें से कई तो राखाइन के थे. कुछ समय तक तो भारत यह उम्मीद करता रहा कि असंतोष की लहर जनरलों का तख़्ता पलट देगी.

लेकिन घटनाओं ने दर्शा दिया कि भारत ने पराजित पर दांव लगाया था. जनरलों ने चीन की ओर रुख किया, हथियार और पैसे हासिल किए. प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने शुरू में इस दिशा को पलटा और म्यांमार की फौजी हुकूमत से रिश्ते बनाने की कोशिश की.

बगावत विरोध और खुफिया जानकारी हासिल करने के मामलों में अच्छी उपलब्धि हुई. 1995 में भारत ने उत्तर-पूर्व के बागियों के खिलाफ गुप्त समर्थन से सीमा पार ऑपरेशन चलाए और उस समूह को निशाना बनाया जो बांग्लादेश के कॉक्स बाजार से हथियार खरीदकर मिजोरम के जंगल से गुजर रहा था. उस समय सेना के 57 डिवीजन ने म्यांमार सेना के साथ ‘ऑपरेशन गोल्डन बर्ड’ के तहत कार्रवाई करके 38 बागियों को मार डाला और 118 को बंदी बनाया.

हालांकि क्षोभ पैदा करने वाली बातें थीं— जिनमें एक यह भी थी कि भारत सरकार ने सू ची को 1995 में एक शांति पुरस्कार देने का फैसला कर लिया—इसके बावजूद सैन्य संबंध जारी रहा. भारत ने म्यांमार की सेना को स्वीडन में बने रॉकेट लांचर दोबारा बेचे, जिस पर विवाद हो गया. इसके बाद टोही विमान, तोपें, और पुरानी पनडुब्बी भी बेची.

आखिरकार, नौसेना के तीन पोतों ने लैंडफॉल द्वीप जा रही बागियों की नावों का पीछा किया. उन पोतों पर कमांडो सवार थे जिन्हें उन बागियों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया जा चुका था. बताया जाता है कि ‘रॉ’ की पुरानी संपत्ति माने गए उन बागियों को आश्वासन दिया गया था कि उन्हें अपना काम करने के लिए सुरक्षित अड्डा दिया जाएगा. लेकिन इसकी जगह, भारत ने जिन युवा बागियों का 1988 में समर्थन किया था उन्हें सार्वजनिक रूप से बलि का बकरा बना दिया गया.

आगे चलकर ग्रेवाल ने म्यांमार में रत्नों आदि का सफल व्यवसाय शुरू कर दिया और फिर चंडीगढ़ आकार बस गए. उन्होंने जिन बागियों को निशाना बनाया था उनमें से जो बचे वे एक दुर्लभ समझौते के बाद 2010 में जेल से बाहर आ गए.

आगे अराजकता?

अराकान आर्मी के उत्कर्ष और देश में दूसरी जगहों पर उभरी बगावतों के कारण पैदा हुई दुविधा स्पष्ट है. भारत को डर है कि ‘सिट-टेट’ के साथ जो मिलकर जो रिश्ता बनाया गया वह टूट न जाए. इस रिश्ते की वजह से कई ऑपरेशन संभव हो सके थे, जिनमें 2015 में सीमा पर जाकर पोन्यो और ओंज़िओ में नगा बागियों के अड्डों पर 2015 में की गई मशहूर छापामारी शामिल है. ‘सिट-टेट’ के सैनिकों ने नगा और मणिपुरी बागियों के आदी भी नष्ट किए और थाईलैंड तथा चीन से हथियार लाने की उनकी क्षमता को कमजोर किया.

लेकिन बागियों की ओर से हिंसक वारदात में वृद्धि बताती है कि म्यांमार की सेना को दीर्घकालिक जीत नहीं मिलने वाली है. इस स्थिति में, भारत को फिर एहसास होगा कि उसने गलत घोड़े पर दांव लगाया. उदाहरण के लिए, उत्तर-पूर्व के बागी गुट म्यांमार की स्थानीय सेनाओं द्वारा बनाए गए अर्द्ध-स्वतंत्र क्षेत्रों में शरण हासिल कर सकते हैं.

स्थानीय गुटों के साथ नाकाम युद्धविराम म्यांमार की निष्क्रिय राजनीतिक जीवन के ताने-बाने का ही हिस्सा हैं. 1958, 1963, 1980, और 1990 के दशक में की गई कोशिशें इसलिए विफल हुईं कि सेना के मातहत सत्तातंत्र क्षेत्रीय जातीय समूहों के साथ सत्ता साझा करने को राजी नहीं था. हर नाकामी ने देश को अराजकता के गड्ढे में नीचे धकेला और बागी गुट ड्रग्स और जबरन वसूली के धंधे के बूते मजबूत होते गए.

भारत के लिए जरूरी है कि वह उत्तर-पूर्व के बागी गुटों के साथ लंबे समय से बंद वार्ता को शुरू करे, वरना मेहनत से हासिल की गई शांति भंग हो सकती है क्योंकि अराजकता के कदम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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