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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतCOVID का एकमात्र समाधान टीका नहीं, पिछले वायरल संक्रमण की जानकारियां भी इलाज में मददगार हो सकती हैं

COVID का एकमात्र समाधान टीका नहीं, पिछले वायरल संक्रमण की जानकारियां भी इलाज में मददगार हो सकती हैं

दिल्ली के एक अस्पताल में कोविड पॉजिटिव एक सहयोगी के साथ बैठकर लंच करने वाले तीन डॉक्टरों को संक्रमण नहीं हुआ. ऐसा क्यों हुआ, इसके जवाब में ही ये जानकारी छुपी है कि किनको टीके लगाए जाने चाहिए.

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भारत इस समय सब यही सवाल कर रहे हैं कि कोविड-19 का टीका सबसे पहले किसे मिले, और इसका स्वाभाविक जवाब है सभी को — और कोरोनावायरस मुद्दे पर जानकारी की कमी के मूल में यही बात है. क्या आपने कभी किसी साफ-सुथरे कमरे में एक जगह धूप की रोशनी पड़ते देखा है? यदि हां, तो आपने प्रकाश पुंज में लहराते असंख्य धूलकणों को भी देखा होगा, जोकि उससे पहले नज़र नहीं आ रहे थे. कोविड का हमारा अनुभव काफी कुछ ऐसा ही है – हमें जो देखना चाहिए वो नहीं देख रहे, उसकी बजाय हम सेरोलॉजिकल परीक्षण के आंकड़ों में व्यस्त हैं.

पश्चिमी विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया था कि भारत में लोग सड़कों पर मर रहे होंगे, अस्पताल मरीजों से अटे पड़े होंगे और दर्जनों की संख्या में डॉक्टरों की भी मौत हो रही होगी. वास्तव में ये आशंका जाहिर की गई थी कि वायु प्रदूषण और कोविड-19 के संयोग से अगस्त आते-आते रोजाना संक्रमण के करीब दो लाख नए मामले सामने आ रहे होंगे. जाहिर है कि ऐसा कुछ घटित नहीं हो रहा है. बेशक, कुछ अस्पताल सिर्फ कोविड-19 के मरीजों को ही देख रहे हैं, और वहां डॉक्टर बिना कोविड वाले नियमित मरीजों का उपचार नहीं कर पा रहे हैं. इस श्रेणी के अस्पतालों में डॉक्टरों की 14 दिनों की शिफ्ट लगती है और फिर उन्हें एक महीने का ऑफ मिलता है. इसलिए उन्हें कोरोनावायरस का संक्रमण होना दुर्भाग्य की ही बात मानी जाएगी. लेकिन नई दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल (आरएमएल) जैसे कई अस्पताल, खासकर केंद्र सरकार के अस्पताल, भी हैं जहां हम दिन-रात नियमित गैर-कोविड और कोविड-19 मरीजों, दोनों को देख रहे हैं, और यहां दर्जनों की संख्या में डॉक्टरों की मौत नहीं हुई है. यदि हममें रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती, तो क्या ऐसा संभव होता?

हमारे अस्पताल में एक असामान्य घटना हुई जहां एक रेजिडेंट डॉक्टर, जिसने एक ही टेबल पर चार अन्य डॉक्टरों के साथ लंच किया था, वो कोविड पॉजिटिव निकला, लेकिन बाकी सुरक्षित पाए गए. याद रहे कि दिशा-निर्देशों के अनुसार किसी पॉजिटिव व्यक्ति के छह मीटर के दायरे में बिना मास्क के 15 मिनट से अधिक समय तक मौजूद रहने पर संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है. इसी तरह कुछेक सदस्यों को छोड़कर पूरे परिवार को कोविड-19 होने की अनेकों रिपोर्टें सामने आ चुकी हैं. बेशक, इसके उलट भी मामले सामने आए हैं जहां कि परिवार के एक सदस्य की तो कोविड से मौत हो गई जबकि बाकी सदस्य जांच में पॉजिटिव तक नहीं पाए गए. इन सारी बातों की व्याख्या के बड़े निहितार्थ हैं क्योंकि ये तो साफ है कि देश में हर कोई कोरोना से बुरी तरह संक्रमित नहीं होने जा रहा है — सवाल है कि ऐसा क्यों है.


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कोविड के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता

हम अक्सर शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता या प्रतिरक्षण प्रणाली की भारी जटिलता को कम करके आंकते हैं. हम तथाकथित ‘सीरोलॉजिकल टेस्ट’ के जरिए सिर्फ इसके एक छोटे से हिस्से, एंटीबॉडी, का आकलन करते हैं जोकि अल्पावधि की सुरक्षा देता है. और अब हम जान चुके हैं कि इसके परिणामों और प्रतिक्रियाओं में बिल्कुल एकरूपता नहीं होती है, जोकि बहुप्रचारित प्लाज़मा परीक्षणों की नाकामी से भी जाहिर है. वास्तव में, कोरोनावायरस के संपर्क में आए प्रत्येक व्यक्ति में पॉजिटिव एंटीबॉडी नहीं पाए जाते हैं, इसके बावजूद उनमें इसके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता हो सकती है.

रोग प्रतिरक्षा तंत्र को समझने के लिए हम इसकी भारत की रक्षा व्यवस्था से तुलना कर सकते हैं. हमारी सीमा पर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) तैनात हैं – इसे हम जन्मजात या आरंभिक प्रतिरक्षा के तौर पर देख सकते हैं. लेकिन ये शत्रु के आक्रमण से निपटने में विफल रहते हैं तो सेना दखल देती है – हम इसे अनुकूलन प्रतिक्रिया मान सकते हैं. प्रतिरक्षण तंत्र की इन दोनों प्रतिक्रियाओं में शरीर में पाई जाने वाली ‘टी सेल्स’ नामक अहम कोशिकाओं की ज़बरदस्त भूमिका होती है — लेकिन इसके लिए परीक्षण व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं है. वैसे इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि इन कोशिकाओं का अस्तित्व है और ये संक्रमण के प्रभाव को कम करने और उसके खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने का काम करती हैं.

अब, ये बात तो स्पष्ट है कि दिल्ली जैसी कोविड प्रसार के अनुकूल जगह में भी सभी को संक्रमण नहीं हो रहा है. नोवेल कोरोनावायरस या सार्स-कोव-2, वायरसों के उसी वर्ग से है जोकि सामान्य सर्दी-जुकाम करता है. और हमलोग वर्षों से सर्दी-जुकाम झेलते रहे हैं. वास्तव में भारत में डॉक्टर की पर्ची के बिना सर्वाधिक बिकने वाली दवाएं कफ़ सिरप ही हैं. सर्दी-जुकाम का हर संक्रमण शरीर में अपनी एक छाप छोड़ता है, जैसा कि पड़ोसी से हुई हर झड़प हमारी यादाश्त में दर्ज रहती है. इसलिए ये मानना तर्कसंगत है कि ये वायरस मेमोरी टी-सेल इम्युनिटी पैदा कर सकते हैं.

ये माना जाता है कि ‘कोविड के संपर्क में नहीं आए 20 से 50 प्रतिशत व्यक्तियों में पहले से ही इस तरह की क्रॉस-रिएक्टिव मेमोरी होती है’. ‘साइंस’ पत्रिका के अक्तूबर अंक में जोस मैटस के एक महत्वपूर्ण शोध में बताया गया है कि अच्छे स्वास्थ्य वाले मरीजों में ऐसी प्रतिरक्षण कोशिकाएं पाई गई हैं जोकि सार्स-कोव-2 और सामान्य सर्दी-जुकाम के वायरस, दोनों ही के खिलाफ प्रभावी हैं. इसी तरह ‘नेचर’ पत्रिका के अगस्त अंक में प्रकाशित नीना लाबर्ट के एक अन्य शोध के अनुसार कभी सार्स और/या कोविड-19 के संपर्क में नहीं आए लोगों में भी सार्स-कोव-2 के खिलाफ कारगर टी-सेल पाए गए हैं.

एक और अच्छी खबर ये है कि प्रसिद्ध कैरोलिंस्का कोविड-19 अध्ययन समूह के अनुसार हल्के संक्रमण से प्रभावित लोगों में भी दीर्घावधि तक असरदार प्रतिरोधक क्षमता का विकास देखा गया है. हालांकि 65 साल से अधिक उम्र के लोगों में ये प्रतिक्रिया कमजोर देखी गई है और इसलिए, अमेरिका स्थित ला जोला इंस्टीट्यूट ऑफ इन्यूनिलॉजी के एक शोध के अनुसार, वे संक्रमण से बुरी तरह प्रभावित होते हैं. यानि आसान शब्दों में कहें तो कोविड के आगमन से पूर्व से ही सर्दी-जुकाम और श्वसन तंत्र की अन्य गड़बड़ियों के लक्षण पैदा करने वाले वायरस क्रॉस-इम्युनिटी या दूसरे वायरसों के खिलाफ कारगर प्रतिरक्षण क्षमता विकसित कर सकते हैं. और बिना लक्षणों वाले कोविड मरीजों के संपर्क में आने पर भी दीर्घावधि की प्रतिरक्षण क्षमता विकसित हो सकती है. उल्लेखनीय है कि हल्का या पकड़ में नहीं आने वाला संक्रमण झेलने वाले लोगों में भी दीर्घावधि तक प्रभावी प्रतिरक्षण क्षमता आ सकती है, भले ही उनका सीरो टेस्ट निगेटिव आता हो.

टीके की भूमिका

यदि दिल्ली का उदाहरण लें तो यहां करीब 33 प्रतिशत लोग सीरो पॉजिटिव हैं और साथ ही, ‘साइंस’ पत्रिका में प्रकाशित शोध के अनुरूप, अतिरिक्त 30 प्रतिशत लोगों में पहले से ही कोविड प्रतिरोधक क्षमता होगी, इसलिए यहां करीब 60 प्रतिशत लोगों में टी-सेल प्रतिरक्षण क्षमता होनी चाहिए. और ऐसा भी नहीं है कि जो 30 प्रतिशत लोग कोविड पॉजिटिव हैं वे दूसरों में संक्रमण नहीं फैलाएंगे. साथ ही, बच्चे आमतौर पर कोविड से सुरक्षित माने जाते हैं, यानि कुल मिलाकर पूरी आबादी को टीके लगाने की ज़रूरत नहीं है. टी-सेल इम्युनिटी ही वो वजह है कि जिसके कारण लंच के समय एक ही टेबल पर बिना मास्क लगाए बैठे डॉक्टरों में से कुछ को तो संक्रमण हुआ लेकिन बाकियों को नहीं. आरटी-पीसीआर जांच में पॉजिटिव पाए गए अनेक व्यक्तियों के बिल्कुल स्वस्थ होने के पीछे भी सर्दी-जुकाम करने वाले वायरसों के आम प्रचलन में होने की भूमिका मानी जानी चाहिए — संभवत: आरटी-पीसीआर जांच में सर्दी-जुकाम वाले कोरोना वायरस पकड़ में आ जाते होंगे. इन सबके निहितार्थ बहुत व्यापक हैं जो टीकों की निरर्थकता पर फाइज़र के पूर्व मुख्य वैज्ञानिक डॉ. माइकल येडोन के लेख, जोकि पूरी तरह यकीन करने लायक नहीं है, से आगे तक जाते हैं.

तीन बातें तो स्पष्ट हैं. पहली ये कि सीरो टेस्ट के ज़रिए प्रतिरक्षण क्षमता आंकने का हमारा तरीका गलत है. दूसरी बात, प्लाज़मा से इलाज का हमारा तरीका भी गलत है क्योंकि उसमें अल्पावधि तक सक्रिय एंटीबॉटी ही होते हैं, जोकि शायद अपने बूते पर्याप्त सुरक्षा नहीं दे पाएं. तीसरी बात, इस समय कोविड मामलों में इस्तेमाल की जा रही दवाइयों में टी-सेल प्रतिक्रिया पर ध्यान तक नहीं दिया जा रहा, जबकि ये बात शायद दवाइयों जितना ही महत्वपूर्ण है.

दीर्घावधि की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के लिए टीकाकरण निश्चय ही एक बढ़िया तरीका है लेकिन क्या इसमें उन्हीं लोगों को शामिल किया जाए जिनमें टी-सेल प्रतिक्रिया नहीं पाई गई हो? एक दिलचस्प मुद्दा ये भी है कि पर्याप्त टेस्टिंग के अभाव में टी-सेल प्रतिरक्षण रहित लोगों की पहचान कैसे होगी. वास्तव में ये बिल्कुल आसान है — वायरस के संपर्क में आए और सीरो जांच या आरटी-पीसीआर में पॉजिटिव पाए गए लोगों को टीके लगाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि पूरी संभावना है कि उनमें टी-सेल इम्युनिटि विकसित हो चुकी हो. भारत में कोविड पॉजिटिव लोगों की बड़ी संख्या के बावजूद जेनेटिक मैपिंग में भी मिले दोबारा संक्रमण के मामलों का प्रतिशत बहुत ही कम, यानि वास्तविक जीवन में महत्वहीन है. साथ ही, यदि हम दिल्ली के आंकड़ों को व्यापक टेस्टिंग और सोशल डिस्टेंसिंग के अभाव का सही प्रतिबिंब मानें तो शायद आबादी के बेहद छोटे से हिस्से, मुख्यतया बुजुर्गों को ही टीके लगाने की ज़रूरत पड़े. तो फिर सबको टीके लगाने का क्या फायदा? जब तक ये मुफ्त नहीं हो इसका कोई मतलब नहीं है, और टीका मुफ्त का नहीं है. मैं यहां साइडइफेक्ट की चर्चा नहीं करूंगा, जोकि नियामक एजेंसियों की ज़िम्मेदारी है. एक बड़ी आबादी को टीके की दो खुराक लगाना, इससे जुड़ी व्यवस्थागत और प्रशासनिक समस्याओं के कारण अपने आप में एक दु:स्वप्न के समान है.

बड़े स्तर पर टीकाकरण, अल्पावधि वाली प्रतिरक्षण क्षमता के संकेतों की पहचान करने वाले परीक्षणों और विभिन्न दवाओं की बिक्री से किसको फायदा होता है ये कहने की ज़रूरत नहीं है. हमें ये याद रखने की ज़रूरत है कि मानव इतिहास में अभी तक किसी भी वायरस का मुकम्मल इलाज नहीं हो पाया है, यहां तक कि हर्पीज़ वायरस का भी नहीं — इसलिए हमें इलाज के पीछे नहीं भागना चाहिए. अतीत के मिलते-जुलते वायरल संक्रमणों की छाप ही आखिरकार हमारा बचाव करेगी.

इस रवैये को भाग्यवाद पर भरोसे और कर्मठता के अभाव के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि लोगों को लगता है कि कुछ-न-कुछ करना चाहिए. लेकिन प्रकृति स्वयं कर्मठता दिखाती रही है. प्रकृति वर्षों से दीर्घावधि की प्रतिरक्षण क्षमता तैयार करती रही है, और हमारे लिए शायद सबसे बड़ी उम्मीद यही है. निजी अस्पतालों के भारी-भरकम इलाज और उससे भी ज्यादा भारी-भरकम बिल के बावजूद कहीं बड़ी संख्या में लोग सरकारी अस्पतालों में इलाज से ठीक हो रहे हैं. ये इस बात का एक बड़ा सबूत है कि अंतत: शरीर की प्रतिरक्षण क्षमता ही बचाव में मुख्य भूमिका निभाती है. और इस बात की पूरी संभावना है कि अदृश्य प्रतिरक्षण क्षमता संभवत: नैसर्गिक कोरोनावायरस संक्रमण है जो ‘प्रकृति के टीके’ के रूप में काम करता है, और भारत में बड़ी संख्या में लोग पहले ही इसकी चपेट में आ चुके हैं.

(लेखक नई दिल्ली के आरएमएल अस्पताल में त्वचा विज्ञान के प्रोफेसर हैं, और गंभीर संक्रमणों से संबंधित इम्युनोलॉजी में सक्रिय रुचि रखते हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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