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Saturday, 2 November, 2024
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राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनावी रैलियों से बाहर रखना है तो आचार संहिता में बदलाव लाना होगा

राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों को चुनावी चक्र से बाहर रखने की ज़रूरत है. हालांकि, हर पार्टी की अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति होनी चाहिए.

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‘सरहदों पर बहुत तनाव है क्या,
कुछ पता तो करो चुनाव है क्या.’
डॉ. राहत इंदौरी, शायर

हाल ही में मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में था जहां एक युवा छात्र ने भाजपा नेताओं के सेना की वर्दी धारण करने पर अपनी व्यथा ज़ाहिर की. छात्र ने, जिसके दादा पाकिस्तान में एक साल के लिए युद्धबंदी रहे थे, इन नेताओं के बारे में कहा कि ‘इनको ये हक नहीं है.’ चूंकि युद्ध के बादल निर्बाध रूप से चुनाव अभियान से मिल रहे हैं, राष्ट्रहित में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और आदर्श आचार संहिता के प्रावधानों की नए सिरे से समीक्षा के पर्याप्त कारण हैं.

सशस्त्र सेना की बहादुरी और बलिदानों का राजनीतिक फायदा उठाना अशिष्ट और खतरनाक है. हाल के युद्ध नायकों की तस्वीरों का चुनावी प्रचार में इस्तेमाल, सेना के अभियानों के उल्लेख, शत्रु के हताहतों की संख्या से जोड़कर बड़े दावे किए जाने और नेताओं के सशस्त्र सेनाओं की वर्दी पहनने पर इस चुनावी मौसम के दौरान पाबंदी लगाई जानी चाहिए.

‘सैनिकों के अभियान चुनावी रैलियों के लिए अनुपयुक्त हैं.’ अमेरिकी विद्वान जूलियन सेलिज़र ने राष्ट्रीय सुरक्षा पर घरेलू राजनीति के अपरिहार्य प्रभाव के बारे में यह बात कही है. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान चर्चिल ने इस तरह की अशिष्टता के खिलाफ अपने सहयोगियों को आगाह करते हुए संसद में कहा था: ‘राष्ट्र को ऐसे नेताओं से उम्मीद लगाने में बहुत कठिनाई महसूस होगी जो एक हद तक गरिमाहीन स्थिति में देखे गए हैं.’


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आतकंवाद का फायदा उठाना

राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों को चुनावी चक्र से बाहर रखने की ज़रूरत है. हालांकि, हर पार्टी की अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति होनी चाहिए. नागरिकों को ये जानने का हक है कि विभिन्न दलों की इस बारे में क्या योजना है. पर ये सब चुनावी घोषणा पत्रों और नीति पत्रों की बात है. भारत की जनता को चुनाव में युद्ध घुसेड़ने के खुले और हताश प्रयासों से बचाया जाना चाहिए.

संपूर्ण पुलवामा-बालाकोट प्रकरण को भुनाने में कुछ नेताओं ने पल भर की भी देरी नहीं की. यहां तक कि उहोंने राजनीतिक रैलियों में मंच पर अपने पीछे शहीद सैनिकों की तस्वीरें तक लगाईं. और यहीं पर कानून की भूमिका हो सकती है.

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951

यह कानून में भारत में राष्ट्रीय और राज्यों के चुनावों के लिए प्रक्रियाएं निर्धारित की गई हैं. इसे बाबासाहेब आंबेडकर ने अनुच्छेद 327 के ज़रिए संविधान में समाहित किया था. इस अधिनियम की धारा 123 ‘भ्रष्ट तरीकों’ को परिभाषित करती है, जबकि धारा 125 में ‘चुनावी अपराधों’ का विवरण है.

मेरा प्रस्ताव इन्हीं धाराओं के दायरों में विस्तार का है. किसी उम्मीदवार (या उसके एजेंट) द्वारा ‘हालिया सुरक्षा अभियानों’ का हवाला देते हुए या उनकी ओर इशारा कर मतदाताओं को उकसाने या प्रभावित करने के लिए ‘अपील’ किए जाने को प्रतिबंधित और दंडित किया जाना चाहिए. इसके लिए दंड, अधिनियम में पहले से ही मौजूद दंड के सामान्य प्रावधानों (अयोग्य ठहराए जाने समेत) के अनुरूप हो सकता है. मेरी समझ से, ये हमारे संविधान के अनुच्छेद 19(2) के प्रावधानों के अनुरूप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक ‘उचित प्रतिबंध’ होगा.

यहां ‘हालिया’ के लिए एक तार्किक अवधि (जैसे, गत 24 महीने) का निर्धारण किया जा सकता है. इसी तरह, यह तय करने के लिए भी विचार-विमर्श और सहमति बनाने की ज़रूरत है कि इस संदर्भ में ‘सुरक्षा अभियान’ (विगत और मौजूदा) की परिभाषा क्या होगी. इसमें हर तरह की ‘अपील’ (मौखिक, विजुअल आदि) शामिल किया जाना चाहिए. अन्य नियम-कानूनों की तरह ही इसके सही कार्यान्वयन और पालन के लिए भी बुनियादी स्तर पर एक प्रभावी तंत्र खड़ा किए जाने की ज़रूरत होगी.

सरकारें आती-जाती रहेंगी लेकिन राष्ट्रीय रक्षा तंत्र के लिए, चुनावी शोरगुल से परे, एक संस्थागत निरंतरता होनी चाहिए. किसी को भी राष्ट्रीय सुरक्षा संकट के दोहन की इजाज़त नहीं होनी चाहिए – भारत के सर्वोच्च निर्वाचित व्यक्ति को भी नहीं, भले ही प्रस्तावित कानून के कार्यान्वन में दुश्वारियां आएंगी.


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चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता

आचार संहिता को जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के ज़रिए कानूनी दर्ज़ा मिला हुआ है. मार्च 2019 में जारी आचार संहिता के अध्याय 4.4 में ‘अनुमतियों और पाबंदियों’ का ज़िक्र है. इसी तरह अध्याय 2.3 में ‘भ्रष्ट तरीकों’ और ‘चुनावी अपराधों’ के बारे में जानकारी हैं. अब जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ इन शर्तों के दायरे में भी विस्तार का समय आ गया है.

जैसा कि जॉर्ज ऑरवेल ने 1940 के अपने लेख ‘मेरा देश दायें या बायें’ में लिखा है लोगों को पक्ष लेने पर बाध्य करने वाली घटनाओं में लड़ाई से बढ़कर कुछ नहीं है. दुनिया भर की सरकारों का युद्ध के दौरान झूठ बोलने और तथ्यों को छुपाने का इतिहास है. एक ओर जहां हमें मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाने की ज़रूरत है, वहीं हमें अपने निर्वाचित नेताओं से भी सवाल पूछने चाहिए. कोई भी सस्ती लोकप्रियता के उद्देश्य से लड़ाई में शामिल नहीं होता है. नेताओं को एक आंख राष्ट्रीय हित पर और दूसरी पुनर्निर्वाचन पर रखते हुए इसे नहीं देखना चाहिए.

होश, ना कि जोश

हम सदैव अपने बहादुर नायक विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान के ऋणी रहेंगे. जब राष्ट्र उनकी सकुशल वापसी का उत्सव मना रहा है, हमें खुफिया तंत्र की नाकामी का आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि जिसके कारण पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हमला हुआ. हमें पाकिस्तानी सेना मुख्यालय (देश की गुप्त सत्ता) के खिलाफ नए सिरे से रणनीति बनानी होगी.

पाकिस्तान को लेकर भारत का, और साथ ही मौजूदा परिस्थिति का अंध राष्ट्रवाद के लिए दोहन करने की कोशिश करने वालों को लेकर लोगों का, धैर्य खत्म होता जा रहा है.

जैसे हम अपनी सीमाओं और सैनिकों की रक्षा करते हैं, उसी तरह हमें देश के मतदाताओं और उनकी स्वायत्तता का भी संरक्षण करना चाहिए. मतदान का कार्य एक गहन मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक कार्य होता है. वोटरों को गलत तरीकों से प्रभावित करने के प्रयासों पर अंकुश लगाया जाना चाहिए, उन्हें खारिज किया जाना चाहिए.

भले ही पुलवामा के घाव अभी हरे हों, पर बूथ पर इन्हें भुनाने की प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है.

देशभक्तों और प्रचारकों के बीच एक महीन विभाजक रेखा होती है. भारत में अभी चुनावी मौसम है. कतिपय लोग राष्ट्र के ‘जोश’ को मापने का प्रयास करेंगे. ऐसे में किसी को तो राष्ट्र का ‘होश’ अक्षुण्ण रखना होगा.

(लेखक एक प्रशिक्षित वकील और कांग्रेस के प्रवक्ता हैं. ये उनके निजी विचार हैं. वे @vinayakdalmia से ट्वीट करते हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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