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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतModi अगर भारत को अंग्रेजी हुकूमत के साये से बाहर लाना चाहते हैं तो शुरुआत पुलिस सुधारों से करें

Modi अगर भारत को अंग्रेजी हुकूमत के साये से बाहर लाना चाहते हैं तो शुरुआत पुलिस सुधारों से करें

सेना के बैंड में भारतीय संगीत वाद्ययंत्र शामिल करना, नौसेना का नया ध्वज और राज पथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ करना, जैसे कदम तो उठाए जा चुके हैं. लेकिन उपनिवेशकाल की एक विरासत मिटाने में मोदी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई है, और वह है 1861 का पुलिस कानून.

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दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में बसे कटरा शीश महल के एक घर से पैंतालीस आने का सामान गायब हो गया. इसमें शामिल थे रसोई के कुछ बर्तन, महिलाओं के कपड़े, एक हुक्का और आश्चर्यजनक ढंग से एक कटोरी कुल्फी. घटना अक्टूबर 1861 की है, और इस अपराध की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए मईदुद्दीन यार खान पुत्र मुहम्मद ने दिल्ली सब्जी मंडी पुलिस स्टेशन का रुख किया जो उस समय दिल्ली के तीन पुलिस स्टेशनों में से एक था. जुआ, वेश्यावृत्ति, खच्चर चोरी और हत्या आदि की घटनाओं की जांच के बोझ तले दबी पुलिस के पास इसका कोई जवाब नहीं था कि आखिर कुल्फी चोरी के अजीबोगरीब मामले से क्या किया जाए. बहरहाल, अपराध की यह घटना पहली फर्स्ट इन्फॉर्मेशन रिपोर्ट (एफआईआर) के तौर पर दर्ज की गई थी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब से सत्ता की कमान संभाली है, भारतीयों को अपनी औपनिवेशिक पहचान से बाहर आने के लिए प्रोत्साहित करते रहे हैं. सेना के बैंड में भारतीय संगीत वाद्ययंत्र शामिल करना, नौसेना का नया ध्वज और राज पथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ करना, जैसे कदम उठाए जा चुके हैं.

लेकिन उपनिवेशकाल की एक विरासत मिटाने में मोदी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई है, और वह है 1861 का पुलिस कानून, जो भारतीय पुलिस बलों को राजनीतिक प्रतिष्ठान के प्रति तो जवाबदेह बनाता है लेकिन लोगों के प्रति नहीं.

16 साल पहले इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय पुलिस की ब्रिटिशकालीन कार्यप्रणाली में सुधार का एक खाका तैयार किया था—जिसमें अन्य बातों के अलावा केंद्र और राज्य सरकारों से पुलिस के शीर्ष पदों पर नियुक्ति को रेगुलेट करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय स्थापित करने को कहा गया था. इन सुधारों में पुलिस को कार्यात्मक स्वायत्तता प्रदान करने और बदले में सार्वजनिक जवाबदेही सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया था.

पिछले हफ्ते बिहार में चार मोटरसाइकिल सवारों के एक हाईवे पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाते हुए गुजरने की घटना—जिससे भगदड़ की स्थिति बन गई और जिस पर पुलिस का कहना है कि इरादा अपने गिरोह की दहशत फैलाना था—ने साफ कर दिया है कि सुधारों में नाकामी की क्या कीमत चुकानी पड़ रही है. स्थानीय पुलिस साफ जवाब नहीं दे पाई क्योंकि गोलाबारी क्षेत्रीय सीमा से परे भी हुई थी, और केवल यही आपराधिक न्याय प्रणाली में अव्यवस्था का संकेत नहीं है. बल्कि यौन उत्पीड़न से जुड़े मुकदमे तेजी से निपटाने के प्रयास विफल रहे हैं, और संगठित अपराध और आतंकवाद के नए खतरे भी उभर रहे हैं.

पुलिस की जवाबदेही पर जोर देने के साथ 1861 के अधिनियम में बदलाव का विधायी मॉडल लंबे समय से अस्तित्व में है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद के सालों में 17 राज्य नए पुलिस अधिनियम पारित कर चुके हैं.

लेकिन किसी ने सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नियुक्तियों और कार्यकाल के संबंध में अनिवार्य बताई गई स्वतंत्र प्रणाली लागू नहीं की है. ज्यादातर राज्यों में स्टेशन हाउस ऑफिसर से लेकर महानिदेशक स्तर तक की नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप एक आदर्श व्यवस्था है. केंद्र सरकार की ओर से होने वाली नियुक्तियों में भी अपारदर्शी मानदंड और प्रक्रिया अपनाए जाने की संभावना बनी रहती है.


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कैसे पड़ी भारतीय पुलिस की नींव

ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1793 में गवर्नर-जनरल चार्ल्स कॉर्नवालिस के अधीन भारतीय पुलिस की नींव रखने की शुरुआत की. और कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी जमींदारों से छीनकर दरोगा या पुलिस-थाना प्रमुखों को सौंपी जाने लगी. सिविल सेवक जॉन बीम्स ने अपने संस्मरण में दर्ज किया है, ‘वे अपने-अपने क्षेत्रों की कमान किसी छोटे-मोटे राजा की तरह ही संभालते थे.’ बीम्स ने थोड़े व्यंग्यात्मक अंदाज में कहा कि ये दरोगा लोगों के करीब होने के कारण अंग्रेजों को अपनी सेवाएं देते थे और अपराधियों से निकटता के कारण खुद अपनी सेवा करते थे. ‘वे खुद भी किसी तरह के कुकर्म में पीछे नहीं रहते थे लेकिन अमूमन किसी सजा से बचे रहते थे.’

1855 में ईआईसी की पुलिस प्रणाली के कामकाज की जांच करने वाले मद्रास टॉर्चर कमीशन ने पाया कि ‘इस पूरे प्रतिष्ठान में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी पूरे चरम पर है (और) हिंसा, यातना और क्रूरता बरतना अपराध का पता लगाने के प्रमुख तरीके हैं.’

1857 के गदर के बाद शाही ब्रिटिश अफसरों को सिविलियन पुलिस फोर्स की अहमियत समझ आई. फिर, जैसा इतिहासकार एरिन गिउलिआनी बताते हैं, उनकी रणनीति रही कि ‘कम से कम खर्च पर दक्षता बढ़ाई’ जाए. 1862 में भागलपुर में केवल 532 अधिकृत पुलिस अधिकारी थे, और आश्चर्यजनक ढंग से इनमें से हर एक को औसतन 3,740 लोगों की जिम्मेदारी संभालनी होती थी. व्यावहारिक तौर पर इसका मतलब था ग्रामीण क्षेत्रों का नियंत्रण स्थानीय कुलीनों को सौंप देना- और अपराध सुलझाने, चोरी के सामानों की वसूली और असंतोष दबाने के लिए जोर-जबर्दस्ती का इस्तेमाल करना.

स्थानीय गांव और शहरों के पुलिस अधिकारी ब्रिटिश अधिकारियों को सूचना देते और जो इसके बदले में शाही अधिकारियों के प्रति जवाबदेह होते थे, न कि उन लोगों के प्रति जिन पर शासन कर रहे थे.

शाही शासन ने जब जातीय विद्रोहों को कुचलने के लिए काउंटर-इंसर्जेंसी अभियान तेज किए—और एक राष्ट्रवादी आंदोलन की शुरुआत का सामना किया—तब पुलिस की दमनकारी भूमिका और अधिक स्पष्ट हो गई. 1907 में प्रशासक विलियम हंटर ने लिखा, ‘भारत में विशुद्ध सैन्य कार्यों से इतर सिविल फोर्स के सुरक्षात्मक और दमनकारी कार्यों में अंतर दर्शाने वाली रेखाएं हमेशा बहुत स्पष्ट नहीं हो सकती हैं.’

आपराधिक अन्याय का प्रतीक बनी

आजादी के बाद भारत को विरासत में एक कमजोर पुलिस बल मिला, जिसके पास कुछ खास हथियार तो नहीं थे लेकिन थोड़ा आतंक जरूर था. स्वतंत्र भारत के पहले अपराध सर्वेक्षण में इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक बी.एन. मलिक ने कहा था, ‘अपराधियों के बीच पुलिस को लेकर जो डर था, वो काफी हद तक काफूर हो चुका है.’ खुफिया प्रमुख ने आगे कहा, ‘जांच के तरीकों में या विज्ञान के इस्तेमाल में कोई सुधार नहीं हुआ है.’ ग्रामीण इलाकों के बारे में मलिक ने कहा कि पुलिस ने सीधे तौर पर ‘एक प्रभावी बल की स्थिति गंवा दी है.’

इसके नतीजे भी जल्द ही सामने आ गए. जैसा विद्वान डेविड बेली ने 1971 के एक वैचारिक पत्र में उल्लेख किया है कि भारत में अपेक्षाकृत कम अपराध होने संबंधी आंकड़े भ्रामक हैं. बेली का तर्क था, ‘अपराध के आंकड़े वास्तविक स्थिति दर्शाने के बजाये उन्हें जुटाने वाले संगठन के बारे में ज्यादा जानकारी देते हैं.’ अपराध का निम्न स्तर आपराधिक न्याय प्रणाली की कमजोर स्थिति का परिचायक है—न कि शांति का.

आज भी ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट की तरफ से जारी आंकड़े बताते हैं कि भारतीय पुलिस बल में कर्मियों की कुल संख्या सरकार की तरफ से स्वीकृत पदों से औसतन 20% कम हैं. बिहार में प्रति 100,000 लोगों पर सिर्फ 75 पुलिसकर्मी हैं जो स्वीकृत संख्या 115 से बहुत ही कम है. वहीं, तेलंगाना में यह आंकड़ा 209 के बजाये 130 और उत्तर प्रदेश में 183 के बजाये 133 है.

यहां तक कि जांच संबंधी आधुनिक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के साथ-साथ प्रशिक्षण मानक के मामले में भी स्थिति खराब हैं. विशेषज्ञ सोनल मारवाह का मानना है, ‘कोई सुसंगत मानक नहीं हैं. और अधिकांश प्रशिक्षण केंद्रों में बुनियादी सुविधाओं और प्रशिक्षकों की खासी कमी है. पुलिसकर्मियों का प्रशिक्षण बल प्रयोग पर केंद्रित होता है. नागरिक समाज के लिए पुलिस की जिम्मेदारियों के बजाये अपनी ताकत के इस्तेमाल के बारे में प्रशिक्षित करने पर ज्यादा जोर दिया जाता है.’

कहां रह गई कमी

भारत की केंद्र सरकार भी मानती है कि पुलिस व्यवस्था में गंभीर खामियां हैं. गृह मंत्रालय (एमएचए) के एक नोट में कहा गया है, ‘पुलिस को कुछ चुनिंदा कौशल (और) वंचितों के प्रति सहानुभूति न रखने वाले के तौर पर देखा जाता है. इस पर राजनीतीकरण और अपराधीकरण के आरोप लगते हैं.’ केंद्र सरकार 1969 से पुलिस आधुनिकीकरण के लिए धन मुहैया करा रही है—और 2021-2022 से अगले पांच वर्षों में 26,275 करोड़ रुपये देने की प्रतिबद्धता जताई गई है. लेकिन एमएचए ने माना है कि इसके नतीजे ‘जमीनी स्तर पर नजर नहीं आ रहे’ क्योंकि राज्यों के पास ‘उचित सलाह और मूल्यांकन का सर्वथा अभाव है.’

वैसे भी ये उपाय बहुत ज्यादा कारगर नहीं हो सकते. जब तक पुलिस संगठन स्वायत्त नहीं होते हैं, और खुद उन्हें अपने कार्यात्मक फैसले लेने का अधिकार नहीं मिलता है, वे जवाबदेह नहीं होंगे. और वे तब तक जवाबदेह नहीं हो पाएंगे जब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य सरकारों, खासकर उनकी पार्टी के शासन वाले राज्यों को वास्तविक कानूनी सुधारों के लिए प्रेरित नहीं करते.

26/11 हमले के बाद से सरकारें बार-बार और अधिक कुशल पुलिसिंग का वादा करती रही हैं लेकिन इसके मूर्तरूप लेने के लिए जरूरी संस्थागत बदलावों से हिचकिचाती रही हैं.

अक्टूबर 1979 में भागलपुर पुलिस के आदेश पर 33 विचाराधीन कैदियों को अंधा कर दिया गया था. पटेल साह की आंखें बाहर निकालकर उनमें तेजाब डाल दिया गया. भागलपुर के तमाम लोगों ने इस तरह की सजा पर खुशी जाहिर की. किसी बिना कानून वाले देश में ही इस वहशी तरीके से सजा देने को न्याय का प्रतीत माना जा सकता है.

ब्रिटिश सिविल सेवक जेम्स स्टीफन ने 1883 में लिखा था, ‘कड़ी धूप में जाकर सबूत ढूंढ़ने के बजाय किसी गरीब की आंखों में लाल मिर्च झोंक कर आराम से बैठना कहीं अधिक सुखद है.’

भारतीय गणतंत्र के ताने-बाने में लिपटी ब्रिटिश सामाज्यकालीन आपराधिक न्याय प्रणाली देश के लोकतंत्र और नागरिक जीवन दोनों पर भारी पड़ रही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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