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Thursday, 25 April, 2024
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मध्य एशिया में भारतीय हिंदू व्यापारियों की कहानी बताती है कि चीन के मुकाबले के लिए बिजनेस को आगे रखना होगा

समरकंद, बुखारा, ताशकंद में सदियों पहले भारतीयों ने एक मामूली तरीके से अपनी तकदीर बनाई थी— मध्य एशिया के उपभोक्ताओं को जो भी चाहिए वह उन्हें बेच कर.

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सन 1557 की सर्दियों में एंथनी जेन्किन्सन केस्पियन सागर के पार नोगई गिरोह के इलाके काज़ान रेगिस्तान और तार्तार की अपनी ऐतिहासिक यात्रा के अंत में उज्बेकिस्तान के बुखारा की दहलीज पर पहुंचे थे. वे लंदन की मस्कोवी कंपनी के लिए इस मशहूर शहर की दौलत का दोहन करने का पक्का इरादा करके आए थे. लेकिन वहां जाकर उन्हें पता चला कि भारतीय व्यापारियों ने पहले ही बाजी मार ली है. जेन्किन्सन ने लिखा है कि सुदूर बंगाल से आए व्यापारी ‘ऐसे सफेद कपड़े लाकर बेच रहे थे जिससे सूती ऊन और खुरदुरे लिनेन के वस्त्र बनाए जा सकते थे.’

दो सदियों के बाद, जब प्रूशिया के भूगर्भशास्त्री पीटर साइमन पल्लास रूस के अस्तरखान गए तो उन्हें ‘इंडिस्कोई ड्वोर नाम के भारतीय क्षेत्र में रह रहे भारतीय व्यापारियों की मूर्तिपूजा में शरीक होकर बहुत खुशी हुई’. उन्होंने लिखा है कि उस मंदिर में राम, लक्ष्मी और हनुमान की मूर्तियां थीं और ‘गंगा से लाए गए तीन काले पत्थर भी थे जिन्हें वे भारतीय पवित्र मानते थे’.

इतिहासकार स्टीफेन डेल द्वारा खुदाई से प्राप्त रिकॉर्ड्स से हमें उस काल में हिंदूकुश के पार व्यापार करने वाले, उपनिवेश-पूर्व के कुछ दिग्गज व्यापारियों के नाम मालूम हुए— पंजाबी बंदा कपूर चंद, राजस्थान के मारवाड़ बाराएव, नारायण चंचमलोवा, विश्नट नरमलदसोव, तालाराम आलिमचंदोव और रामदास ज्हासूएव. इसके बाद दो नये साम्राज्यों ब्रिटेन और रूस ने उस क्षेत्र का कायापलट कर दिया. मध्य एशिया के भारतीय रेगिस्तान में लुप्त हो गए.

आज जब भारत तेल और गैस से संपन्न मध्य एशिया में— जिस क्षेत्र में उसका भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी चीन अपना दबदबा बढ़ाता जा रहा है— अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहा है, उन महान साहसी व्यापारियों की कहानियां नयी दिल्ली का मार्गदर्शन कर सकती हैं.


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मध्य एशिया में भारत की महत्वाकांक्षाएं

जाहिर है, भारत ने शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का पूर्णकालिक सदस्य बनने का फैसला इतिहास को नया रूप देने की बड़ी महत्वाकांक्षा के तहत ही किया है. अपने एक भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि वे यूरेशिया के उत्तरी कोने से लेकर एशिया के दक्षिणी तटों तक को भौतिक तथा डिजिटल रूप से जोड़ने के लिए एक विशाल नेटवर्क बनाने का प्रयास करेंगे. लेकिन घटनाएं मोदी के इरादों के खिलाफ घटी हैं. तालिबान का उत्कर्ष, ईरान के खिलाफ प्रतिबंध, यूक्रेन संकट, सबने मिलकर मध्य एशिया को लेकर भारत के सपनों को तोड़ डाला.

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इस सप्ताह, प्रधानमंत्री मोदी जब एससीओ की शिखर बैठक में भाग लेने के लिए उज्बेकिस्तान के ताशकंद पहुंचे, तब मध्य एशिया में अपनी मौजूदगी का विस्तार करने की भारत की उम्मीदों का सामना एक भू-राजनीतिक दीवार से हुआ. यूक्रेन युद्ध जारी रहने की वजह से दुनिया में अलग-थलग पड़ते जा रहे रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को पूरी गर्मजोशी से गले लगाने को मजबूर होना पड़ा है. यह चीन को मध्य एशिया में अपनी मौजूदगी का विस्तार करने में और सक्षम बनाएगा, जहां उसने 40 अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश किया है और विद्वान राफेल्लो पान्तूक्की तथा अलेक्ज़ांड्रोज़ पीटरसन जिसे ‘एक बेपरवाह साम्राज्य’ कहते हैं उसकी नींव रख दी है.

ईरान से अफगानिस्तान तक रेल मार्ग बनाने, रूस से होते हुए यूरोप तक मध्य एशिया में सड़क को फिर से चालू करने की बातें अब काल्पनिक लगती हैं. भारत चीन की तरह कई अरब डॉलर के निवेश करने की सोच नहीं सकता लेकिन इतिहास बताता है कि यह नामुमकिन नहीं है.


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व्यापार के साम्राज्य

भारत के पहले मुगल बादशाह ज़हीरुद्दीन बाबर ने उस साम्राज्य पर कब्जा किया था जिससे होकर कई व्यापार मार्ग गुजरते थे जो हिंदुस्तान को मध्य एशिया, अनातोलिया और उत्तरी चीन से जोड़ते थे. उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि मैदानी इलाकों से कारवां कांधार और काबुल और फ़र्घाना तक के लिए निकलते थे और ‘गुलामों से लेकर सफेद कपड़े, मिठाई, शुद्ध चीनी और गुड़, मसाले वगैरह लाते थे.’

इसके अलावा मध्ययुग की भारतीय फौज के लिए सबसे मूल्यवान तुर्क घोड़ों के लिए कपड़ों, नील और मसालों का व्यापार किया जाता था. आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि व्यापार से भारत को बड़ी संपत्ति हासिल होती थी. ईरान के इस्फ़हान में ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट एडवर्ड पेट्टस ने लिखा है कि ‘अपने कपड़ों के बदले में बनिए देश का अधिकांश सोना-चांदी ले जाते थे’. मध्य एशिया में छोटा मुगल सिक्का भी पाया गया है, जो बताता है कि मूल्यवान धातुओं का एकतरफा प्रवाह होता था.

खानाबदोश मंगोलों ने जो चार अलग-अलग साम्राज्य— मुगल भारत, सफाविद ईरान, उज़्बेकों के अधीन तुरन और मॉस्को— बनाए उनका राज उस विशाल भूभाग पर था जिस पर व्यापारियों का कारोबार फैला था. लेकिन किसी केंद्रीय सत्ता का नियंत्रण नाम को ही था. जेन्किन्सन ने बुखारा तक की यात्रा एक हथियारबंद कारवां में शामिल होकर की थी जिसे डाकुओं के हमलों का कई बार मुकाबला करना पड़ा था, इसके आगे की यात्रा और खतरनाक मानी जाती थी. लेकिन ये खतरे भारतीय व्यापारी को डराते नहीं थे.

स्टीफेन डेल ने लिखा है कि समकालीन इतिहासकारों के ब्योरे बताते हैं कि मध्य एशिया में भारतीय व्यापारियों के समुदाय में मुल्तान में चिनाब नदी के ऊपरी इलाके पंजाब शहर के व्यापारियों की संख्या सबसे ज्यादा थी. रूसी व्यापारी फा कोटोव ने 1623 में जब उस शहर का दौरा किया था तब मुल्तान के इस्फ़हान से आए हिंदू तथा मुस्लिम व्यापारियों को वहां देखा था. जर्मन चिकित्सक एंजेलबर्ट केंफ़र ने रिकॉर्ड किया है कि 1684-85 में उस शहर में मुल्तान मूल के करीब 10,000 व्यापारी रह रहे थे.

बड़ी संख्या में भारतीय पुरुषों ने तुर्क महिलाओं से शादी करके अस्तराखान के अगरीझान इलाके में हिंद-तुर्क समुदाय का गठन किया था. बूजाक लछिराम जैसे कुछ लोग अपने तुर्क परिवार के साथ घास के विशाल मैदान पर जानवरों की खाल से बने तंबुओं में रहते थे. द्झुक्की नाम से पहचाने गए व्यक्ति की तरह कुछ लोग ऐसे थे जो ईसाई बन गए थे.

लेकिन हर कोई भारतीय व्यापारियों की ताकत और रुतबे से खुश नहीं था. इतिहासकार स्कॉट लेवी ने लिखा है कि 18वीं सदी के एक इतिहासकार मीर मुहम्मद अमीन बुखारी ने शिकायत की थी कि ‘हिंदुस्तानी लोग मुसलमानों पर हावी हैं’. और ‘व्यापारिक रिश्तों में वे दाग-दर दाग बेकाबू होकर मुसलमानों को तरह-तरह की तकलीफ देते हैं.’

उसने आगे लिखा है कि विवादों के मामले में ‘रहनुमा जो होता है वह हिंदू का बचाव करता है और मामले का फैसला कानून के लिहाज से नहीं बल्कि सराय के आदेश के मुताबिक करता है.’ स्थानीय उद्यमी भारतीय व्यापारियों और महाजनों के आने से नाराज होते थे और शासकों से गुजारिश करते थे कि उन्हें आने न दिया जाए. लेकिन वे प्रायः इसमें सफल नहीं होते थे. सभी शासकों की तरह ज़ारों को भी आमदनी चाहिए थी.

इस तरह, परिवार के परिवार मध्य एशिया में आ पहुंचे. 17वीं सदी के सुतुर नाम के एक व्यापारी ने अधिकारियों को लिखा कि उसके साथ रूस में इतना अच्छा बर्ताव किया गया कि उसने अपने भाइयों और 25 दूसरे भारतीय व्यापारियों को अस्तरखान जाने के लिए प्रोत्साहित किया. दो दूसरे भाइयों ने पर्शिया में व्यापार शुरू किया.


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जीवन में शामिल व्यापार

जिस व्यापार ने मध्य एशिया से भारत की आमदनी को परवान चढ़ाया वह कमजोर दिल वालों के लिए नहीं था. आधुनिक मानव तस्करों की तरह, उस समय भारत से रवाना होने वाले विशाल व्यापारिक काफिलों में हर साल हजारों आदमी ले जाए जाते थे जिन्हें गुलामों के तौर पर बेचा जाता था. गुलामों का व्यापार पुराना था और भारत बिक्री के लिए बड़ी संख्या में लोगों की सप्लाई करता था. 1011 में थानेसर में लूटमार करने के बाद महमूद गजनी की फौज ने दो लाख गुलामों को कब्जे में ले लिया. भारत पर इस लुटेरे की 12वीं चढ़ाई में उसने इतने गुलामों पर कब्जा कर लिया कि एक गुलाम की कीमत गिरकर दो दिरहम हो गई.

ईरान के दरबारी अबू नस्र अल-उत्बी ने 11वीं सदी की अपनी ‘किताब अल-यमनी’ में लिखा है कि ‘इराक और खुरासन गुलामों से भर गए. गोरे-काले, अमीर-गरीब, सब इन गुलामों में घुल-मिल गए.’ लेवी ने लिखा है, ‘हर अमीर घर ने अपना कामकाज करवाने, बगीचों की देखभाल, खेतों में काम करने के लिए कई गुलाम रख लिये थे.’

गुलामों का व्यापार बेहद फायदेमंद था लेकिन इसमें जोखिम भी बड़ा था और व्यापारी के खुद गुलाम बन जाने का खतरा रहता था. हिंदू कुश से गुजरने वाले व्यापारियों का डाकू लोग अपहरण करके गुलामों के बाजार में बेच देते थे. कर्ज का निपटारा गुलामों की बिक्री से करने के उदाहरण भी हैं.

मध्य एशिया में भारतीय गुलामों की कम ही कहानियां इतनी सदी बाद बची रह पाई हैं. लेकिन इतिहासकार शादाब बानो ने कुछ बीज हासिल किए हैं. 1269 में दिल्ली से मुल्तान की यात्रा करने वाले मिनहाज सिराज ने अपनी बहन को उपहार देने के लिए कुछ गुलाम खरीदे थे. मथुरा के निवासी हिंदू खान को पर्शिया के व्यापारी फख़रुद्दीन सफाहानी ने खरीदा था. कॉन्स्तिंतिनोपोल (अब इंस्तांबुल) की 14वीं सदी की राजकुमारी भारतीय गुलामों के दस समूहों की मालिका थी. मुल्तान की यात्रा करने वाले अंग्रेज़ यात्री थॉमस कोर्यट ने एक ऐसा गुलाम भी पाया जिसे इतालवी भाषा आती थी.

मुगल साम्राज्य ने जब अपनी सल्तनत मजबूत कर ली, तब 18वीं सदी में शासकों ने काम के गुलामों के निर्यात पर रोक लगाना शुरू किया. तब बाजार में आई कमी को ईरान के गुलामों से पूरा किया गया.

ब्रिटेन के शाही जासूस आर्थर कोनोली ने, जिसने इस व्यापार को ‘द ग्रेट गेम’ नाम दिया था, अफगानिस्तान में बैख के पास खुलम के गुलाम बाजार का दौरा करने के बाद लिखा है कि वहां उसने देखा कि लोग ‘एक बेहद खूबसूरत पर्शियन लड़की को खरीदने की कोशिश कर रहे थे. मैं कह सकता हूं कि वैसी सुंदर लड़की मैंने दूसरी नहीं देखी. उसकी गर्दन हाथ भर लंबी थी, आंखें प्यालियों जैसी बड़ी थीं जिनसे आंसू बारिश की तरह झर रहे थे और वह इतनी गमजदा थी कि अपने होश में नहीं थी.’

कपड़े, नील, चीनी, मसाले, गुलाम, इन सबके साथ भारत के व्यापारी अराजक क्षेत्र में अपना माल ले जाने के रास्ते निकाल लेते थे. सांस्कृतिक और कानूनी अड़चनों का सामना करते हुए वे गंभीर निजी खतरों से भी पार पा लेते थे. अपनी फौज न होने के बावजूद वे राजनीतिक प्रभाव कायम कर लेते थे. समरकंद, बुखारा, ताशकंद में सदियों पहले भारतीयों ने एक मामूली तरीके से अपनी तकदीर बनाई थी— मध्य एशिया के उपभोक्ताओं को जो भी चाहिए वह उन्हें बेच कर.

अब मध्य एशिया में चीन के दबदबे का मुकाबला करने के लिए भारत को अपनी सरकार की जगह अपने व्यवसायियों को अग्रिम मोर्चे पर रखना पड़ेगा.

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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