भारतीय सेना और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की तकनीकी सैन्य क्षमताओं में अंतर और चीनी सेना द्वारा आगे बढ़कर कदम उठाते हुए बेहतर भौगोलिक नियंत्रण बनाने के मद्देनज़र भारत के लिए ये एक विवेकपूर्ण रणनीति है कि अप्रैल 2020 से पूर्व की यथास्थिति की बहाली के अपने राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए वह अनिश्चितकालीन तनातनी के दौरान सैन्य और कूटनीतिक वार्ताएं जारी रखे. यहां तक कि मूल राजनीतिक उद्देश्य से थोड़े कम– एक बफर जोन बनाए जाने के साथ यथास्थिति जहां गश्ती, तैनाती या ढांचागत सुविधाएं निर्मित करने की अनुमति नहीं हो– पर समझौता करना भी व्यावहारिक होगा.
इस रणनीति के पीछे का तर्क बिल्कुल सरल है– चीनियों को थकाना क्योंकि इस दुर्गम क्षेत्र में अनिश्चित काल के लिए बड़े पैमाने पर सेना की तैनाती बनाए रखना आसान नहीं है, खासकर जब सर्दियों में मौसमी दशाएं विषम हो जाती हैं. हालांकि, खतरा ये है कि यदि चीनी भारत की रणनीति को भांप गए, तो वे दांव बढ़ाते हुए दौलत बेग ओल्डी सेक्टर तथा पैंगोंग त्सो के पूर्वोत्तर और पूरब के इलाकों पर कब्ज़े का प्रयास कर सकते हैं.
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प्रतिरोधी सैन्य दबाव
यह रणनीति प्रतिरोधी सैन्य दबाव के ज़रिए ही सफल हो सकती है, न कि ‘कोई सैन्य दबाव बनाए बिना’ जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में एक वास्तविक सरकारी प्रवक्ता को कहते बताया गया है. मैं समझता हूं ये अपेक्षाकृत जूनियर सरकारी/सैन्य अधिकारी की कल्पना की ऊंची उड़ान रही होगी. क्योंकि ये एक तरह से पराजय का संकेत देने और स्थिति को नियति के तौर पर स्वीकार करने जैसा है. मुझे पूरी उम्मीद है कि ये नरेंद्र मोदी सरकार और सैन्य नेतृत्व का दृष्टिकोण नहीं है.
एलएसी पर स्थिति के बारे में इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में एक सरकारी अधिकारी का ये कहते हुए उल्लेख किया गया है कि ‘नई दिल्ली ने ‘धीमी प्रगति के बावजूद क्रमिक बदलाव’ की रणनीति पर चलने और साथ ही अप्रैल से पहले की यथास्थिति की बहाली पर ज़ोर देते रहने का फैसला किया है. उसने चीन के खिलाफ सैन्य दबाव बनाने के किसी विकल्प से भी इनकार किया, ताकि असावधानीवश तनाव बढ़ने की आशंका से बचा जा सके.’
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चिंताजनक खामोशी
ये बात अस्वाभाविक और चिंताजनक है कि एक अनाम ‘सरकारी अधिकारी’ राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति पर इतनी अगंभीरता के साथ बात कर रहा है जबकि प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए), चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और सेनाओं के प्रमुख चुप्पी साधे हुए हैं. इसकी एकमात्र सकारात्मक व्याख्या यही हो सकती है कि इस तरह के बयान रणनीतिक चतुराई की किसी योजना के तहत दिए जा रहे हों. हालांकि यदि सचमुच ऐसा इरादा है, तो इस तरह के बयान औपचारिक रूप से रक्षा मंत्रालय/एनएसए/सीडीएस के स्तर पर जारी किए जाने चाहिए.
भारत-चीन सीमा मामलों पर परामर्श और समन्वय (डब्ल्यूएमसीसी) के लिए कार्यतंत्र की शुक्रवार की बैठक में दोनों पक्ष कोर कमांडर स्तर पर आगे भी वार्ता करने पर सहमत हुए. देसपांग और पैंगोंग त्सो के उत्तर में यथास्थिति बरकरार है और सेनाओं को पीछे हटाने को लेकर कोई प्रगति नहीं हुई है. जबकि हॉट स्प्रिंग और गोगरा में सैनिकों को पीछे हटाने की कार्रवाई पूर्व की वार्ताओं में हुई सहमति के अनुरूप नहीं हुई है. सिर्फ गलवान घाटी में ही दोनों पक्षों के सैनिक पीछे हटे हैं और उनके बीच 4 किलोमीटर का बफर ज़ोन स्थापित किया गया है.
मंगलवार को चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कोर कमांडरों के बीच वार्ताओं के चार दौर तथा भारत-चीन सीमा मामलों पर परामर्श और समन्वय के लिए कार्यतंत्र के तहत तीन बैठकों का उल्लेख किया. वेनबिन ने कहा, ‘अधिकांश इलाकों में सैनिकों के पीछे हटने के साथ ही ज़मीनी स्थिति सामान्य होती जा रही है और तनाव कम हो रहा है.’ इस बयान से संकेत मिलता है कि चीन की सैनिकों को पीछे हटाने की आगे और योजना नहीं है.
अतिक्रमण वाले इलाकों का सामरिक और रणनीतिक महत्व
पूर्वी लद्दाख का भूगोल अनूठा है. लेह और उसके 150 किलोमीटर पूरब तक का इलाका बेहद दुर्गम है. वहां संकरी घाटियां और उनके इर्द-गिर्द 15,000 से 23,000 फीट ऊंची पहाड़ियां हैं. यही स्थिति श्योक नदी से लगे देसपांग मैदान तक पैंगोंग त्सो से 130 किलोमीटर उत्तर तक और इसके 60-80 किलोमीटर पूरब तक के इलाकों में पाई जाती है. इन इलाकों के आगे तिब्बती पठार का विस्तार है. जहां घाटियां चौड़ी हैं, आधारभूत ऊंचाई बढ़कर 14,000-15,000 फीट हो जाती है और इलाके में दुर्गम और अपेक्षाकृत क्रमिक ढलान वाली पहाड़ियों का मिश्रण है. ढलान वाले क्षेत्र घाटियों से 2,000-3,000 फीट ही ऊंचे हैं और टोही सर्वेक्षणों के बाद वहां तक ट्रैक करके या हाईमोबिलिटी वाहनों से पहुंचा जा सकता है.
चूंकि एलएसी पर शांति बनी रहती थी इसलिए वहां नियंत्रण रेखा (एलओसी) जैसे सुरक्षा इंतजाम नहीं किए गए थे, सिर्फ इंडो-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) की निगरानी गश्त की व्यवस्था की गई थी. 3 इन्फैंट्री डिवीज़न की मुख्य रक्षात्मक तैनातियां सिंधु घाटी में लद्दाख रेंज और चुशुल घाटी में पैंगोंग रेंज में की गई थीं. डीबीओ सेक्टर के पठारी भूमि होने के कारण रक्षात्मक तैनातियां अपेक्षाकृत ऊंचे स्थलों पर की गई हैं. गलवान घाटी में सिर्फ आईटीबीपी की गश्ती होती थी.
मुख्य रक्षात्मक तैनातियां ऊंचाई वाले और विभिन्न रास्तों के सम्मिलन वाले क्षेत्रों पर प्रभुत्व के प्रभावपूर्ण सिद्धांत के अनुरूप की गई हैं. इसके कारण पूरब में 10-80 किलोमीटर का अग्रिम क्षेत्र निर्मित होता है, जहां आईटीबीपी निगरानी रखती है और गश्त लगाती है.
युद्ध की स्थिति में, इस इलाके की रक्षा का भार चुनिंदा रक्षात्मक/अवरोधात्मक सुरक्षा चौकियों और मेकेनाइज़्ड टुकड़ियों के हाथों में होती. हालांकि इन तैनातियों से संबंधित सैन्य बेस बहुत पीछे स्थित हैं, लेकिन एलएसी पर और उसके पार आगे बढ़कर की जाने वाली कार्रवाइयों के लिए मुख्य रक्षात्मक चौकियों के पास पर्याप्त सैन्य बल को रखा जाता रहा है, खासकर उन इलाकों में जहां दोनों देशों की धारणाओं में परस्पर मेल नहीं है. हालांकि हम इस विकल्प को आजमा नहीं पाए हैं.
एलएसी की अवस्थिति दोनों पक्षों द्वारा 1993 के समझौते के वक्त नियंत्रित क्षेत्रों के अनुरूप निर्धारित की गई थी. पैंगोंग त्सो और देसपांग मैदान में चीन के 7 नवंबर 1959 के दावों की अवस्थिति (1959 क्लेम लाइन नाम से भी ज्ञात) एलएसी से क्रमश: 10 और 20 किलोमीटर उत्तर में थी. 1959 की क्लेम लाइन की योजना चीन ने बहुत सावधानी से बनाई थी. इसकी प्रकृति रणनीतिक है. यह पीएलए को सभी सेक्टरों में भारत की अग्रिम तैनातियों को अलग-थलग करने और सभी सेक्टरों को एक-दूसरे से पूर्णतया काटने का अवसर देती है, ये बात डीबीओ सेक्टर पर विशेष तौर पर लागू होती है.
आगे बढ़कर किए गए चीनी अतिक्रमण और देसपांग, गलवान नदी घाटी, हॉट स्प्रिंग-गोगरा-कोंग्का ला और पैंगोंग त्सो के उत्तर में उसके सैन्य जमाव के मद्देनज़र युद्ध होने पर भारत कमज़ोर स्थिति में रहेगा. गलवान नदी घाटी और बर्त्से स्थित संकरे मार्ग पर हमले की स्थिति में डीबीओ सेक्टर के पूरी तरह अलग-थलग पड़ जाने की आशंका रहेगी. इसी तरह फिंगर 4 और एने ला से किए गए हमले के कारण फोबरांग के पास हॉट स्प्रिंग-गोगरा-कोंग्का ला का संपर्क टूट सकता है. ऐसी स्थिति में डीबीओ सेक्टर से लगे पैंगोंग त्सो के पूरब और पूर्वोत्तर के संपूर्ण क्षेत्र के हमारे हाथ से निकलने का खतरा रहेगा. साथ ही, बड़े जवाबी प्रहार के हमारे विकल्प चुशुल सेक्टर, सिंधु नदी घाटी सेक्टर और चुमार सेक्टर तक ही सीमित रह जाएंगे.
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उचित ऑपरेशनल रणनीति
हमारी रणनीति अनिश्चितकालीन ‘तनातनी’ के साथ बफ़र जोन के साथ या उसके बगैर यथास्थिति बहाल करने की होनी चाहिए, साथ ही हमें हमले में अलग-थलग पड़ने के खतरे वाले इलाकों में पूरी रक्षात्मक तैयारियों और एक प्रबल जवाबी हमले की क्षमता के साथ मुस्तैद रहना होगा.
इसे कार्यरूप देने के लिए हमें डीबीओ-गलवान सेक्टर, हॉट स्प्रिंग-गोगरा-कोंग्का ला-त्सोगत्सालु सेक्टर और मर्सिमिक ला-एने ला-फोबरांग-फिंगर 1-3 सेक्टर में संसाधनों का भारी जमावड़ा करना होगा, जिसमें रणनीतिक जवाबी हमले की क्षमता भी निहित होनी चाहिए. यहां रक्षा तैनातियां और रिहाईश स्थायी प्रकृति की होनी चाहिए. इन सेक्टरों में ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि अलग-थलग पड़ने पर भी लड़ाई जारी रखी जा सके. लद्दाख और पैंगोंग रेंजों में मुख्य रक्षात्मक क्षेत्रों में सैन्य उपस्थिति बनी रहनी चाहिए. हमारे रिज़र्व दस्तों को चुशुल/सिंधु नदी घाटी/चुमार सेक्टरों में जवाबी हमले के लिए ऑपरेशनल स्तर पर तैयारी के साथ तैनात करना होगा.
भारत के सशस्त्र बलों में उपरोक्त रणनीति, जिसमें पीएलए को थकाने के अलावा उसकी आक्रामक कार्रवाइयों से निपटने का भी ध्यान रखा गया है, को कार्यान्वित करने की क्षमता है. इसमें जवाबी या अपने स्तर पर हमले के लिए ऑपरेशनल स्तर की तैयारियां किए रखने पर भी ज़ोर दिया गया है. इस संबंध में समझदारी यही होगी कि हमारी रणनीति की प्रमुख बातों से राष्ट्र को औपचारिक रूप से अवगत कराया जाए, बजाए इसके कि अनाम अधिकारी अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाते हों.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की है. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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