भारतीय सीमा के 4.5 किलोमीटर अंदर, अपर सुबनसिरी जिले में सारी चू नदी के किनारे नये बसाए गए चीनी गांव के ‘रहस्योदघाटन’ पर भारतीय औए चीनी सरकारों की जो औपचारिक प्रतिक्रिया सामने आई है वह हिमालय के ऊंचे इलाकों में शक्ति संतुलन का जायजा दे देती है. यहां तक कि हमारी मीडिया में, इस पर सनसनीखेज खबरें वालों को छोड़कर बाकी ने बड़े संयम के साथ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण प्रस्तुत किया और यह मान बैठे कि वह क्षेत्र 25 अगस्त 1959 के लोंगजू प्रकरण के बाद 62 साल से चीनी कब्जे में रहा है. उस समय भारतीय और चीनी सेना पीएलए के बीच पहली सीधी टक्कर लोंगजू में ही हुई थी. वहां हमारी फौजी चौकी पर हमला किया गया था और असम राफल्स के चार सैनिकों को युद्धबंदी बना गया था. इसके बाद विरोधपत्रों का आदान-प्रदान हुआ था, पीएलए कुछ समय के लिए पीछे हटी और फिर वहां काबिज हो गई.
इस लेख में मैं सीमा प्रबंधन और विकास के मामले में भारत और चीन के परस्पर विरोधी नजरिए के परिणामों का विश्लेषण करूंगा और आगे के रास्ते के बारे में चर्चा करूंगा.
भारत में चीनी दूतावास के प्रवक्ता जी रोंग ने 21 नवंबर 2020 को बीजिंग स्थित चीनी विदेश मंत्रालय का यह बयान ट्वीट किया कि ‘चीन के तिब्बत के दक्षिणी भाग में ज़ांगनान को लेकर चीन की स्थिति निरंतर साफ रही है. चीनी भूभाग पर अवैध रूप से स्थापित तथाकथित ‘अरुणाचल प्रदेश’ को हमने कभी मान्यता नहीं दी है.अपनी जमीन पर चीन के द्वारा सामान्य निर्माण उसकी अपनी संप्रभुता का मामला है.’ 80 साल पुराने विवाद को लेकर कोई अगर-मगर नहीं, उसका कोई जिक्र नहीं, ‘कब्जे में लिये गए संप्रभु क्षेत्र’ के मामले अपने अधिकारों की पूरी स्पष्टता.
चीनी मुखपत्र ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने विशेषज्ञों को उद्धृत करते हुए भारतीय मीडिया में छपी रिपोर्टों का विश्लेषण प्रकाशित किया. सिंघूआ यूनिवर्सिटी के नेशनल स्ट्रेटेजी इंस्टीट्यूट में शोध विभाग के निदेशक कियान फेंग ने कहा कि ‘चीन और भारत ने इस क्षेत्र में अपनी सीमा रेखाएं स्पष्ट नहीं की हैं इसलिए वे भारत के इलाके में गांव बसाने के लिए चीन को दोषी नहीं बता सकते.’ इस रिपोर्ट में चाइनीज एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज (सीएएसएस) में इंस्टीट्यूट ऑफ चाइनीज बॉर्डरलैंड स्टडीज़ के शोधार्थी झांग योंगपान का यह बयान उद्धृत किया गया है कि ‘चीन और भारत के क्षेत्रों का निर्धारण करने के लिए भारत सरकार अगर इस मैकमोहन लाइन का इस्तेमाल करती है तो यह बकवास है. देश जबकि कोविड-19 की महामारी से परेशान है तब भारतीय मीडिया को इस मसले को नहीं उछालना चाहिए.’
मेरे ख्याल से यह चीन के इस सरकारी रुख को भी प्रतिध्वनित करता है कि जब तक सीमारेखा का निर्धारण नहीं हो जाता तब तक चीन को विवादित इलाके में अपनी मनमर्जी करने का अधिकार है. यह भी स्पष्ट है कि चूंकि नक्शों का भी आदान-प्रदान नहीं हुआ है इसलिए सीमा निर्धारण की निकट भविष्य में संभावना नहीं है.
वास्तव में, पूरे सीमा क्षेत्र में चीन अपनी नीति के तहत कार्रवाई करता रहा है. एमआइटी में चीनी मामलों के विख्यात विशेषज्ञ एम. टेलर फ्रेवेल का कहना है कि गांव की स्थापना ग्रामीण सशक्तिकरण की चीनी योजना के तहत किया गया, जो 2017 में 4.6 अरब डॉलर के बजट से शुरू की गई और 2020 में उसका समापन होना था. इस योजना के तहत तिब्बत में सीमारेखा के पास 624 मॉडल ‘श्याओकांग’ (समृद्ध) गांवों को बसाने का फैसला किया गया था. चीनी मामलों के विशेषज्ञ क्लाउड आरपी के मुताबिक, 2015 के बाद से ऐसे 965 गांव बसाए जा चुके हैं.
चीन का मकसद साफ है. वह आर्थिक विकास और पर्यटन के विस्तार के बहाने सीमाओं को अपने नियंत्रण में मजबूत करना चाहता है. ‘रॉ’ के पूर्व अतिरिक्त सचिव जयदेव राणाडे के मुताबिक, सीमा सुरक्षा वाले ‘श्याओकांग’ गांवों को सीमा पर ‘बफर ज़ोन’ के रूप में भी इस्तेमाल करने का इरादा है, जिनमें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीन के प्रति वफादार लोगों को बसाया जा रहा है. खुद राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सीमा क्षेत्र की सुरक्षा के इस सिद्धान्त को स्पष्ट किया है— ‘सीमा क्षेत्रों का प्रशासन देश के प्रशासन की, और तिब्बत को स्थिरता प्रदान करने की भी कुंजी है.’ इन आधुनिक गांवों को वाइ-फाइ जैसी सुविधाओं के जरिए निगरानी में रखा जा सकता है. ये गांव उन इलाकों में सुरक्षित फौजी अड्डे का काम भी कर सकते हैं जहां तिब्बती आबादी आक्रामक हो सकती है. इस मामले में सुबनसिरी जिले में बसाया गया नया गांव महत्वपूर्ण है क्योंकि, अर्पी के मुताबिक, यह ‘रोंगकोर चेनमो नाम के पर्वत के पास तिब्बती बौद्ध तीर्थयात्रियों की 12 साल पर होने वाली परिक्रमा के मार्ग पर’ है. पूर्व तिब्बती सरकार के लिए यह तीर्थ परिक्रमा सरकारी आयोजन जैसा था.
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भारत की प्रतिक्रिया
चीन तो अपनी गतिविधियों की वैधता के जोरदार दावे कर रहा है लेकिन इसके विपरीत भारत ने मानो इसे अपनी नियति मान लिया है. विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘चीन पिछले कई वर्षों से इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी निर्माण कार्य करता रहा है. जवाब में हमारी सरकार ने भी सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी निर्माण कार्यों में तेजी लाई है. सरकार देश की सुरक्षा पर असर डालने वाली सभी गतिविधियों पर नज़र रखे हुए है और अपनी संप्रभुता तथा भौगोलिक अखंडता की सुरक्षा के सभी जरूरी कदम उठाती रही है.’
मैकमोहन लाइन के पास चीन ने हमारी जमीन पर कब्जा किया है, इसकी निंदा में न तो एक शब्द कहा गया है, और न इसकी पुष्टि की गई है. यह एक कमजोर देश की कमजोर प्रतिक्रिया देकर ही रह गया है. इतिहास से जुड़े तथ्यों को सामने लाने का काम मीडिया के भरोसे छोड़ दिया गया. ‘सरकारी सूत्रों’ ने ब्योरों की अनौपचारिक पुष्टि की. ‘चीन 1959 से उस क्षेत्र पर काबिज है और यह कोई नयी बात नहीं है… कुछ साल पहले अस्थायी किस्म के ढांचे थे, अब वहां उन्होंने स्थायी किस्म के निर्माण कर दिए हैं.’
मैकमोहन लाइन/एलएसी पर अतिक्रमण?
मई 2020 से पूर्वी लद्दाख में चीनी घुसपैठ और हमारी जमीन पर कब्जे का खुलासा करने में नरेंद्र मोदी सरकार की विफलता का कोई औचित्य नहीं नज़र आता है. वह भी तब, जबकि उपग्रह के चित्र इसकी पुष्टि कर रहे हैं. इससे भी विचित्र बात यह है कि यह सरकार 1962 के बाद से हमारी जमीन पर चीनी कब्जों के ऐतिहासिक तथ्यों की भी पुष्टि नहीं कर पाई है. वह जब कोई पुष्टि करती भी है तो पराजित कांग्रेस की निंदा करने के लिए और कुल मिलाकर नवंबर 1962 से पहले चीन के हाथों गंवाई अपनी 38,000 वर्गकिमी जमीन का ही हवाला देती है.
वक़्त आ गया है कि सरकार देश को विस्तार से बताए कि चीन ने हमारी कितनी जमीन पर अवैध कब्जा की है. सरकार को वे नक्शे और उपग्रह चित्र सार्वजनिक करने चाहिए जिनमें अंतरराष्ट्रीय सीमा, वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी), और 1962 के बाद से घुसपैठों और कब्जों को दर्शाया गया है. ऐसे न करने से देश की भौगोलिक अखंडता की रक्षा करने के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े होंगे.
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सीमाओं को खोलिए
विवेक कहता है कि इन्फ्रास्ट्राक्स्चर, आबादी की बसावट, और पर्यटकों के दौरों से भौगोलिक अखंडता की अच्छी रक्षा होती है. यही वजह है कि चीन ने डेमचोक क्षेत्र में 1959 वाली दावा रेखा को सुरक्षा घेरे में नहीं डाला है. भारत 1986-87 से सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम चला रहा है ताकि इस क्षेत्र की आबादी की सुरक्षा और विकास हो सके. फिलहाल यह कार्यक्रम मामूली बजट पीआर चल रहा है. इसके लिए सरकर ने 2020-21 के बजट में 783.71 करोड़ रुपये मंजूर किए ताकि सीमावर्ती गांवों और शहरों का विकास हो सके. इसमें से 190 करोड़ रु. भारत-चीन सीमा क्षेत्र के लिए दिए गए. इसकी तुलना तिब्बत में 624 गांवों के लिए चीन द्वारा पिछले तीन साल से सालाना 1.53 अरब डॉलर के बजट से करें तो फर्क समझ में आ जाएगा.
भारत-चीन सीमा सड़क परियोजना पर भाजपा सरकार ने ज़ोर दिया लेकिन इसमें दूरदर्शिता के कमी, अपर्याप्त बजट और अस्तव्यस्त अमल दिखाई देती है. हमारी सड़कों और चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर की सड़कों के वीडियो की तुलना से ही फर्क पता चल जाएगा. यही बात लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश के लिए कई पनबिजली परियोजनाओं के बारे में काही जा सकती है.
सीमावर्ती पर्यटन के लिए सीमाओं को पहुंच में लाने की जरूरत है. अपनी सीमाओं को छिपाने का कोई औचत्य नहीं नज़र आता है, सिवा इसके कि हमारा लचर इन्फ्रास्ट्राक्स्चर सामने आ जाएगा. दक्षिण कोरिया की यात्रा उत्तर कोरिया के साथ उसकी सीमारेखा 38 पैरलल की यात्रा के बिना पूरी नहीं होती. वहां का इन्फ्रास्ट्राक्स्चर और सुरक्षा व्यवस्था हैरतअंगेज़ है और उस देश के लोगों के आत्मविश्वास को बढ़ाती है. हमारे लोग और पर्यटन उद्योग कम प्रयोगशील नहीं है. भारत यात्रियों से प्रवेश/पर्यावरण शुल्क वसूल कर इन्फ्रास्ट्राक्स्चर के लिए राजस्व जुटा सकता है. इसके अलावा, सरकार पर्वतारोहण और ट्रेकिंग के लिए भी उस क्षेत्र को खोल सकती है.
हमें चीन की गतिविधियों से खौफ खाने की जरूरत नहीं है. चीन ने जो कुछ कर दिया उससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता. उसे रोकने की हममें क्षमता है, जो उसके जैसी महाशक्ति के लिए हार के बराबर होगा. चीन की तुलना में हमारा शक्ति संतुलन हमें बलप्रयोग से अपनी जमीन वापस हासिल करने की छूट नहीं देता. लेकिन अंतरराष्ट्रीय सीमा, एलएसी और अतीत में कब्जाई गई जमीन, इन्फ्रास्ट्राक्स्चर के विकास आदि के बारे में जनता को सही सूचनाएं देने, बस्ती की बसावट, पर्यटकों की आवाजाही आदि से हम अपनी और जमीन खोने से बच सकते हैं.
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(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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