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Saturday, 20 April, 2024
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एक्सपोर्ट कंट्रोल के युग में अमेरिका और भारत के बीच एक हाई-टेक्नोलॉजी साझेदारी स्थापित करना

कार्नेगी इंडिया को स्टेकहोल्डर्स से जो फीडबैक मिला है उससे भी पता चलता है कि अमेरिकी कंपनियों या अमेरिकी सप्लायर्स पर निर्भर कंपनियों द्वारा लगाई गई बोलियों को सीधे खारिज़ किया जा सकता है क्योंकि टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की रुकावटों को लेकर चिंताएं पहले से हैं.

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अमेरिका और चीन की अर्थव्यवस्थाओं के बीच अलगाव और वैश्वीकरण पर इसके असर के कमज़ोर नैरेटिव की चर्चाओं के बीच, हाल के वर्षों में दिखा है कि वैश्वीकरण का अंत करीब होने की खबरों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है. बल्कि, लंबे समय से जिन शर्तों पर वैश्वीकरण चल रहा था और जो मूल रूप से जस्ट-इन-टाइम सप्लाई चेन पर आधारित थीं, उन शर्तों को नए सिरे से परिभाषित करने की प्रक्रिया चल रही है.

वैश्वीकरण भविष्य में कैसा दिखेगा, इस पर बहुत सारी चर्चाएं एक से ज़्यादा देशों में काम कर रही उन कंपनियों के इर्द-गिर्द घूमती हैं जो ग्लोबल वैल्यू चेन डाइवर्सिफिकेशन की प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर अपनी सप्लाई चेन को दूसरे देशों में ले जा रही हैं. और जानकारों का कहना है कि भारत शायद इस दौड़ में उस उम्मीदवार के तौर पर प्रवेश कर रहा है जहां ये सप्लाई चेन जा सकती हैं. ये सप्लाई चेन विखंडन के दूसरे क्रम का प्रभाव है – एक ऐसा परिदृश्य जहां भारत को उन देशों के साथ जुड़ना चाहिए जो सप्लाई चेन को दूसरी जगहों पर ले जाना चाहते हैं.

वैसे तो भारत ने अमेरिका-चीन संबंधों की झगड़ालू प्रकृति का फायदा उठाने के लिए खुद को प्रशंसनीय स्थिति में रखा है, लेकिन भारत में ज़्यादातर स्थानांतरण मोबाइल हैंडसेट और सौर ऊर्जा उपकरणों जैसे कंज्यूमर टेक्नोलॉजी उत्पादों के रूप में हो रहा है. सेमीकंडक्टर्स, हाई-परफॉर्मेंस कम्प्यूटिंग और कमर्शियल स्पेस टेक्नोलॉजी जैसी अत्याधुनिक उच्च-तकनीक वाली चीज़ों पर फोकस तस्वीर से गायब है.

ये क्षेत्र भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत ने अपने उच्च- प्रौद्योगिकी वाले क्षेत्रों के विकास में अभूतपूर्व रुचि लेनी शुरू कर दी है. मौजूदा सरकार के प्रमुख सदस्यों ने भी महसूस किया है कि सर्विस सेक्टर की अगुवाई वाली अर्थव्यवस्था- जो भारत का ग्रोथ इंजन है- उसके लिए लंबे समय से चला आ रहा झुकाव अब ऐसे समय पर संभव नहीं है जब भारत एक ज़्यादा सशक्त औद्योगिक आधार के पक्ष में है और उसी तरफ जा रहा है. यहीं पर अमेरिका-भारत की उच्च-तकनीकी साझेदारी महत्वपूर्ण हो जाती है. हालांकि, इस साझेदारी के फायदे मिलें, इसके लिए अमेरिकी एक्सपोर्ट कंट्रोल्स, खास तौर पर जो इंटरनेशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेगुलेशंस (ITAR) के तहत आते हैं, उन पर ध्यानपूर्वक विचार करने की ज़रूरत पड़ सकती है.

एक नई टेक साझेदारी

अच्छी खबर यह है कि अमेरिका-भारत की एक नई साझा पहल जिसे इनिशिएटिव ऑन क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज़ (iCET) कहते हैं, हाल ही में दोनों देशों ने उसका स्तर ऊपर उठाकर एक रणनीतिक साझेदारी बना दिया है. iCET बिल्कुल सही समय पर की गई एक साझेदारी है, जो बाकी दूसरी चीज़ों के साथ, अमेरिका और भारत दोनों के तकनीकी नेटवर्क्स के बीच एक “खुले, सुलभ और सुरक्षित टेक्नोलॉजी इकोसिस्टम” को बढ़ावा देने का मकसद रखती है. इस कदम की हर तरफ तारीफ की गई है क्योंकि इसमें सिर्फ तकनीकी संबंधों को बदलने की अपार क्षमता ही नहीं है बल्कि यह भू-राजनीतिक और व्यावसायिक मुद्दों पर भी पहले से बड़ी साझेदारी की तरफ ले जाता है.

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यह तीन कारणों से महत्वपूर्ण है. पहला, iCET को दोनों देशों में उच्चतम नेतृत्व का राजनीतिक समर्थन हासिल है. दूसरा, इसमें शैक्षणिक और व्यावसायिक दोनों समुदायों के हितधारक शामिल हैं, जो इस पहल को आकार देने और विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं. तीसरा, और शायद सबसे उत्साहजनक, इसे अमेरिका और भारत के बीच पहले की एक रणनीतिक साझेदारी ‘नेक्स्ट स्टेप्स इन स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप’ (NSSP) जिस पर 2004 में दस्तखत किए गए थे, उसकी तर्ज पर एक गेमचेंजर माना जा रहा है. NSSP ने ही 2005 में अमेरिका-भारत के बीच ऐतिहासिक परमाणु समझौते की नींव रखी थी- जो भारत के साथ पूर्ण असैन्य परमाणु ऊर्जा सहयोग को आगे बढ़ाने का एक करार है. iCET से पैदा हुई मौजूदा ऊर्जा को देखते हुए, एक अमेरिकी अधिकारी ने यहां तक कह दिया कि 2023 “अमेरिका-भारत कूटनीति में सबसे महत्वपूर्ण साल होगा.”

हालांकि, दोनों पक्षों को इस पर सहमति बनानी होगी कि ITAR एक्सपोर्ट कंट्रोल्स के बीच रास्ते कैसे निकाले जाएं क्योंकि ये एक्सपोर्ट कंट्रोल्स iCET के तहत उच्च तकनीक तक बेरोकटोक पहुंच में अड़चन पैदा कर सकते हैं. एक्सपोर्ट कंट्रोल्स को लेकर बढ़ती जागरुकता और उससे जुड़ी संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए, भारत ने इसके लिए अपना काम तय कर लिया है. एक्सपोर्ट कंट्रोल्स के नियमों पर बातचीत करना पेचीदा है. भारत को ज़्यादा दूर देखने की ज़रूरत नहीं है. एक्सपोर्ट कंट्रोल्स के कड़े नियम उभरते तकनीकी इकोसिस्टम के विकास को किस तरह से बाधित कर सकते हैं, चीन इसकी बहुत अच्छी मिसाल है. हालांकि, दोनों परिस्थितियों के बीच यह अंतर है कि चीन के मामले में, सेमीकंडक्टर निर्माण उपकरण से जुड़े एक्सपोर्ट कंट्रोल के नियमों की रियायतों को कड़ा कर दिया गया है और सीधे चीनी कंपनियों को निशाना बनाया गया है. जबकि ITAR— जो रक्षा से जुड़े साज-सामानों में व्यापार को नियंत्रित करने वाले अमेरिका के सबसे सख्त कानूनों में से एक है— एक सामान्य कानूनी ढांचा है जो किसी एक खास देश को टार्गेट नहीं करता, और भारत के मामले में इसमें ढील देने की मांग की जा सकती है.


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अमेरिकी अनुभव और भारतीय प्रयोग

ITAR से जुड़े इन सवालों को देखते हुए, अमेरिकी निति निर्माता सोच सकते हैं कि क्या भारत के साथ खुले और सुलभ तकनीकी इकोसिस्टम के लक्ष्य को आगे बढ़ाने के साथ-साथ iCET पर राजनीतिक पूंजी खर्च करना मुनासिब होगा या नहीं.

अमेरिका ने पिछले कुछ दशकों में, खास तौर पर एशियाई देशों के साथ, जो आर्थिक साझेदारियां की थीं, उनके हिसाब से देखा जाए तो ट्रैक रिकॉर्ड उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. इन साझेदारियों का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां सामने वाले देश ने तय नियमों का पालन नहीं किया. चीन के मामले में, जैसा कि 2018 में अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय की एक विस्तृत रिपोर्ट में बताया गया है, भारी सब्सिडी, सरकारी कंपनियों का प्रभुत्व, बाजार तक पहुंच के मुद्दे, बौद्धिक संपदा की चोरी और जबरन टेक्नोलॉजी ट्रांसफर जैसे मुद्दे उठाए गए. जापान के मामले में भी, जैसा कि फरीद ज़कारिया ने बताया है, “आज चीन पर लगाए गए लगभग सारे आरोप – जबरन टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, व्यापार के गलत तरीके, विदेशी कंपनियों के लिए सीमित पहुंच, स्थानीय लोगों को रेगुलेटरी फायदे – 1980 और 1990 के दशक में ये सब आरोप जापान पर लगे थे.” संक्षेप में, दोनों ही मामलों में संबंधों में वैसा खुलापन नहीं था जिसकी उम्मीद अमेरिका को थी.

हालांकि, चीनी और जापानी प्रतिष्ठानों के साथ अमेरिका का मोहभंग करने वाली वही चिंताएं भारत के मामले में लागू नहीं हो सकती हैं. उदाहरण के लिए, भारत में पहले से बड़े अमेरिकी रिसर्च एंड डेवलपमेंट लैब हैं जो अत्याधुनिक बौद्धिक संपदा तैयार करते हैं—इतना कि भारत में दायर होने वाले करीब 66 प्रतिशत पेटेंट इन्हीं लैब से जुड़े होते हैं.1 इसके अलावा, भारत ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की शर्त पर ज़ोर नहीं दिया है. शायद, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, भारत अमेरिका की बड़ी टेक कंपनियों के लिए खुला है जिनकी इसके विभिन्न क्षेत्रों में भागीदारी है – गूगल पे, गूगल का डिजिटल पेमेंट ऐप्लिकेशन, भारत के यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस पर एक प्रमुख ऐप है; भारत धीरे-धीरे व्हाट्सऐप का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाज़ार बन गया है; भारत के तेज़ी से बढ़ते ई-कॉमर्स मार्केट में अमेज़ॉन ने मुख्य जगह हासिल कर ली है; और उबर पर करोड़ों भारतीय भरोसा करते हैं.

यह तथ्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि भारत के पास ऐसी कोई औद्योगिक योजना नहीं है जो विदेशी कंपनियों को हटाना चाहती हो. असल में, भारत में चीन के मेड इन चाइना 2025 प्लान जैसा कुछ नहीं है, जिसने 2015 में स्वदेशी इनोवेशन को बढ़ावा देने और विदेशी तकनीक पर निर्भरता घटाने का रोडमैप तैयार किया था. पहली नजर में, ये योजना ऐसी किसी नीति जैसी थी जिसमें औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया जाता है. लेकिन, योजना के लक्ष्यों को जिन बारीकियों के साथ रखा गया था उसने अमेरिकी कंपनियों को नाराज़ कर दिया था. इसमें 2025 तक खास क्षेत्रों में चीनी कंपनियों के लिए 70 प्रतिशत बाज़ार हिस्सेदारी का मकसद था. विदेशी कंपनियों ने इस कोशिश को पक्के तौर पर बौद्धिक संपदा की चोरी, भारी सब्सिडी, और जबरन टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के तौर पर देखा.

भारत की इसी तरह की मेक इन इंडिया योजना (2014 में लॉन्च) और हाल की आत्मनिर्भर भारत योजना, मेड इन चाइना 2025 नीति से ज़्यादा अलग नहीं हो सकती थी. मेक इन इंडिया योजना विदेशी कंपनियों को भारत में निर्माण के लिए आकर्षित करना चाहती है. दूसरे शब्दों में, जहां भारत की उद्योग नीति की सफलता ग्लोबल सप्लाई चेन के साथ मिलकर चलने पर टिकी है, वहीं चीन का स्पष्ट उद्देश्य अपनी टेक्नोलॉजी सप्लाई चेन के स्वदेशीकरण को अधिकतम संभव सीमा तक बढ़ाना था. आत्मनिर्भर भारत के बाद भी, भारत की स्थिति उन देशों के गठबंधन से अलग नहीं है जो ये मानते हैं कि जस्ट-इन-टाइम सप्लाई चेन को भी “किसी झटके से जल्दी उबरने के काबिल” बनाने की ज़रूरत पड़ सकती है—यह एक सच्चाई है जो वैश्वीकरण के संबंध में नई शर्तों को दर्शाती है.

आईटीएआर एक्सपोर्ट कंट्रोल की समस्या हल करने का रोडमैप

आईटीएआर के मुद्दे पर बातचीत के लिए किसी समय आना दोनों पक्षों की चुनौतीपूर्ण विषयों को सुलझाने की इच्छा को दर्शाएगा. दूसरे देशों, यहां तक कि अमेरिकी सहयोगियों, को भी इससे निपटना मुश्किल लगता है. ऑस्ट्रेलिया जैसा देश- जो एक आधिकारिक अमेरिकी सहयोगी, क्वॉड का एक सदस्य, ऑकस (AUKUS) ट्राईफेक्टा का हिस्सा, और फाइव आइज़ गठबंधन का एक सदस्य है— जब तकनीकी सहभागिता की बात आती है तो उसे भी आईटीएआर की वजह से मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. समस्या इतनी विकट है कि ऑस्ट्रेलिया में चार पूर्व अमेरिकी राजदूतों ने हाल में कहा है कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच सहयोग में आईटीएआर “सबसे बड़ी बाधा” है.

भारत और अमेरिका के लिए, iCET के अंतर्गत आने वाली हाई-एंड टेक्नोलॉजीज़ ITAR के प्रतिबंधों से किस हद तक प्रभावित हैं, इसका अनुमान लगाने के लिए एक शुरुआती रोडमैप की ज़रूरत है. ITAR की वजह से दोनों पक्षों को होने वाली समस्याओं का पता लगाना ही आगे का रास्ता होना चाहिए. शायद कमर्शियल स्पेस सेक्टर, जो अक्सर आईटीएआर प्रतिबंधों से प्रभावित होता है, इस अभ्यास के लिए बेहतर होगा.

अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी की उत्पत्ति आम तौर पर सैन्य क्षेत्र में होती है, हालांकि निश्चित तौर पर उनका उपयोग नागरिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में भी होता है. उदाहरण के तौर पर, प्रक्षेपण वाहनों को बैलिस्टिक मिसाइलों के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इसी तरह, सैटेलाइट आपदा प्रबंधन और प्रिसिज़न फार्मिंग जैसे अन्य क्षेत्रों में अहम भूमिका निभाते हैं, वे देश के सैन्य बलों को जासूसी और निगरानी के उद्देश्य के लिए भी मदद कर सकते हैं. इस हिसाब से, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के साजो-सामान में व्यापार आम तौर पर आईटीएआर नियंत्रण का विषय है.


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आईटीएआर के साथ क्या दिक्कतें हैं?

अमेरिकी दृष्टिकोण से, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के प्रसार को नियंत्रित करने और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के लिए अब तक अछूते रहे बाजार में अमेरिकी अंतरिक्ष कंपनियों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए निर्यात नियंत्रणों में ढिलाई देने के बीच अंतर्निहित तनाव है. भारतीय दृष्टिकोण से, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी तक पहुंच बेहतर होने से भारतीय स्टार्टअप्स को अमेरिकी समकक्षों के साथ मिलकर टेक्नोलॉजी को विकसित करने के साथ-साथ अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिए समय से चीज़ें हासिल करने में बड़ी मदद मिलेगी.

अभी, आईटीएआर के साथ बहुत सी समस्याएं हैं. ज़रूरी लाइसेंस डॉक्यूमेंट हासिल करने में अक्सर देरी होती है. जबकि आईटीएआर संबंधित सारी लाइसेंसिंग 60 दिनों के अंदर पूरा करने के निर्देश हैं, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े अपवादों के नाम पर इस समय सीमा को बढ़ाया जा सकता है. ऐसे मामलों में जहां कांग्रेस का नोटिफिकेशन ज़रूरी होता है, समय सीमा को 90 दिनों तक और आगे बढ़ाया जा सकता है. इसके अलावा, “आरडब्ल्यूए” आवेदन अस्वीकृत लाइसेंसों की लिस्ट में नहीं दिखते हैं. आरडब्ल्यूए का मतलब है “रिटर्न्ड विदाउट अप्रूवल” यानी “बिना मंज़ूरी के वापस” और यह आमतौर पर तब होता है जब आवेदन की समीक्षा करने वाला केस ऑफिसर इसे मंज़ूर या खारिज़ किए बिना बंद कर देता है. किसी वजह से, आरडब्ल्यूए आवेदन नामंज़ूरी वाली लिस्ट में नहीं दिखते. इसलिए, आईटीएआर के तहत टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की कुल मंज़ूरियों का प्रतिशत असल में जितना है उससे ज़्यादा दिख सकता है. इसलिए, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की ज़्यादा सटीक तस्वीर मिलने से नीति-निर्माताओं के लिए पूरी स्थिति पर विचार करने और उपयुक्त समाधान तैयार करने में मदद हो सकती है.

कार्नेगी इंडिया को स्टेकहोल्डर्स से जो फीडबैक मिला है उससे भी पता चलता है कि अमेरिकी कंपनियों या अमेरिकी सप्लायर्स पर निर्भर कंपनियों द्वारा लगाई गई बोलियों को सीधे खारिज़ किया जा सकता है क्योंकि टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की रुकावटों को लेकर चिंताएं पहले से हैं. बल्कि, 2011 में स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ इंस्टीट्यूट में यूनाइटेड स्टेट्स आर्मी वॉर कॉलेज की एक रिपोर्ट में माना गया है कि, लॉकहीड मार्टिन और बोइंग को भारतीय वायुसेना के लिए एक मीडियम-मल्टी-रोल लड़ाकू विमान बनाने के कॉन्ट्रैक्ट के लिए बोली प्रक्रिया से हटा दिया गया था क्योंकि इसमें “लॉन्ग-टर्म मेंटनेंस को लेकर अमेरिकी सिस्टम्स का बड़ा खर्च था” और इसलिए भी कि “रिप्लेसमेंट पार्ट्स के हर ऑर्डर को अपनी खुद की आईटीएआर मंज़ूरी चाहिए होती, जैसा कि विमान चलाने के लिए किसी अन्य सॉफ्टवेयर या टेक्नोलॉजी के लिए लगती”.

आईटीएआर आवेदनों के मामलों में इन मुद्दों के चलते भारतीय कंपनियों को बड़े स्तर पर आत्म-सुधार करना होता है. इसमें शामिल लंबी समय सीमा, समीक्षा प्रक्रिया को लेकर बड़े पैमाने पर अनिश्चितता, और मानव संसाधन और कानूनी सलाह (भारत और अमेरिका दोनों तरफ) पर मोटे खर्च कई भारतीय स्टार्टअप्स को आवेदन करने से ही रोक देते हैं. आईटीएआर सूचनाओं के आदान-प्रदान को भी रोकता है. आईटीएआर के तहत सख्त एक्सपोर्ट कंट्रोल अमेरिकी कंपनियों को ऐसे इंटरऑपरेबल सिस्टम डिज़ाइन करने से रोक सकते हैं जो भारत में विकसित हो रही तकनीकों के अनुकूल हैं और इसलिए ये इकोसिस्टम में सबकी पहुंच बनाने के iCET के उद्देश्य में अड़चन पैदा करते हैं.

साथ ही, आईटीएआर ने किसी कंपनी के अंदर भी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर होने से रोक लगा रखी है. ऐसी भारतीय टेक कंपनियां भी हैं जो साझेदारी बढ़ाने और ग्राहक और टैलेंट खोजने के लिए अब अमेरिका में ऑफिस खोल रही हैं. हालांकि, “विदेशी” कंपनी होने के नाते, भारतीय स्टार्टअप्स को सूचनाओं को बांटना पड़ता है और उसी कंपनी में काम करने वाले भारतीय नागरिकों तक ये सूचनाएं पहुंचने से बचाना पड़ता है. क्योंकि आईटीएआर का ढांचा जिस तरह बनाया गया है, उसमें सैद्धांतिक पहुंच देना भी इसका उल्लंघन माना जाएगा. इससे किसी कंपनी में आंतरिक प्रौद्योगिकी स्थानांतरण बुरी तरह प्रभावित होता है.

यहां तक कि अमेरिकी कंपनियों के लिए भी, आईटीएआर की वजह से खाली हुई जगह पर उनके स्थान पर दूसरे देशों के सप्लायर्स के आ जाने का डर है. ऐसी धारणा बन गई है कि आईटीएआर समीक्षा प्रक्रिया के तहत किसी एक चीज़ को अनुमति दिलाने के लिए भी बहुत सी बाधाएं पार करनी होती हैं, इसलिए माना जा रहा है कि यूरोपीय यूनियन या दूसरे किसी देश की कमर्शियल कंपनियां आगे बढ़कर ऐसे प्रोडक्ट डिज़ाइन कर सकती हैं जिनमें किसी आईटीएआर नियंत्रित कलपुर्जे की ज़रूरत ही न हो. असल में, यह यूनाइटेड स्टेट डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस द्वारा कराए गए एक अध्ययन के निष्कर्षों में एक था जिसे अंजाम दिया था सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज़ ने 2008 में, और इसमें अमेरिकी उद्योगों पर अमेरिकी एक्सपोर्ट कंट्रोल के असर की जांच की गई थी.

आगे का रास्ता

एक्सपोर्ट कंट्रोल पर नए सिरे से फोकस के युग में आईटीएआर व्यवस्था में कोई भी संभावित बदलाव कैसे होगा? एक बार 2013 में आईटीएआर रिफॉर्म हो चुका है- और इसलिए, सैद्धांतिक रूप से, यह फिर से हो सकता है. लेकिन सरकारों की आपसी बातचीत की सक्रियता से सर्वोच्च स्तर पर हल निकलने की उम्मीद के बजाय, यह देखना चाहिए कि वो व्यावसायिक कारण क्या हैं जो बदलाव ला सकते हैं? अगर प्रस्तावित सुधारों से वहां के घरेलू उद्योगों को फायदा हो तो अमेरिकी सरकार के लिए आईटीएआर रिफॉर्म करना आसान हो सकता है. अमेरिकी कंपनियों के लिए ज़्यादा बिक्री, सह-विकास के अवसर, और भारत के लिए एक पसंदीदा सप्लायर बनने का मौका- भारत में मेंटनेंस, रिपेयर, हाई- एंड टेक्नोलॉजी की ज़रूरत को देखते हुए – ऐसे कुछ कारण हैं जो दिमाग में आते हैं. हालांकि, यह संभव है कि भारत को भी सुनियोजित तरीके से पुनर्मूल्यांकन करना पड़े क्योंकि iCET अब एक रणनीतिक साझेदारी बन चुकी है.

भारत ने बहुध्रुवीय विश्व के अपने दृष्टिकोण को हमेशा महत्व दिया है. हालांकि, कुछ हलकों में यह धारणा है कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की इच्छा- जहां इसका मकसद “विदेशी संबंधों में अधिकतम विकल्पों” की तलाश करना है, और इस प्रक्रिया में, यह दोनों तरफ दांव लगाता है- यूक्रेन में युद्ध जैसे अलग-अलग मुद्दों पर भारत के नज़रिए का पहले से अनुमान लगाने की कीमत पर आती है. वैसे तो, भारत ने इन मुद्दों पर जिस तरह से वोट किया है उस बारे में इसकी मजबूरी का अमेरिकी सरकार सम्मान कर सकती है, लेकिन भारत की स्थिति को अच्छी तरह समझने के बाद भी, वहां की संसद इस पर करीबी नज़र रखेगी. अच्छी खबर यह है कि iCET अमेरिका के साथ गहरी तकनीकी साझेदारी को आगे बढ़ाने और रूस के अलावा बाहर भी देखने के भारत के गंभीर इरादे को दर्शाता है.

अमेरिका और चीन के बीच संभावित तनाव और अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन की संभावित चीन यात्रा दोनों पक्षों के बीच तालमेल को आगे बढ़ाने के अवसर की तरह कैसे काम करेगी, इस बारे में पहले से ही बातें चल रही हैं. इसलिए, यह देखते हुए कि कैसे अमेरिका-चीन संबंधों में सुधार भारत-अमेरिका तकनीकी सहयोग के महत्व को प्रभावित कर सकता है, भारत और अमेरिका दोनों के लिए ही iCET के तहत महत्ववूर्ण परिणाम हासिल करने के लिए अवसर अपेक्षाकृत कम हैं. इसलिए, नीति-निर्माताओं और अमेरिका-भारत संबंधों की सफलता में निवेश करने वाले हितधारकों को iCET को अपनी पूरी ताक़त और संसाधानों के साथ संभालना और आगे बढ़ाना होगा और इस पहल को उसी सोच के साथ प्रोत्साहित करना होगा जिसने इसकी अवधारणा को जन्म दिया था.

(लेखक के विचार निजी हैं. यह लेख कार्नेगी इंडिया में पहले पब्लिश हो चुका है.)


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