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Wednesday, 24 April, 2024
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QR कोड के खिलाफ क्रांति और रोबोट्स का निर्माण- कैसे दुनिया में बदलाव ला रही है IIT कानपुर की तकनीक

'बिल्डिंग सिस्टम्स दैट चैलेंज नेचुरल लिविंग सिस्टम्स' (ऐसी प्रणालियों का निर्माण जो जीवन जीने की प्राकृतिक प्रणाली को चुनौती देता हो) - यही वह आदर्श वाक्य है जिसके तहत यहां के शोधकर्ता उन अत्याधुनिक आविष्कारों का ढेर लगा रहे हैं जो न सिर्फ कई मुख्य समस्याओं को हल करते हैं और चीजों की लागत को कम करते हैं, बल्कि अक्सर सरकार की नीतियों को चुनौती भी देते हैं.

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कानपुर: आईआईटी-कानपुर के मैकेनिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में स्थित मेक्ट्रोनिक्स सेंटर कुछेक कमरों का एक साधारण सा दिखने वाला समुच्चय है, और यह इसके साथ लगे गलियारे में खुलने वाले बहुत सारे अन्य कमरों की तरह ही लगता है. लेकिन जिस पल आप इसमें प्रवेश करते हैं, उसी पल आपका सामना एक छोटे से चार पहियों वाले रोवर – जो किसी आम कुत्ते से ज्यादा बड़ा नहीं है –  से होता है, जिसे कंक्रीट के फर्श पर कुछ रेत और चट्टानों के ऊपर रखा गया है.

इसके बार में डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड ऑटोमेशन के डीन आशीष दत्ता कहते हैं, ‘ओह, यह? यह तो चंद्रयान रोवर है.’ वह इस रोवर के बारे में आगे के सवालों को पूरी तरह से खारिज कर देतें है, क्योंकि वे इसे एक बहुत पुराना विकास मानते हैं. साथ ही,  वे इसके प्रति जागने वाली रूचि को देखकर थोड़े से विस्मित भी नजर आते हैं.

दत्ता के लिए यह रोवर एक पुराने जमाने की बात है. वे कहते हैं, ‘(इसके साथ) हमारा काम पूरा हो गया है, अब यह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) पर निर्भर है कि क्या वे अगले मिशन पर फिर से इसी रोवर को भेजेंगे.’ इसके बजाय वह एक 3डी प्रिंटेड रोबोटिक आर्म (बांह) के बारे में ज्यादा बातें करतें हैं जो स्ट्रोक (आघात) के रोगियों के पुनर्वास में क्रांति ला सकता है.

दत्ता के विभाग की ही तरह, आईआईटी, कानपुर में कई अन्य ऐसे विभाग भी हैं जो अगली पीढ़ी के आविष्कारों – जिनमें गैस पाइपलाइनों को खंगालने वाले रोबोट, क्यूआर कोड से भी अधिक सुरक्षित सुरक्षा टैग, और खासतौर पर नेत्रहीनों के लिए बनाया गया स्मार्टवॉच शामिल हैं – पर काम कर रहे हैं. इनमें से कुछ अभी भी परीक्षण की प्रतीक्षा में हैं, जबकि कुछ अन्य व्यावसायिक रूप से उपयोग किये जाने के लिए तैयार हैं. जैसा कि दिप्रिंट ने पिछले महीने की अपनी एक खबर में बताया था, यहां एक कृत्रिम हृदय भी विकसित हो रहा है.

इन सभी नवाचारों और आविष्कारों के पीछे एक ही आम इच्छा है.

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इस संस्थान के स्मार्ट मैटेरियल्स, स्ट्रक्चर्स एंड सिस्टम्स (एसएमएसएस) लैब के प्रोफेसर बिशाख भट्टाचार्य कहते हैं, ‘हमारा लक्ष्य एक दिन ऐसी प्रणालियों का निर्माण करना है जो दुनिया में कार्यरत प्राकृतिक जीवित प्रणालियों को चुनौती देते हों.’

मस्तिष्क की तरंगों को पढ़ने’ में सक्षम रोबोटिक बांह

सेंटर फॉर मेक्ट्रोनिक्स में, दत्ता की निगाहें पूरी मजबूती के साथ भविष्य पर टिकी हैं. वह अपनी टीम के नवीनतम कार्य – ब्रेन कंप्यूटर इंटरफेस (बीसीआई) – के बारे में बात करने के प्रति सबसे अधिक उत्साहित हैं, जिसमें एक ऐसी 3डी-प्रिंटेड रोबोटिक बांह लगी है जो स्ट्रोक के रोगियों को उनके अंगों के पक्षाघात (लकवे) से उबरने में मदद कर सकता है.

वह बताते हैं कि फिजियोथेरेपी अक्सर स्ट्रोक के रोगियों के मामले में इस वजह से काम नहीं करती है क्योंकि स्ट्रोक की वजह से होने वाले पक्षाघात से उबरने के लिए व्यक्ति को अपने अंगों को हिलाने- डुलाने के बारे में वास्तव में पूरी मशक्कत के साथ सोचने की आवश्यकता होती है – यह इतना कठिन होता है कि इसकी वजह से इनका दिमाग स्ट्रोक से पहले इन्हें हिलाने की अनुमति देने वाले तारों को अलग तरह से बिछाने के लिए राजी हो जाता है.

इसे समझाते हुए दत्ता कहते हैं, ‘स्ट्रोक के रोगियों के मामले में उनके हाथों के साथ कुछ भी गलत नहीं होता है. नसें और मांसपेशियां सभी पहले की तरह बरकरार रहती हैं. इस मामले में फिजियोथेरेपी बहुत एक निष्क्रिय प्रक्रिया जैसी होती है – डॉक्टर रोगी को उसके हाथ हिलाने में मदद कर सकता है, लेकिन इस बात को सुनिश्चित करने का कोई तरीका नहीं है कि रोगी वास्तव में इसे हिलाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है.’

उनके टीम की बीसीआई – इलेक्ट्रोड के साथ लगी एक टोपी – किसी व्यक्ति के ब्रेनवेव (मस्तिष्क की तरंगों) को ‘पढ़’ सकती है और इसे रोबोटिक बांह -जिसमें रोगी का हाथ रखा जाता है – में होने वाली हरकत में बदल सकती है,

जब कोई व्यक्ति अपनी बांह को हिलाने के बारे में सोचता है, तो रोबोटिक बांह उसकी उंगलियों को हिला देती है. इस उपकरण (डिवाइस) के साथ बार-बार व्यायाम करना अंततः मस्तिष्क को नए कनेक्शन बनाने की ओर ले जाता है, जिससे हाथों की गतिविधियों को नियंत्रित करने की उसकी क्षमता फिर से बहाल हो जाती है.

उनकी टीम ने भारत और ब्रिटेन में चार मरीजों पर इसका सफल परीक्षण पूरा कर लिया है और अब वे और बड़े परीक्षण करने की योजना बना रहे हैं.


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बड़ा बदलाव लाने वाला क्रॉलर

फर्श से लेकर छत तक ऊंची और किताबों से भरी अलमारियों के सामने बैठे प्रोफेसर बिशाख भट्टाचार्य आईआईटी-कानपुर स्थित स्मार्ट मैटेरियल्स, स्ट्रक्चर्स एंड सिस्टम्स (एसएमएसएस) लैब को चलाते हैं.

उनकी सबसे हालिया पेटेंट कराई गई तकनीक एक ऐसा रोबोट है, जो गैस पाइपलाइनों के रिसाव और इसके कारण होने वाले नुकसान की पड़ताल के लिए पाइपलाइनों के भीतर से रेंग सकता है.

भारत सरकार द्वारा संचालित गैस उत्खनन कंपनी गैस अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (गेल) के सहयोग से निर्मित, पाइपलाइन हेल्थ मॉनिटरिंग रोबोट (पीएचएमआर) ऑप्टिकल और मैग्नेटिक सेंसर से लैस है, जो पाइपलाइन में हुए किसी भी नुकसान की जांच करता है.

इस रोबोट को विकसित करने वाली टीम का हिस्सा रहे नयन ज्योति बैश्य के अनुसार फिलहाल भारत में 70,000 किलोमीटर से अधिक लम्बाई की गैस पाइपलाइन्स लगीं हैं.

वे कहते हैं, ‘इन पाइपलाइनों का हर छह महीने में निरीक्षण किये जाने की आवश्यकता होती है, और हमारे पास उनका निरीक्षण करने के लिए कोई मौजूदा तकनीक नहीं है. वर्तमान में, हम इसे जर्मन और कनाडाई कंपनियों को आउटसोर्स करते हैं, जो इसके लिए काफी अधिक राशि वसूलती हैं.’

पाइपलाइन हेल्थ मॉनिटरिंग रोबोट, जो तब भी चल सकता है जब पाइपलाइन से प्राकृतिक गैस बह रही हो, एक और ऐसी कहानी की शुरुआत है जिसे यह प्रयोगशाला लिख रही है.

पाइपलाइन स्वास्थ्य निगरानी रोबोट | फोटो: आईआईटी कानपुर

भट्टाचार्य कहते हैं, ‘इस रोबोट को बनाने के लिए इस्तेमाल किए गए वैज्ञानिक सिद्धांतों का उपयोग करते हुए  हम अब कोयले के एक हाइपरलूप – एक ऐसा रोबोट जो लगातार रूप से बनी भूमिगत सुरंगों का उपयोग करके खानों से बिजली स्टेशनों तक कोयले वाला माल ले जा सकता है  – के निर्माण के विचार पर काम कर रहे हैं.’

हालांकि कई सारे रोबोट – जिनमें एक ऐसी चार-पैर वाली प्रणाली जो किसानों को कीटनाशकों के लिए फसलों की निगरानी करने में मदद कर सकती है और एक सर्जरी में सहायता करने में सक्षम चिकित्सा रोबोट भी शामिल है – फ़िलहाल एसएमएसएस लैब में विकास प्रक्रिया के अधीन कार्यरत हैं, मगर भट्टाचार्य का लक्ष्य उन बड़ी, अधिक मूलभूत समस्याओं को हल करना है जो वर्तमान में ऑटोमेशन इंडिस्ट्री (स्वचालन उद्योग) की परेशानी का सबब बने हुए हैं.

वह बताते हैं कि किसी भी बुद्धिमत्तापूर्ण प्रणाली (इंटेलिजेंट सिस्टम)  के निर्माण के तीन पहलू हैं – वह धातु या सेंसर जो उनके आसपास के सिस्टम से जानकारी लेने में सक्षम हैं; एक्ट्यूएटर्स या ऐसे स्ट्रक्चर्स (ढांचें) जो सिस्टम को काम करने की इजाजत देता हैं, और अंत में आता है वह प्रोसेसर जो सिस्टम में ‘इंटेलिजेंस’ (बुद्धिमत्ता) लाता है.

एसएमएसएस लैब इन तीन पहलुओं में से प्रत्येक पर काम करती है.

उदाहरण के लिए, इस प्रयोगशाला ने रोबोटिक बांह के निर्माण के लिए एक मिश्र धातु आधारित कृत्रिम मांसपेशियां विकसित की हैं, जिनका उपयोग कटे हुए अंगों वाले लोगों की मदद के लिए किया जा सकता है. इस तरह की उन्नत तकनीक रोबोटिक बाहों हेतु भारी, शोर करने वाली मोटरों की आवश्यकता को ख़त्म करती है और इसका अनुप्रयोग ‘स्पेस रोबोटिक्स’ के लिए भी किया जा सकता है.

भट्टाचार्य बताते हैं कि आज के समय में उपयोग में आने वाले प्रोसेसर उस प्रणाली के संदर्भ में बिलकुल ‘आदिम स्तर’ पर हैं, जिसे हम प्राकृतिक दुनिया में देखते हैं. वह बताते हैं, ‘वर्तमान कृत्रिम प्रणालियों के विपरीत, जैविक प्रणालियों को सरल चीजें सीखने के लिए हजारों डेटा पॉइंट्स की आवश्यकता नहीं होती है. यदि प्रोसेसर खुद को किसी नायाब स्थिति का सामना करता हुआ पाता है, तो वह काम नहीं कर पाएगा.’

वे कहते हैं, ‘जैविक प्रणालियां स्वाभाविक रूप से अधिक बोधगम्य (सूझ-बुझ वाली) होती हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘वर्तमान में हम जो कर रहे हैं वह यह है कि हम अपने ज्ञान को कंप्यूटर में स्थानांतरित कर रहे हैं. एक तरह से वे सिर्फ इस बात के प्रक्षेपण हैं कि हम दुनिया को कैसे देखते हैं, लेकिन इंटेलिजेंस सिस्टम को और अधिक सोचने समझने के लिए डिज़ाइन किया जा सकता है.’

भट्टाचार्य के अनुसार, एक आदर्श इंटेलिजेंस सिस्टम उन चीजों को भी महसूस करेगा जिन्हें हम मानव नहीं कर सकते  – जैसे कि प्रकाश की इन्फ्रारेड (अवरक्त) और अल्ट्रावायलेट (पराबैंगनी) रेंज में देखना, या मानव की सुनाई देने की डेसिबल रेंज से परे सुनना – और फिर अपनी धारणा बनाने के लिए उन इनपुट का उपयोग कर सकेगा.

वे कहते हैं, ‘यही वास्तव में एक इंटेलिजेंस सिस्टम होगा.’

रोबोटिक्स को इसकी वर्तमान सीमाओं से आगे बढ़ाने के अलावा, आईआईटी-कानपुर के कुछ शोधकर्ता कुछ सरकारी नीतियों के बेहतर विकल्पों पर भी जोर दे रहे हैं.


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ईंधन के रूप में मेथनॉल और क्यूआर कोड से लड़ाई

यह सर्वविदित है कि भारत सरकार ने साल 2025-2026 तक पेट्रोल में 20 प्रतिशत इथेनॉल के सम्मिश्रण का लक्ष्य रखा है. हालांकि, आईआईटी-कानपुर में इंजन अनुसंधान प्रयोगशाला (इंजन रिसर्च लेबोरेटरी)  का नेतृत्व करने वाले अविनाश कुमार अग्रवाल ने मेथनॉल पर अपने शोध के साथ इससे जुडी  चीजों को एक कदम आगे बढ़ाया है. अग्रवाल की टीम व्यावसायिक इंडियन बाइक्स के इंजन के साथ इस तरह से हेरफेर करने में सक्षम रही है कि उन्हें पेट्रोलियम आधारित ईंधन से मेथनॉल में स्थानांतरित किया जा सकता है.

मेथनॉल एक तरल अल्कोहल ईंधन है जिसे कृषि अपशिष्ट जैसे बायोमास से प्राप्त किया जा सकता है.

अग्रवाल कहते हैं कि 1990 के दशक में अमेरिका में ईंधन के रूप में मेथनॉल का उपयोग किया जाता था, लेकिन अब इसका उपयोग नहीं किया जाता है क्योंकि इसका ऊर्जा घनत्व कम है.

वह बताते हैं, ‘इसके अलावा, एक गलत धारणा थी कि यह गैस जहरीली है, लेकिन यह किसी भी ईंधन के मामले में सच है. मेथनॉल का सेवन करने से अंधापन या मृत्यु हो सकती है.’

अग्रवाल के मुताबिक, ईंधन के रूप में मेथनॉल के इस्तेमाल से कार्बन फुटप्रिंट में कमी आ सकती है और ईंधन की लागत भी काफी कम हो सकती है.

वे कहते हैं, ‘वर्तमान में, हालांकि हम ईंधन के साथ इथेनॉल को मिला रहे हैं, मगर इससे ईंधन की लागत कम नहीं हुई है. सरकार पेट्रोल के साथ इथेनॉल मिला रही है, लेकिन आम उपभोक्ता पेट्रोल की कीमत ही चुकाता है.‘

अग्रवाल अपने ‘मेथनॉल अर्थव्यवस्था’ वाले कार्यक्रम को साकार रूप देने की दिशा में नीति आयोग के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. इस पहल का उद्देश्य भारत के तेल आयात बिल तथा ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन को कम करना तथा कोयले के भंडार एवं नगरपालिकाओं के ठोस कचरे को मेथनॉल में परिवर्तित करना है.

इस बीच, मटेरियल साइंसेस और इंजीनियरिंग के प्रोफेसर दीपक गुप्ता के मामले में लड़ाई अब सर्वव्यापी बन चुके क्यूआर कोड के खिलाफ है.

गुप्ता दवाओं और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की गुणवत्ता को सुरक्षित करने के एक साधन के रूप में क्यूआर कोड के उपयोग को प्रोत्साहित करने के सरकार के कदम से पूरी तरह से असहमति रखते हैं.

गुप्ता कहते हैं, ‘कोई भी क्यूआर कोड सुरक्षित कैसे हो सकता है? आप बस कोड को कॉपी कर सकते हैं और फिर इसे नकली उत्पाद पर चिपका सकते हैं –  फिर भी इसका स्कैन आपको सारी सही जानकारी ही दिखाएगा.  क्यूआर कोड तो कोई भी जनरेट कर सकता है. एक सुरक्षित कोड वास्तव में कुछ ऐसा होगा जिसकी कोई भी, किसी भी तकनीक के साथ नक़ल नहीं कर सकता है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हम भारत में किसी भी तरह की जालसाजी को लेकर चिंतित थे. मोटे तौर पर भारत में उत्पादित लगभग 20 प्रतिशत उत्पाद (सभी क्षेत्रों में) नकली होते हैं.’

गुप्ता ने एक नया सुरक्षा टैग बनाया है जो हर बार एक नया पैटर्न उत्पन्न करता है. वे कहते हैं कि इसके लिए उन्होंने एक प्राकृतिक घटना – जब भूमि की सतह बहुत अधिक शुष्क हो जाती है तो कैसे हर बार एक नया पैटर्न बनाती है – से प्रेरणा ली.

वह आगे कहते हैं, ‘हमारी उंगलियों के निशान की ही तरह,  प्रकृति कुछ भी एक समान नहीं बनाती है. प्रकृति हमेशा विविधता पैदा करती है.’

गुप्ता की द्वारा अपनाई गई विधि के तहत कागज के एक छोटे से टुकड़े पर स्याही की एक पतली परत जमा करने के लिए नियमित स्याही वाले जेट प्रिंटर का उपयोग किया जाता है. जब स्याही सूख जाती है, तो यह हर बार एक नया और अनूठा पैटर्न बनाती है, जिसे दोहराया नहीं जा सकता.

स्याही की परत इस कोड में एक और तीसरी परत भी जोड़ती है. इन कोड्स को पढ़ने के लिए डिजाइन किया गया एक ऐप यह भी पता लगा सकता है कि जिस पैटर्न को यह पढ़ रहा है वह असली 3डी टैग है या उसकी सिर्फ एक प्रतिकृति है.

वे कहते हैं, ‘इस तरह के एक सुरक्षा टैग की अहम् बात यह है कि अगर इसके निर्माता को भी इसकी दूसरी प्रति बनाने के लिए कहा जाए, तो उसे भी इसे दोबारा बनाने में सक्षम नहीं होना चाहिए.’

समय पर नजर

आईआईटी कानपुर के नेशनल सेंटर फॉर फ्लेक्सिबल इलेक्ट्रॉनिक्स में नेत्रहीनों के लिए एक स्मार्टवॉच तैयार करने पर काम चल रहा है.

इसे केंद्र के समन्वयक सिद्धार्थ पांडा ने अपनी टीम के साथ यह डिवाइस बनाया है. इस टीम ने इस घड़ी को डिज़ाइन करने से पहले एक दृष्टिबाधित व्यक्ति की ज़रूरतों को समझने के लिए कई वर्षों तक एक एनजीओ के साथ काम किया.

पांडा कहते हैं, ‘आमतौर पर, दृष्टिबाधित लोग एक खोले जा सकने वाले ग्लास कवर के साथ वाली एनालॉग घड़ी का उपयोग करते हैं. वे समय पता करने के लिए घड़ी की सुइयों को छूते हैं. हालांकि, लगातार छूने का मतलब है कि ये इन घड़ियों में टूट-फूट का खतरा अधिक होता हैं.’

वे बताते हैं, ‘हाल ही में, टॉक-बैक सुविधाओं से युक्त डिजिटल घड़ियां आई हैं. ये बोलकर समय बतातीं  हैं, लेकिन ये उपकरण किसी व्यक्ति की निजता को खतरे में डालतें हैं.’

इसलिए, पांडा की टीम ने एक ऐसी घड़ी विकसित की है जो किसी व्यक्ति द्वारा समय जानने के लिए कंपन के रूप में मिलने वाली स्पर्श प्रतिक्रिया का उपयोग करती है.

एक नियमित एनालॉग घड़ी की तरह, टैकवाइब्स की परिधि के साथ 12 मार्कर लगाए गए हैं. इस घड़ी में घंटे या मिनट की कोई सुई नहीं चलती. इसके बजाय, सही मार्करों को छूने से छोटे-छोटे कंपन वाले स्पंदन उत्पन्न होते हैं.

उदाहरण के लिए, यदि समय 2 बजे का होता है, तो उपयोगकर्ता 12 के लिए बने मार्कर पर अपनी उंगली रखने पर एक लंबा कंपन महसूस करेगा, और 2 पर अपनी उंगली रखने पर एक छोटा कंपन महसूस करेगा.

इतना ही नहीं, इसके डायल पर महसूस होने वाले कंपन के संयोजन का उपयोग करके, इस स्मार्टवॉच का उपयोग हृदय गति, रक्त ऑक्सीजन स्तर आदि को ‘जानने’ के लिए भी किया जा सकता है.

उनकी टीम अब इस घड़ी के व्यावसायीकरण पर काम कर रही है.

आईआईटी कानपुर के वेंटीलेटर प्रोजेक्ट – जिसने इस संस्थान को कोविड महामारी के दौरान केवल तीन महीनों के दौरान एक वेंटिलेटर विकसित करते हुए देखा था – की सफलता ने इस संस्थान को मेड-टेक (चिकित्सा तकनीक) के क्षेत्र में कदम रखने के लिए एक नई प्रेरणा प्रदान की है.

आईआईटी कानपुर की मेडटेक लैब के प्रमुख जे रामकुमार हैं और वे इस संस्थान में विकसित की जा रही प्रासंगिक तकनीकों को उद्योग जगत तक ले जाने में मदद कर रहे हैं.

इस क्षेत्र की जरूरतों को समझने के लिए डॉक्टरों के साथ मिलकर काम करते हुए, मेडटेक लैब स्त्री रोग परीक्षण के लिए ऑप्टिकल जांच उपकरण, एंबुलेंस के लिए पोर्टेबल मेडिकल ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और पोस्चर करेक्शन के लिए एक उपकरण जैसी तकनीकों पर काम कर रही है.

इस संस्थान के वरिष्ठ शोधकर्ताओं का अनौपचारिक रूप से कहना है कि इनमें से प्रत्येक आविष्कार समाज की कई समस्याओं को हल करने की आवश्यकता से प्रेरित है, लेकिन इसके अन्य फायदे भी हैं.

इनमें से कुछ प्रौद्योगिकियां – यदि वे सफल रहीं तो – उनके संस्थापकों को करोड़पति बना सकती हैं. उन्होंने बताया कि उनमें से ज्यादातर मेहनतकश, मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आते हैं. अगर उनका काम सफल हो जाता है, तो वे अचानक ही करोड़ों के शेयरों के मालिक बन सकते हैं.

(अनुवाद: रामलाल खन्ना | संपादन: ऋषभ राज)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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