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Saturday, 20 April, 2024
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पाकिस्तान का भविष्य अब प्रधानमंत्री इमरान खान की भारत पॉलिसी पर निर्भर

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पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए इमरान खान और असद उमर कर सकते हैं नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह जैसे दिलचस्प कार्य।

पाकिस्तान में चुनाव के बाद की स्थिति पर प्रेस कवरेज का ध्यान इमरान खान के सेना के साथ संबंधों तथा भारत के साथ उनकी संभावित नीति के बजाय देश की खराब आर्थिक स्थिति की ओर स्थानांतरित हो गया है। इनमें आखिरी की दो बातें तो आपस में जुड़ी हुई हैं लेकिन और भी बातें चल रही हैं।

इस साल पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार बहुत तेजी से घटा है जबकि उसका चालू खाते का घाटा बढ़ा है और देश पर भारी ऋण आदायगी भी बकाया है। पाकिस्तानी रुपये की हालत बहुत बुरी है, हालांकि केंद्रीय बैंक ने ब्याज दरों में काफी बढ़ोतरी की है। मई में इसमें बढ़ोतरी की गई थी फिर पिछले महीने भी इसमें 100 आधार अंकों की बढ़ोतरी की गई है। छह वर्ष की तेजी के बाद आर्थिक वृद्धि में गिरावट आना तो निश्चित ही है। इस दौरान इसने 5.6 फीसदी की उच्चतम दर प्राप्त की है। अब तो ऐसा लगता है कि इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के समक्ष ऋण के लिए आवेदन करना ही होगा।

यहाँ अमेरिका बनाम चीन के मुकाबले की एक दिलचस्प पृष्ठभूमि तैयार होती है। चीन पाकिस्तान का सबसे बड़ा वित्त पोषक देश बन गया है, पिछले जून में समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष 2017 में इस्लामाबाद ने जो विदेशी मुद्रा ली उसमें 38 फीसदी हिस्सेदारी चीन की थी। वित्तीय वर्ष 2018 की अभी तक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस बीच अमेरिका छठे हिस्से के बराबर मताधिकार के साथ अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का सबसे बड़ा अंशधारक है। अमेरिका ने कहा है कि वह पाकिस्तान द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के धन का उपयोग चीन का ऋण चुकाने में किए जाने का विरोध करेगा। इसका यह मतलब नहीं है ऋण के लिए मंजूरी नहीं दी जाएजी लेकिन उसके लिए पाकिस्तान को अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का सहयोग हासिल करना होगा।

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ऋण मिले या न मिले लेकिन पाकिस्तान को अपनी हालत सुधारनी ही होगी। पाकिस्तान एक नए और अनुभवहीन प्रधानमंत्री के अधीन है तो ऐसी स्थिति में सुधार का पूरा भार वित्त मंत्री के कंधों पर ही आएगा। माना जा रहा है कि कारोबारी से राजनेता बने असद उमर को ही वित्त मंत्री बनाया जाएगा। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि खान और उमर नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के जैसे कार्य करने का प्रयास करें और विदेशी मुद्रा संकट के बीच व्यापक आर्थिक सुधारों के एजेंडे पर काम करें।

उमर कई वर्ष पहले तब सुर्खियों में आए जब एनग्रो समूह के मुख्य कार्याधिकारी होने के नाते उन्हें पाकिस्तान में सबसे अधिक वेतन मिल रहा था। 50 साल की उम्र में राजनीति में शामिल होने के लिए उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था और तभी से वह इमरान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक एक इंसाफ (पीटीआई) की तरफ से संसद के सदस्य हैं। माना जाता है कि पीटीआई के घोषणापत्र में निगमित कर (वर्तमान में 31 प्रतिशत) को कम करने और सरकार को तमाम सरकारी उपक्रमों से दूर करते हुए उन्हें स्वतंत्र प्रबंधन के अधीन करने की बात उन्होंने ही लिखी है।

सुधार का यह एजेंडा निवेशकों और ऋणदाताओं को उत्साहित कर सकता है, डॉलर का बहिर्गमन रोक सकता है और वित्तीय स्थिरता को बहाल कर सकता है। लेकिन इसका एक मतलब यह भी है कि इमरान खान को अपनी जनकल्याण योजनाओं के खर्चीले चुनावी वादे को भूलना होगा और व्यय में भी कटौती करनी होगी, जिसकी गुंजाइश कम है। ब्याज भुगतान के बाद सबसे अधिक व्यय रक्षा क्षेत्र में होता है, इस क्षेत्र का खर्च सरकार द्वारा स्वास्थ्य और शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च से आठ गुना अधिक है। क्या रावलपिंडी में सेना के उच्चअधिकारी अपने ही व्यक्ति के चुनाव में जीतने के बाद अपने खर्च में कटौती के लिए सहमत होंगे?

सबसे अच्छा तो यही हो सकता है कि खान और उमर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहायता प्राप्त करें और अर्थव्यवस्था को बार-बार के संकट से उबार लें। भारत में राव और सिंह ने जो चमत्कार किया था पाकिस्तान में उसे दोहराए जाने की संभावना नजर नहीं आती है। पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के रूप में बचत और निवेश की दर भारत की तुलना में आधी भी नहीं हैं। ऐसे में भारत जैसी आर्थिक वृद्धि हासिल करना भला कैसे संभव हो सकता है। वर्तमान भारत की तुलना में कर-जीडीपी अनुपात बड़ी मुश्किल से दो तिहाई ही है। ऐसे में सरकार की व्यय करने की क्षमता भी सीमित है। गत वर्ष सुधार के पहले लगातार तीन साल तक निर्यात में गिरावट आई। फिलहाल पाकिस्तानी रुपया 123 रुपये प्रति डॉलर है। यह प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता के लिहाज से अभी कम है।

अंत में, अगर खान की भारत नीति के बारे में बात करें तो उनके लिए सबसे सही बात यही होगी कि वे भारत के साथ शांति स्थापित करने की कोशिश करें, अपने रक्षा खर्च में कमी करें और फिर जो शांति स्थापित हो उसका उपयोग देश की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए करें। दुर्भाग्यवश, लगता नहीं है कि ऐसा कुछ हो पाएगा।

बिजनेस स्टैण्डर्ड के साथ विशेष व्यवस्था द्वारा

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