1960 के दशक का फर्स्ट हाफ भारत के इतिहास में एक उथल-पुथल भरा समय था. नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी – जो अब अरुणाचल प्रदेश है – में चीन के साथ 1962 के युद्ध में भारतीय सेना को मिले झटके के बाद मनोबल काफी कमजोर हो चुका था. देश के कई राज्यों में, जैसे पंजाब, असम और मद्रास में भाषाई और जातीय मुद्दों पर आंदोलन हो रहे थे. जम्मू-कश्मीर उबल रहा था और मध्य प्रदेश में चंबल के बीहड़ों में डकैतों का तांडव बढ़ रहा था. उस समय देश का अर्थव्यवस्था भी काफी कमजोर स्थिति में थी और राज्य सरकारों ने उस समय पुलिस बलों के विस्तार की भी मांग की थी.
1961 में जब लाल बहादुर शास्त्री गृहमंत्री बने तो और क्षेत्रीय परिषदों की बैठक में भाग लेने लगे तो उन्होंने एक ‘रिजर्व पुलिस बल’ की स्थापना का प्रस्ताव रखा था जिसे राज्य सरकारों द्वारा वित्त पोषित किया जाएगा और आवश्यकता पड़ने पर इस्तेमाल के लिए उपलब्ध होगा. बता दें कि सहकारी कामकाज को बढ़ावा देने के लिए 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत क्षेत्रिय परिषद की स्थापना की गई थी.
एलपी सिंह, जो उस वक्त मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव के पद पर थे और क्षेत्रीय परिषदों की देखभाल करते थे तथा बाद में भारत के सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले गृह सचिव (1964 से 1970 तक) बने, ने अपने संस्मरण में लिखा: “यह एक व्यावहारिक विचार था क्योंकि एक क्षेत्र के प्रत्येक राज्य को आम तौर पर एक ही समय में सुदृढीकरण की आवश्यकता नहीं होती है. इस व्यवस्था से राज्यों के बीच सद्भाव और सहकारी संबंधों को बढ़ावा देने के अलावा प्रत्येक भाग लेने वाले राज्यों के बीज खर्च में कटौती की जा सकें.” हालांकि, इस प्रस्ताव को आगे नहीं बढ़ाया गया. सिंह ने आगे लिखा: “यदि शास्त्री गृह मंत्री के रूप में लंबे समय तक रहे होते या पीएम बनने के बाद काफी समय तक जीवित रहे होते, तो उन्होंने राज्यों के बीच एक समझौता करवा लिया होता.”
1965 में पाकिस्तानी सेना द्वारा ऑपरेशन डेजर्ट हॉक (पाकिस्तानी सेना द्वारा इस ऑपरेशन का कोडनेम) शुरू करने के बाद यह स्पष्ठ हो गया था कि हमें राज्य पुलिस से अंतरराष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा की जिम्मेदारी से ऊपर सोचना होगा. 20 जनवरी 1965 को गुजरात-पाकिस्तान सीमा पर कंजरकोट के पास पाकिस्तानी घुसपैठ के बाद, क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) चौकियां स्थापित की गईं. सीमा पार से अगला उल्लंघन 18 फरवरी 1965 को हुआ और भारत सरकार ने पाकिस्तान के सामने औपचारिक शिकायत दर्ज कराई. लेकिन पाकिस्तान के विदेश कार्यालय ने इससे इनकार कर दिया और दावा किया कि पाकिस्तान ने 1947 से इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है.
भौगोलिक परिस्थितियों की वजह से इस क्षेत्र में रसद और अन्य जरूरी चीजों को लेकर पाकिस्तान को फायदा था: पाकिस्तान का निकटतम रेलवे स्टेशन (बदीन) कंजरकोट से लगभग 42 किमी उत्तर में था, जबकि भारत का पहला रेलवे स्टेशन भुज सीमा से 177 किमी दूर स्थित था और निकटतम भारतीय सेना की 31 इन्फैंट्री ब्रिगेड भुज से लगभग 258 किमी पूर्व में अहमदाबाद में तैनात थी.
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सीमा की रखवाली कर रहे हैं
सीमा सुरक्षा बल (BSF) के पहले महानिदेशक (DG) केएफ रुस्तमजी के संस्मरण, द ब्रिटिश, द बैंडिट्स एंड द बॉर्डरमेन में उस समय को सबसे अच्छी तरह कैद किया गया था. “यह संघर्ष सीमा पार घुसपैठ से शुरू हुआ. यह इतना आसान नहीं था क्योंकि सेना आक्रमणकारियों को पीछे हटाने के लिए तुरंत उपलब्ध थी और संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों ने तुरंत बताया कि हमलावर पाकिस्तान से आए थे. जनवरी 1965 से कच्छ के रण में रुक-रुक कर झड़पें होती रहीं. 1965 के रामनवमी के दिन, जो उस साल 9 अप्रैल को था, पाकिस्तानी सेना ने CRPF के कब्जे वाली सदर चौकी पर हमला किया. पुलिस टुकड़ियों ने हमलों को टाल दिया, लेकिन बाद में वहां भारतीय सेना को तैनात किया गया. जल्द ही, सीमा शांति कम होने लगी और दोनों ओर से कई जवाबी हमले शुरू किए गए.
इसके तुरंत बाद भारत सरकार ने “पूरी भारत-पाकिस्तान सीमा पर निगरानी के सबसे प्रभावी तरीके की जांच करने और सिफारिश करने” के लिए एक समिति का गठन किया. सेना के उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल पीपी कुमारमंगलम के नेतृत्व में एक स्टडी ग्रुप ने एक रिपोर्ट तैयार की, जिसकी जांच एलपी सिंह और सेना प्रमुख जनरल जेएन चौधरी ने की, जिन्होंने फिर इसकी जानकारी प्रधानमंत्री को दी. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अधीन एक नया सीमा बल बनाने का ‘सैद्धांतिक’ निर्णय लिया गया. चौधरी के अनुसार, उन्हें “ज्यादातर पुलिस वाला” काम सौंपा जाता, लेकिन “सेना के आदेश के तहत उन्हें काम करने की उम्मीद है.”
जनरल चौधरी, जो समाचारपत्र द स्टेट्समैन में ‘हमारे सैन्य संवाददाता’ के तहत कॉलम लिखा करते थे, ने 22 अप्रैल 1965 और 8 जुलाई 1965 को छपे दो कॉलम में BSF के गठन के बारे में लिखा. उन्होंने नए सीमा बल के उद्देश्यों के बारे में बताया कि इसका नेतृत्व सेना के किसी अधिकारी के बजाय एक पुलिस अफसर को क्यों करना चाहिए. उन्होंने अपने कॉलम में लिखा, “इससे सैन्य हलकों में थोड़ी निराशा हो सकती है, क्योंकि जाहिर तौर पर इस पद पर कुछ लालची निगाहें टिकी हुई हैं, लेकिन एक निर्णय के रूप में यह सही है. पुलिस बल का मुखिया एक सक्षम पुलिस अफसर को होना चाहिए.”
शास्त्री जी के समय निर्णय लेने की रफ्तार काफी तेज होती थी. गृह मंत्रालय के भीतर चर्चा के कुछ दिनों के भीतर, “सीमा बल की संभावना और इच्छा” पर चर्चा करने के लिए मई के पहले सप्ताह में गृह मंत्रियों और राज्य पुलिस के महानिरीक्षकों (IGP) की एक बैठक बुलाई गई थी. प्रधानमंत्री ने बैठक को संबोधित किया और गुजरात सीमा पर पाकिस्तानी सेना की आवाजाही पर चर्चा की. अधिकांश गृह मंत्रियों और IGP ने सहमति में सिर हिलाया क्योंकि जमीनी कार्य पहले ही हो चुका था. हालांकि, यह विधि का विधान ही थी कि रुस्तमजी ने मध्य प्रदेश सरकार की ओर से आपत्ति जताई क्योंकि उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा द्वारा ऐसा करने का आदेश दिया गया था.
इस आपत्ति के पीछे दो कारण हो सकते हैं: पहला कारण रणनीतिक था. चूंकि मध्य प्रदेश एक सीमावर्ती राज्य नहीं था, इसलिए यह इन घुसपैठों से सीधे प्रभावित नहीं हुआ था. दूसरा कारण राजनीतिक था. मिश्रा सहित कई कांग्रेसी नेता शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने से सहमत नहीं थे और अपनी ताकत का इस्तेमाल करना चाहते थे.
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रुस्तमजी बने BSF डीजी
17 मई 1965 को एलपी सिंह ने सेनाध्यक्ष चौधरी और रक्षा सचिव एडी पंडित के साथ बैठक की. बैठक के बाद, उन्होंने HM और PM को अनुमोदन के लिए मिनट्स सौंपे. रुस्तमजी को BSF का पहला महानिदेशक नियुक्त किया गया, उनके पास भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल के बराबर सितारे और धारियां थीं. रुस्तमजी को चुनने का एक कारण जनरल चौधरी के साथ उनका अच्छा तालमेल था. मई 1948 में उन्हें पूर्वी हैदराबाद रियासत की सीमा से लगे जिले अकोला में तैनात किया गया था. उन्होंने भारत सरकार के आदेश वाले हैदराबाद की पुलिस कार्रवाई में भाग लिया था क्योंकि हैदराबाद के निज़ाम भारतीय संघ के साथ एकीकृत होने के इच्छुक नहीं थे.
हालांकि, रुस्तमजी ने MHA को ड्यूटी के लिए रिपोर्ट किया था और उनकी सेवाओं का उपयोग पाकिस्तान सीमा पर विभिन्न पुलिस बलों के बीच समन्वय के लिए किया गया था, बल की वास्तविक वृद्धि के लिए भारत-पाकिस्तान युद्ध की समाप्ति तक इंतजार करना पड़ा. यही कारण है कि 1 दिसंबर BSF स्थापना दिवस बन गया, जिसे तब से हर साल उत्साह के साथ मनाया जाता है.
रुस्तमजी ने हल्के-फुल्के अंदाज में बल के नाम पर अपने योगदान को याद किया.
डिस्क्लोजर: मेरे पिता सुरेंद्र कुमार चोपड़ा और श्वसुर शैलेंद्र नाथ मिश्रा (IPS) ने BSF के प्रारंभिक वर्षों में सेवा की. मैं पंजाब के जालंधर छावनी में BSF परिसर में बड़ा हुआ और मेरी शिक्षा जालंधर के BSF स्कूल में ही हुई.
(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डारेक्टर थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev. है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादन: ऋषभ राज)
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