तेजस्वी यादव क्रिकेट में मिडिल ऑर्डर के बैट्समैन हुआ करते थे. यानी जब वे बैटिंग करने आते थे, तब तक ओपनर और शुरुआती बल्लेबाज फिल्डिंग टीम के शुरुआती हमलों को झेल चुके होते थे. बॉल की शुरुआती चमक भी अक्सर जा चुकी होती थी. स्कोरकार्ड पर कई बार बुनियाद बन चुकी होती थी, जिस पर इमारत खड़ी करने का जिम्मा मिडिल ऑर्डर बैट्समैन निभाते थे.
लेकिन वास्तविक जीवन में तेजस्वी यादव को वह स्थिर स्थिति, वह बुनियाद नहीं मिल पाई. तेजस्वी क्रिकेटर ही बनना चाहते थे. अपने रोल मॉडल सचिन तेंडुलकर की तरह उन्होंने भी अपनी पढ़ाई स्कूली दिनों में ही छोड़ दी. लेकिन क्रिकेट में वे अच्छी तरह हाथ आजमा पाते, उससे पहले ही उनके पिता के खिलाफ चारा घोटाले में षड्यंत्र के मुकदमे का फैसला आ गया और सजा होने के कारण वे चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए. इस विषम स्थिति में, पिता के निर्देश पर तेजस्वी यादव ने क्रिकेट छोड़कर, बिहार की राजनीति में कदम रखा.
तेजस्वी यादव की अच्छी शुरुआत
राजनीति में उनके ओपनिंग शॉट्स अच्छे थे. 2015 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी का जेडीयू के साथ चुनावी तालमेल हुआ और 81 सीटें जीतकर उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई. तेजस्वी यादव ने अपनी राघोपुर सीट भारी अंतर से जीत ली. सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद चुनाव पूर्व वादे के मुताबिक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और बड़ी पार्टी के नेता तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री. इस पद पर पहुंचने वाले वे देश के सबसे कम उम्र के नेता बने.
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यहां तक सब कुछ लालू प्रसाद की लिखी हुई स्क्रिप्ट के मुताबिक हुआ. तेजस्वी यादव नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजनीति के गुर सीख रहे थे. लेकिन इस बीच बीजेपी ने बिहार की राजनीति में हस्तक्षेप किया, जिसके लिए न लालू प्रसाद तैयार थे, न तेजस्वी यादव.
सीबीआई ने लालू यादव के रेल मंत्री रहने के दौरान के आईआरसीटीसी घोटाले की फाइल खोल दी और उसमें तेजस्वी यादव का भी नाम शामिल कर दिया, हालांकि ये घोटाला जब का बताया गया, उस समय तेजस्वी यादव स्कूल में पढ़ रहे थे और नाबालिग थे. लेकिन ये सब तो बाद की दलीलें थीं. केस तो किया जा चुका था.
बहरहाल, इस केस के आधार पर नीतीश कुमार ने आरजेडी से गठबंधन तोड़ दिया और जिस बीजेपी को बिहार की जनता ने चुनाव में हराया था, उसी के साथ मिलकर बिहार में सरकार बना ली. इसके बाद बिहार में जितने भी उपचुनाव हुए, उसमें आरजेडी ने जीत हासिल की. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में बाजी पलट गई. बीजेपी, जेडीयू और एलजेपी गठबंधन ने बिहार की 40 में से 39 लोकसभा सीटें जीत लीं. एक सीट सेकुलर गठबंधन में कांग्रेस ने जीत ली. लेकिन बिहार विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी लोकसभा की एक भी सीट नहीं जीत पाई.
चुनाव नतीजा आए दो महीने भी नहीं हुए हैं और इतने में ही आरजेडी काफी बेदम नजर आ रही है. कई लोगों को लगता है कि बिहार में जनता के जरूरी मुद्दों पर आरजेडी को जैसी आंदोलनकारी भूमिका निभानी चाहिए, वो नहीं हो पा रहा है. दरअसल आरजेडी इस तरह की हार के लिए तैयार नहीं थी और फिलहाल वह सन्निपातग्रस्त नजर आती है. हालांकि किसी भी चुनाव के फौरन बाद हारी हुई पार्टी आम तौर पर हमलावर नहीं होती. इस मामले में आरजेडी का राजनीतिक व्यवहार आश्चर्यजनक नहीं है. जीती हुई पार्टियां का एक हनीमून पीरियड होता है, जो बिहार में इस समय जेडीयू और बीजेपी को हासिल है.
आरजेडी की समस्या ये नहीं है कि वह इस समय आक्रामक क्यों नहीं है? उसकी इस समय मुख्य रूप से तीन समस्याएं हैं.
1. बीजेपी का यादव और अति पिछड़ा वोटबैंक पर दावा – बीजेपी इस बात की काट तीस साल से ढूंढ रही है कि वो बिहार में अपने दम पर सत्ता में कैसे आए. कभी लालू और नीतीश की कभी जुगलबंदी, तो कभी दोनों के अलग-अलग खेलने की वजह से बिहार अकेला ऐसा उत्तर भारतीय राज्य रहा, जहां बीजेपी की कभी बहुमत की सरकार नहीं बन पाई. इस बार वह बिहार में अपने दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है. इस क्रम में वह अपने जनाधार के विस्तार में जुटी है, और उसकी नजर यादव वोट बैंक पर है. बिहार के अपने एक यादव नेता नेता नित्यानंद राय को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री और अमित शाह का जूनियर बनाकर उन्होंने यादवों को एक संकेत दे दिया है. पार्टी महासचिव भूपेंद्र यादव ही इन दिनों बिहार में बीजेपी का काम देख रहे हैं. इसके अलावा अति पिछड़ी जाति के अपने नेता फागू चौहान को बिहार का राज्यपाल बनाकर बीजेपी ने अति-पिछड़ों के साथ भी रिश्ता मजबूत करने की कोशिश है. ये आरजेडी के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि यादव वोट अभी तक ज्यादातर उसके साथ जुड़ा था और अति-पिछड़ों का एक हिस्सा उसे वोट देता था.
2. जेडीयू की मुसलमान वोटों पर नजर – जेडीयू हालांकि अभी बिहार की सरकार चला रही है और बीजेपी के साथ उसका गठबंधन है, लेकिन दोनों दल अगला विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ने की संभावना तलाश रहे हैं. इसे देखते हुए जेडीयू ने अपने जनाधार को फैलाने की योजना पर काम शुरू कर दिया है. उसकी नजर आरजेडी के मुसलमान वोट पर है. अगर जेडीयू बीजेपी से अलग चुनाव लड़ती है तो वह मुसलमानों को ये बताने की कोशिश करेगी कि बिहार में बीजेपी को आरजेडी नहीं, जेडीयू ही रोक सकता है. इस क्रम में बिहार सरकार द्वारा आरएसएस के अनुषंगी संगठनों और उसके नेताओं पर नजर रखने के बारे में जारी किए गए आदेश को देखा जाना चाहिए. हालांकि इसके बारे में सरकार का स्पष्टीकरण आ चुका है, लेकिन इससे जो राजनीतिक संदेश जाना चाहिए, वह दिया जा चुका है. मुसलमानों में अगर आरजेडी को लेकर कोई दुविधा या भ्रम पैदा होता है, तो ये उसके लिए बेहद बुरी खबर होगी, क्योंकि मुसलमानों ने अब तक कभी भी लालू प्रसाद और उनकी पार्टी का साथ नहीं छोड़ा है.
3. संकट बना परिवार – तेजस्वी यादव की तीसरी समस्या उनके अपने घर के अंदर है. लालू यादव के जेल में होने से ये परिवार मुखिया विहीन हो गया है. राबड़ी देवी परिवार को समेटने और सबको साथ रखने के चक्कर में लगातार तेजस्वी यादव के लिए मुसीबत खड़ी कर रही हैं. बड़े बेटे तेज प्रताप यादव की बेतुकी हरकतों से पार्टी को काफी नुकसान हुआ है. बड़ी बहन मीसा भारती भी समाधान की जगह समस्या का हिस्सा हैं. जब पूरे परिवार को चट्टान की तरह एकजुट होना चाहिए, तब वहां आपस में घमासान मचा है.
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सवाल उठता है कि क्या तेजस्वी यादव अपने पिता लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में इन कठिनाइयों का मुकाबला कर पाएंगे. अगर वे ऐसा कर पाते हैं, तो बिहार ही नहीं देश को एक तपा-तपाया नेता मिलेगा. वरना वे इतिहास के हाशिए पर चले जाएंगे. ये सब करने के लिए उनके पास सिर्फ सवा साल हैं, क्योंकि नवंबर 2020 से पहले बिहार में विधानसभा चुनाव हो जाएंगे.
(दिलीप मंडल वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनके निजी विचार हैं)