scorecardresearch
Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतखामी भरी सुरक्षा रणनीति के कारण कैसे असफल हो रही है माओवादी विद्रोह पर लगाम लगाने की कोशिश

खामी भरी सुरक्षा रणनीति के कारण कैसे असफल हो रही है माओवादी विद्रोह पर लगाम लगाने की कोशिश

छत्तीसगढ़ में ताजा माओवादी हिंसा ने हमारे सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण और उनकी रणनीतियों की खामियां फिर उजागर की. सवाल यह भी है कि हम नागा, मिज़ो और हुर्रियत जैसे अलगाववादियों से बातें कर चुके हैं. तो माओवादियों से क्यों नहीं बात की जा सकती?

Text Size:

छत्तीसगढ़ पुलिस और सीआरपीएफ के टास्क फोर्स पर माओवादी हमले में 3 अप्रैल को 22 जवान मारे गए, 31 घायल हुए और भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद बर्बाद हुए. 1,700 से 2,000 के बीच सुरक्षाबलों के बगावत विरोधी अभियान में यह करीब 450 जवानों की टुकड़ी थी, जो ‘खोजो और खत्म करो’ ऑपरेशन चला रही थी. विशेष खुफिया शाखा ने जानकारी दी थी कि कुख्यात माओवादी नेता माडवी हिडमा और उसकी ‘पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी’ की बटालियन नंबर 1 उस इलाके में मौजूद है.

घात लगाकर किए गए इस हमले में बड़ी संख्या में हुई मौतों ने माओवादी विद्रोह को फिर से राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना दिया. 1946-51 में वर्तमान तेलंगाना क्षेत्र से शुरू हुए इस कम्युनिस्ट विद्रोह ने भारत के विभिन्न भागों में फैलने के बाद 21वीं सदी में नया अवतार ले लिया है. इस हमले ने इस समस्या के लिए भारत सरकार की राजनीतिक तथा सैन्य रणनीति की खामियों को उजागर कर दिया है.


यह भी पढ़ें: नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक युद्ध की बात एकदम बेतुकी- बस्तर जाकर देखिए, वहां अरसे से युद्ध जारी है


सिकुड़ता लेकिन दृढ़ता भरा विद्रोह

कम्यूनिज़्म प्रेरित विद्रोह ने जबरदस्त मजबूती दिखाई है और यह उन निर्धनतम लोगों को अभी भी आकर्षित कर रहा है जिन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था से मिलने वाले लाभों से वंचित रखा गया है. भारत में इन विद्रोहों के चार चरण दिखे हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) द्वारा संगठित तेलंगाना विद्रोह जमींदारों के खिलाफ किसानों के संघर्ष के रूप में 1946 में शुरू हुआ, जिस पर 1951 में लगाम लगाया जा सका. भाकपा सशस्त्र विद्रोह छोड़कर चुनावी राजनीति में उतर गई थी.

दूसरे चरण में, भाकपा के क्रांतिकारी 1964 में अलग हो गए और उन्होंने अलग मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का गठन कर लिया. माकपा ने भी जब चुनावी राजनीति में कदम रख दिया, तब इसके अधिक क्रांतिकारी माओवादी घटक ने 1967 में पश्चिम बंगाल में हिंसक नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू कर दिया, जो जल्दी ही केरल से लेकर पंजाब तक कई राज्यों में फैल गया. इस घटक ने 22 अप्रैल 1969 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी यानी माले) का गठन कर लिया और इसने चुनावी राजनीति को खारिज कर दिया. बहरहाल, केंद्र और राज्य सरकारों की जोरदार कार्रवाइयों के कारण नक्सलबाड़ी आंदोलन को दबाया जा सका.

माले द्वारा प्रेरित आंदोलन 1972-91 के बीच कमजोर पड़ा रहा. यह घटक सैद्धांतिक, रणनीतिक और व्यक्ति केंद्रित अहं की टकराहटों के कारण टुकड़ों में बंटता गया. 1975 में बंगाल में माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) का गठन हुआ, जो बाद में भारतीय माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसीआई) बन गया और यह बिहार/झारखंड में फैल गया. 1980 में, आंध्र प्रदेश में भाकपा (माले) के गुट पीपुल्स वार का गठन हुआ, जो पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) के नाम से जाना गया और दूसरे राज्यों में भी फैल गया. इन दो प्रमुख घटकों से टूटकर कई और छोटे-छोटे गुट बने, जिसके बाद ‘लाल गलियारे’ में माओवादी हिंसा का तीसरा चरण 1992 से 2004 के बीच चला.

पीडब्ल्यूजी का 21 सितंबर 2004 को एमसीसीआई में विलय हो गया और नया गुट भाकपा (माओवादी) स्थापित हुआ. पीएलजीए इसकी सैन्य शाखा है. चौथे चरण में पूरे ‘लाल गलियारे’ में पूर्णतः संगठित और समन्वित तरीके से विद्रोह का चौथा चरण चलाया गया. यह ‘स्ट्रेटेजिक स्टेलमेट’ के दौर में पहुंचने के बाद 2010 में अपने चरम पर पहुंच गया.

इसके बाद यह निरंतर कमजोर पड़ता गया है और ‘स्ट्रेटेजिक स्टेलमेट’ के निचले स्तर में पहुंच गया है. ‘लाल गलियारे’ में भारत की सबसे अभावग्रस्त और मुख्यतः जनजातीय आबादी रहती है जिसकी उदासीनता का अंदाजा लगाना देश के बाकी ‘वंचितों’ के लिए भी मुश्किल है. जब यह ‘लाल गलियारा’ मेरे अधिकार क्षेत्र में था और मैं सेंट्रल आर्मी कमांडर था तब मैंने 26 साल बाद झारखंड के जंगल के करीब बसे कुछ गांवों का दौरा किया था. 1972 में मैं इन गांवों में शिकार के लिए जाता था. ऐसा लगता था कि वक्त वहां ठहर गया था. विद्रोह शुरू होने के बाद तो छोड़िए, इससे पहले के बेहतर दौर में भी सरकार ने इन जंगलों में विकास का विस्तार करने की कोई कोशिश नहीं की थी.

वामपंथी उग्रवाद को जनता का पूरा समर्थन हासिल है और इसे जनसंघर्ष के रूप में देखा जाता है. इसकी प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था को अनुपस्थित सरकार की व्यवस्था से बेहतर माना जाता है. इस आंदोलन का चरित्र कभी भी अलगाववादी नहीं था. लोग ‘जल, जंगल और जमीन ’ को लेकर चिंतित रहे हैं और उन्हें लगता है कि इन संसाधनों को बांध बनाकर, स्थानीय लोगों को वन अधिकारों से वंचित करके और कॉर्पोरेट को खनन के लिए बुलावा देकर नष्ट किया जा रहा है.

इसलिए सरकार को एक तो राजनीतिक रणनीति बनाकर लोगों का भरोसा जीतना होगा और दूसरे, हथियारबंद उग्रवादियों के सफाए की रणनीति बनानी होगी.


यह भी पढ़ें: अयोध्या, काशी, मथुरा- ज्ञानवापी मस्जिद पर अदालत का फैसला ‘अतीत के प्रेतों’ को फिर से जगाएगा


राजनीतिक स्ट्रेटेजी

गृह मंत्रालय ने लोगों का भरोसा जीतने के साथ-साथ सशस्त्र बागियों से लड़ने के आजमाए मॉडल पर अपनी रणनीति घोषित की है— ‘सरकार ने वामपंथी उग्रवाद से सुरक्षा और विकास पर ज़ोर देते हुए स्थानीय समुदायों को अधिकार तथा सुविधाएं देकर और बेहतर प्रशासन के जरिए लोगों की धारणा बदलने की कोशिशें करके सर्वांगीण तरीके से निपटने का फैसला किया है.’

राज्यों के साथ मशविरा करके 11 राज्यों के सबसे अधिक नक्सल प्रभावित 90 जिलों को चुना गया है ताकि उनके लिए योजनाओं, उनके क्रियान्वयन और विभिन्न कार्यक्रमों की निगरानी पर विशेष ध्यान दिया जा सके.

कानून-व्यवस्था का पालन राज्य सरकारों का विषय है, जिस पर केंद्र सरकार गहरी नज़र रखती है और इस मामले में राज्यों के प्रयासों में सहयोग तथा समन्वय करती है. केंद्र सरकार ने ये कदम उठाए हैं— सेंट्रल आर्म्ड फोर्सेज़ (सीएपीएफ) उपलब्ध कराना, इंडिया रिजर्व (आईआर) बटालियन की मंजूरी देना, काउंटर इनसर्जेंसी एंड एंटी-टेररिज़्म (सीआईएटी) स्कूलों की स्थापना करना, राज्यों की पुलिस और उनकी खुफिया तंत्र का आधुनिकीकरण, सुरक्षा संबंधी खर्चों की भरपाई करना, वामपंथी उग्रवाद के विरोध में कार्रवाइयों के लिए हेलिकॉप्टर उपलब्ध कराना, रक्षा मंत्रालय और पुलिस संगठनों के जरिए राज्य पुलिस के प्रशिक्षण में सहायता करना, खुफिया सूचनाओं का आदान-प्रदान करना, राज्यों के बीच तालमेल बनाने में मदद करना. इस सबका मूल उद्देश्य माओवादी संकट का एकजुट होकर सामना करने में राज्य सरकारों की क्षमता में बढ़ोतरी करना है.

मैं बेहिचक कह सकता हूं कि यह रणनीति बिलकुल पक्की है. तब फिर समस्या क्या है? समस्या है— एक अकुशल और भ्रष्ट राजनीतिक तथा प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा इसे लागू करने में कोताही. कुशल सुरक्षा व्यवस्था की कमी और खराब सड़कों के कारण बड़ा इलाका पहुंच से दूर रहता है. विकास की कमी सुरक्षा के लिए भारी पड़ती है.

यहां तक कि काफी हद तक सुरक्षित क्षेत्रों में भी जमीनी स्तर पर लोगों के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए शायद ही कुछ किया गया है. सरकार की गैरहाजिरी के कारण लोगों के पास माओवादियों द्वारा चलाए जा रहे प्रशासन की शरण में जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता. जनजातीय इलाकों के लिए राजनीतिक सशक्तिकरण की स्वायत्त व्यवस्था बनाना बेहद जरूरी है. हमारे सामने नागाओं का उदाहरण है, जिन्हें विशिष्ट राजनीतिक अधिकार हासिल हैं.

बावजूद इसके कि इस विद्रोह का चरित्र अलगाववादी नहीं है, माओवादियों से बातचीत करने की बहुत कम कोशिश की गई है. सशस्त्र संघर्षों में ताकत का खेल हावी रहा है. हमारे सामने माओवादियों के मूल संगठनों का उदाहरण मौजूद है.

हम नागा, मिज़ो और हुर्रियत जैसे अलगाववादियों से बातें कर चुके हैं. तो मुझे समझ में नहीं आता कि केंद्र या राज्य सरकारें माओवादियों से क्यों नहीं बात कर सकतीं. कमजोर दिखने के डर से हमें राजनीतिक उदारता दिखाने से परहेज नहीं करना चाहिए.


यह भी पढ़ें: UPA से लेकर NDA तक, भारत अभी तक नहीं समझ सका कि नक्सलियों की बगावत से कैसे निपटा जाए


सुरक्षा रणनीति में खामी

प्रायः कहा जाता है कि जम्मू-कश्मीर में गलत राजनीतिक रणनीति ने कुशलता से लागू की गई सुरक्षा/सैन्य रणनीति को बेअसर कर दिया. ‘लाल गलियारे’ में एक मुकम्मल राजनीतिक रणनीति खामी भरी सुरक्षा रणनीति के चलते लागू नहीं की जा सकती.

जंगल के विस्तृत क्षेत्र में सरकार की कुछ नहीं चलती. जम्मू-कश्मीर में 62, राष्ट्रीय राइफल्स बटालियनों ने सरकार के आदेश को लागू करने और आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयां करने के लिए ‘कंपनी ऑपरेटिंग बेसेज’ का जाल तैयार किया था. माओवादी विद्रोह के खिलाफ एक ग्रिड बनाए बिना, जिसमें 30 मिनट के अंदर कार्रवाई करने की तैयारी हो, सरकार का आदेश लाल गलियारे में चल नहीं सकेगा.

भारत में विद्रोह से निपटने की मुख्य ज़िम्मेदारी केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) को दी गई है. लेकिन यह संगठन इस चुनौती से निपटने में मानसिक और शारीरिक रूप से सक्षम नहीं साबित हुआ है. राज्यों की पुलिस के बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर है. राष्ट्रवाद के, जिसके साथ राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा गहरे जुड़ा है, तमाम शोर के बावजूद सुधारों को शुरू करने के लिए नीतिगत आकलन करने से कतरा कर निकल जाना हमारी संस्कृति रही है.

सरकार हो या सुरक्षा संगठन, जवाबदेही तय करने में कोताही के कारण समस्या और गंभीर हुई है. मौतों को खराब प्रशिक्षण के कारण आत्मघाती चूकों का नतीजा न बताकर ‘सर्वोच्च बलिदान’ से जोड़ दिया जाता है. और किसी को सजा नहीं मिलती, चूक जितनी बड़ी होती है, महिमामंडन उतना बड़ा होता है.

सभी मीडिया रिपोर्टों, घटना में बचे लोगों के बयानों और यूट्यूब पर माओवादियों के वीडियो भी प्रशिक्षण और सामरिक चालों में खामियों को उजागर करते हैं. छत्तीसगढ़ में ताजा नरसंहार से भी यही उजागर हुआ है—

. टास्क फोर्स को उतारने से पहले न तो ‘कोबरा’ गश्त की गई, न यह जांचने के लिए यूएवी का इस्तेमाल किया गया कि जो सूचना मिली है वह कोई जाल बिछाने की चाल तो नहीं थी. कोबरा गश्त से माओवादियों का पता चल जाता और उनका पीछा करते हुए सूचनाएं भेजी जा सकती थीं.

. फोर्स की बड़ी संख्या (1,700-2,000) के कारण उन्हें चौंकाना मुश्किल हो गया.

. टास्क फोर्स आगे-पीछे, अगल-बगल सुरक्षा गश्त के बिना आगे बढ़ने लगे. 405 जवानों का टास्क फोर्स मारक क्षेत्र में चला जाए यह तर्कपूर्ण बात नहीं लगती.

. छोटे-छोटे दलों या कंपनी आकार के टास्क फोर्स बनाकर चलने में अक्षमता. कौशल की कमी को संख्याबल से पूरा करने की कोशिश.

. घिर गई फोर्स या रिजर्व/दूसरे टास्क फोर्स की ओर से जवाबी कार्रवाई नहीं की गई, जबकि वे पास में ही थे. संपर्क तोड़कर भागने की प्रवृत्ति.

. 8-10 किलोमीटर चलने के बाद जवान थक गए थे और उनकी शारीरिक हालत खराब थी.

. टास्क फोर्स सड़क/ पगडंडी से आगे बढ़ी, जिसका पता चल गया.

. कार्रवाई में मारे गए और घायल हुए लोगों के शवों को लावारिस छोड़ दिया गया, जिससे फोर्स के गिरे हुए मनोबल, टीम की एकता में कमी उजागर हुई. कुछ जवान तो अपने हथियार भी छोड़कर भाग गए.

. जवाबदेही तय करने के लिए जांच करने की जगह ऊपर वालों ने कार्रवाई को लगभग सटीक बता दिया और सुधारों का रास्ता बंद कर दिया.

सीआरपीएफ और राज्य पुलिस को खुद को दुरुस्त करना पड़ेगा. उनका प्रशिक्षण और उनकी सामरिक चालें माओवादियों से बेहतर होनी चाहिए. इससे भी ज्यादा, उनके नेतृत्व में भारी फेरबदल की जरूरत है.

विद्रोह विरोधी कार्रवाई में संख्याबल से ज्यादा कौशल की जरूरत होती है. लाल गलियारे के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विद्रोह विरोधी कंपनी ग्रिड के ऑपरेटिंग बेस की जरूरत है. अगर ये सारे सुधार नहीं किए जाते, तो सटीक राजनीतिक स्ट्रेटेजी भी खामियों से भरी सुरक्षा के कारण सिफर साबित होगी.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: तख्तापलट के खिलाफ प्रदर्शन दिखाता है कि म्यांमार की सेना पहले की तरह जनता को डरा नहीं सकती


 

share & View comments