दत्ता-रे की किताब ‘स्मैश ऐंड ग्रैब: एनेक्सेशन ऑफ सिक्किम’ ने तो काज़ी लेंडुप दोरजी को विश्वासघाती ‘ब्रूटस’ के रूप में पेश किया है, जो सिक्किम के चोग्याल को धोखा देकर नए राज्य के मुख्यमंत्री बन बैठे थे, लेकिन जी.बी.एस. सिद्धू की किताब ‘सिक्किम: डॉन ऑफ डेमोक्रेसी’ ने उन्हें इससे उलटे रूप में प्रस्तुत किया है.
वास्तव में, सिद्धू ने अपनी किताब की भूमिका में साफ लिखा है कि यह किताब लिखने का एक कारण यह है कि वे सिक्किम में लोकतंत्र बहाली के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले दोरजी को सम्मान का दर्जा देना चाहते हैं. दोरजी को कलिमपोंग में वर्षों तक राजनीतिक बियाबान में रहना पड़ा था. मैं उनसे वहां के एसडीओ के रूप में और फिर हिमल मिल्क प्रोजेक्ट के सीईओ के रूप में मिला था. 2002 में उन्हें भारत के दूसरे सबसे ऊंचे सम्मान ‘पद्मविभूषण’ से और 2004 में ‘सिक्किम रत्न’ सम्मान से सम्मानित किया गया.
सिद्धू ऊंची पहुंच रखने वाले आईपीएस अधिकारी थे. जब वे 1973 में गंतोक में ‘रॉ’ के प्रमुख के रूप में तैनात किए गए थे तब इंदिरा गांधी सरकार में विदेश मंत्री रहे स्वर्ण सिंह के दामाद थे. सिद्धू ने पाया कि विदेश नीति के मामले में इंदिरा गांधी का रुख उनके पिता से काफी अलग तरह का था. उस समय तक विदेश नीति और खुफिया मामलों में जवाहरलाल नेहरू के प्रमुख सलाहकार टी.एन. कौल और बी.एन. मलिक की जगह केवल सिंह और आर.एन. काव ने ले ली थी. ये दोनों रणनीतिक खेल के महारथी थे. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू था इंदिरा गांधी का दबंग व्यक्तित्व.
1971 की जंग में भारत की निर्णायक जीत ने दक्षिण एशिया का नक्शा ही बदल दिया, जब कि इंदिरा गांधी भारत को एक दबंग क्षेत्रीय ताकत के रूप में स्थापित करने का दृढ़ संकल्प ले चुकी थीं. भूटान को संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता दिए जाने ने इंदिरा गांधी को हैरत में डाल दिया, तो विदेश विभाग को उनसे काफी फटकार सुननी पड़ी क्योंकि भारत से इस बारे में सलाह तक नहीं ली गई थी. सिद्धू ने नेपाली आबादी के प्रति चोग्याल की चिढ़ को रेखांकित किया है. उस समय तक सिक्किम की आबादी में नेपालियों का अनुपात 75 फीसदी तक पहुंच गया था लेकिन चोग्याल उन्हें बाहारी मानते थे. सिक्किम के मूल निवासी होने के भूटियों और लेप्चों के दावे का वे जितना समर्थन करते थे, बहुसंख्यक समुदाय में चोग्याल विरोधी भावना उतनी ही तीखी होती जाती थी.
बी.एस. दास ने भी अपनी किताब ‘द सिक्किम सागा’ (1984) में इसी मुद्दे पर ज़ोर दिया है. सिक्किम में उथलपुथल के दौरान दास सिक्किम के एडमिनिस्ट्रेटर थे और सिद्धू भी उस समय सिक्किम में मौजूद थे. दास के मुताबिक, चोग्याल ने वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की ओर परिवर्तन और विधानसभा में नेपाली बहुमत को शांतिपूर्वक कबूल कर लिया होता और 1973 में सिक्किम को भारत के एक संबद्ध राज्य का दर्जा दिए जाने और इसके संवैधानिक प्रमुख के पद को स्वीकार कर लिया होता तो गाड़ी को झटका नहीं लगता. लेकिन दास यह भी कबूल करते हैं कि भारत सरकार की एजेंसियों के बीच जमीनी स्तर पर तालमेल की कमी थी.
एक और किताब थी स्कॉट्समैन एंड्रयू डफ़ की ‘सिक्किम: रिक्वायम फॉर ए हिमालयन किंग्डम’ (2015). डफ़ के दादा ने एक सदी पहले सिक्किम में हिमालय की यात्रा की थी, और डफ़ उसी यात्रा के सूत्र खोजने की कोशिश की. उन्हें गंतोक के पाल्जोर नामग्याल गर्ल्स स्कूल की स्कॉटिश हेडमिस्ट्रेसों द्वारा हर सप्ताह लिखे गए पत्र उपलब्ध थे. मार्था हैमिल्टन और इसाबेल रिची जर्नल में लिखती रहती थीं और स्कॉटलैंड में अपने परिवार को भी नियमित पत्र लिखती थीं. ये पत्र और जर्नल 1959 से 1975 के बीच गंतोक में हुई घटनाओं का आंखो देखा हाल बताते हैं, जिनमें होप कूक के साथ चोग्याल की परिकथाओं वाला वैवाहिक समारोह भी शामिल है.
संदर्भ बेशक मुख्यतः शाही महल का है, क्योंकि मिशनरियों को अक्सर राजपरिवार के साथ भोजन के लिए आमंत्रित किया जाता था, और कुछ राज भी साझा किए जाते थे. लेकिन डफ़ के प्रति निष्पक्षता बरतते हुए कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी कहानी में दूसरे अहम किरदारों के विचार भी प्रस्तुत किए हैं, जिनमें काज़ी साहब भी शामिल हैं. 2016 में कोलकाता में हुए साहित्य उत्सव में मैंने डफ़ से बात की थी. उनकी किताब का ज़ोर राजनीति पर नहीं है लेकिन उसके पन्नों पर बड़ी घटनाओं को जगह दी गई है.
भारत का 22वां राज्य
राजदूत प्रीत मोहन सिंह के, जिन्हें 1960 के दशक में सिक्किम में तैनात किया गया था, संस्मरणों की किताब ‘सिक्किम : अ हिस्टरी ऑफ इंट्रीग ऐंड अलायंस’ 2021 में आई. वे इतिहास में गहराई तक गए हैं. ऐतिहासिक तर्कों में उनकी गहरी दिलचस्पी दिखती है. किताब में अध्यायों की सूची से पहले वे चीन में तैनात रहे राजदूत, प्रोफेसर के.एम. पणिक्कर का यह उद्धरण प्रकाशित किया है : “कोई राष्ट्र अपने भूगोल की उपेक्षा करेगा तो आफत ही मोल लेगा”.
इस किताब में इस मान्यता को आगे बढ़ाया गया है कि नेहरू के राज में भारत ने अपने ‘भूगोल’ की उपेक्षा की. लेकिन देखा जाए तो पणिक्कर पर भी यह आरोप लगाया जा सकता है कि उन्होंने गैर-हान राष्ट्रीयताओं के मामले में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की ‘साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं’ को ‘क्लीन चिट’ दे दी थी. वास्तव में नेहरू की चीन नीति विदेश विभाग के सेक्रेटरी जनरल गिरिजा शंकर वाजपेयी के दावों; पणिक्कर द्वारा भेजी गई रिपोर्टों पर आधारित थी, पणिक्कर कई मायने में हमसफर भी थे.
किताब के 18 अध्याय तीन हिस्सों में बंटे हैं: ब्रिटेन, तिब्बत, और सिक्किम. ब्रिटेन, और तिब्बत के साथ उसके विश्वासघातों; और भारत, तिब्बत, और सिक्किम में. सिक्किम भारत का 22वां राज्य कैसे बना इसकी कहानी के साथ मलिक ने इस पूर्व रियासत के अनूठे इतिहास के साथ विश्लेषण को भी जोड़ा है. उन्होंने सिक्किम के मूल निवासी लेप्चों (रोंगपा) और भूटियों के प्रायः बोझिल रिश्ते की पड़ताल की है. तिब्बती मूल के भूटियोंने धर्म और शासन के संस्थानों की स्थापना की और नामग्याल राजवंश की स्थापना की, जिसने तब तक इस पर राज किया जब तक कि यह भारत का हिस्सा नहीं बन गया. उन्होंने इन दोनों समुदायों और नेपाली प्रवासियों के बीच टकराव की भी पड़ताल की है. अंततः नेपाली ही बहुमत में आ जाते हैं.
अंत में, सिक्किम के ही बिराज अधिकारी की किताब ‘सिक्किम: द वुंड्स ऑफ हिस्टरी’ (2010) भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. जैसा कि उनके नाम से जाहिर है, अधिकारी नेपाली मूल के सिक्किमी हैं. वे स्कूल में पढ़ रहे थे जब उन्हें नया राष्ट्रगान सीखना और नये झंडे को सलाम करना पड़ा था. उन्होंने सिक्किम के ‘विलय’ के बारे में सार्वजनिक रूप बात करने की दुविधा के बारे में लिखा है कि किस तरह इसे आपसी बातचीत में ‘कब्जा’ कहा जाता था. अधिकारी चोग्याल का पक्ष भी नहीं लेते हैं, वे बताते हैं कि चोग्याल संप्रभुता की तमाम बातें तो करते थे लेकिन अपने लिए हमेशा उन्होंने भारतीय पासपोर्ट रखा.
अधिकारी ने 1956 में चोग्याल के नई दिल्ली दौरे को ‘राजकीय दौरा’ बताने और उनके स्वागत समारोह पर सिक्किम का राष्ट्रगान बजाने के लिए भारतीय विदेश मंत्रालय को दोषी ठहराया है. उनकी किताब उनकी पीढ़ी की कई दुविधाओं का जिक्र करती है: क्या सिक्किमी लोग पूर्ण भारतीय नागरिक हैं, खासकर अनुच्छेद 371-एफ के मद्देनजर?
सिक्किम के लोगों को भारतीय नागरिकता के तहत बेशक सभी अधिकार हासिल हैं लेकिन सिक्किम में रह रहे भारतीय लोगों का क्या? उन्हें उन कई अधिकारों से वंचित किया गया है जो सिक्किम राज्य के नागरिकों को हासिल हैं, मसलन शिक्षा, रोजगार और भूमि संबंधी विशेष अधिकार और आयकर से छूट. सिक्किम की आर्थिक वृद्धि दर का आंकड़ा जबकि दहाई अंकों में रहता आ रहा है, यह कई गैर-सिक्किमियों को निश्चित ही आकर्षित करेगा. इस वजह से जनसंख्या के स्वरूप में ऐसा बड़ा परिवर्तन आ सकता है जैसा 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में आया था. अगर जनसंख्या का स्वरूप ही भविष्य तय करता है, तब सिक्किम राज्य का नागरिक होने के नाते जो लोग विशेषाधिकारों का उपभोग कर रहे हैं वे देश के बाकी लोगों को भी ये विशेषाधिकार दिए जाने का विरोध कर सकते हैं.
अधिकारी ने सिक्किम की लोकतांत्रिक राजनीति में दांव आजमाने की कोशिश की थी मगर चुनावों में हमेशा दूसरे नंबर पर रहे. लेकिन सिक्किम की राजनीति में वे हमेशा प्रभावशाली रहे. वे सिक्किम नेशनल कांग्रेस, सिक्किम नेशनल पीपुल्स पार्टी, और हामरो सिक्किम से जुड़े रहे. उन्हें उम्मीद है कि जनसंख्या के बदलते स्वरूप को लेकर इस राज्य के कई लोगों के मन में जो जायज चिंताएं हैं वे दूर होंगी.
उम्मीद है कि यह अतिरिक्त लेख हमें न केवल इस मामले के तथ्यों की बल्कि अतीत की घटनाओं के बारे में हमारी समझ को प्रभावित करने वाले तमाम दृष्टिकोणों के बारे में भी एक गहरी समझ देगा. कहा ही गया है कि इतिहास हमेशा बनता रहता है.
संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के महोत्सव निदेशक हैं. हाल तक, वह लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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