कांग्रेस शिद्दत से सोच रही है कि अशोक गहलोत को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त करके राजस्थान को सचिन पायलट के हवाले किया जाए. लेकिन गहलोत अपनी इस प्रोन्नति के लिए तैयार नहीं हैं. पार्टी में एक धारणा यह भी है कि सोनिया गांधी बेटे राहुल को पार्टी का औपचारिक नेतृत्व करते देखना चाहेंगी. इस ऊहापोह और अनिश्चितता के बीच किसी तरह के अहम बदलाव, अच्छे या बुरे, से कांग्रेस पार्टी के दिन बहुरने वाले नहीं है, उसे तो यह समझने के गंभीर कोशिश करनी चाहिए कि सत्तरूढ़ बीजेपी के क्या मंसूबे हैं.
कांग्रेस भीषण युद्ध के मोर्चे पर है, लेकिन वह मानो नौसेना के हथियारों से बचाव कर रही है, जबकि उस पर भारी हवाई हमले हो रहे हैं.
आठ साल से कांग्रेस सत्ता से बाहर है, लेकिन पार्टी अभी भी बीजेपी की समझ को भांप नहीं पाई है. किसी वरिष्ठ कांग्रेस नेता से पूछिए कि विपक्ष के दायरे समेत मौजूदा राजनीति की बीजेपी की समझ क्या है? उनका अमूमन जवाब नारेबाजी, चिढ़ और अहंकार भरा होता है कि बीजेपी के नेता और उसके समर्थक सांप्रदायिक, अनपढ़ और गंवार हैं.
राहुल गांधी सहित कांग्रेस नेताओं के ट्वीट और बयानों के गंभीर अध्ययन से उनके दिमाग का एक अंदाजा मिलता है कि वे ‘क्षुद्र सांप्रदायिक और औसत बुद्धि वाली बीजेपी’ से ज्यादा कुछ नहीं सोचते. यह अहंकारी रवैया उन्हें पार्टी के भीतरी और बाहरी चुनौतियों के मसलों के समाधान के आसपास भी नहीं पहुंचा पाएगा.
कांग्रेस में सिर्फ इसी मुद्दे पर स्पष्ट सोच नहीं है कि राहुल गांधी अध्यक्ष बनें या कोई परिवार से इतर नेता बने या फिर आंतरिक चुनाव हों. हर मामले में अदूरंदेशी साफ दिखती है. मसलन, क्या राजस्थान सचिन पायलट को सौंप देना चाहिए, पार्टी की शक्ल कैसी हो, उसे कैसा दिखना चाहिए और कौन-से मुद्दे उसे उठाना चाहिए?
अब कांग्रेस की राह बीजेपी तय कर रही
पिछले दशक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के तहत बीजेपी बड़े करीने से अपनी ऊर्जा यह प्रचारित करने में खर्च कर रही है कि कांग्रेस का शासन कोरा भ्रष्ट था, और पार्टी सिर्फ परिवारवाद के सहारे टिकी हुई है, और सोनिया गांधी की अगुआई में कांग्रेस मुसलमानों के तुष्टीकरण की नीति पर चल रही थी. हालांकि बीजेपी सहित सभी पार्टियां भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के मुद्दों का सामना कर रही हैं, मगर आरोप कांग्रेस पर ज्यादा चिपकते हैं.
सोनिया गांधी ने 2018 में अपने मुंबई के भाषण में स्वीकार किया था कि ‘बीजेपी लोगों को यह बताने में कामयाब हो गई है कि हम मुस्लिम पार्टी हैं.’ उन्होंने आगे कहा कि पार्टी बीजेपी की इस ब्रांडिंग की वजह से ‘किनारे ठेल दी गई है.’ अगर उनके स्वीकारनामे को एक और कोण से देखें, तो उससे कांग्रेस के वजन का पता चलता है. पार्टी कभी भी बीजेपी के राडार से अलग नहीं हो पाई. इसी के साथ, बीजेपी ने राष्ट्र, आतंकवाद और सुरक्षा के मुद्दों पर अपने इरादे ठोस रखे हैं.
कांग्रेस का गरिमामय इतिहास, गांधी-नेहरू-पटेल की विरासत, और देश भर में ब्रांड की पहचान तथा मौजूदगी उसके सत्ता से बाहर रहने और पतन के दौर के बावजूद लंबे समय तक टिके रहने के लिए बेहद काफी है. नई चुनौती मानी जाने वाली आम आदमी पार्टी के पास ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन वह पंजाब में कांग्रेस को हराने में कामयाब रही, क्योंकि लोग असमंजस और अनिश्चितता पसंद नहीं करते.
अगर राष्ट्रीय स्तर पर लोग बीजेपी के खिलाफ ‘वोट’ करते हैं तो उससे मुफ्त में कांग्रेस को बढ़त हासिल होगी और वह बड़ी होगी. कोई भी पार्टी कांग्रेस जितनी सीटों पर बीजेपी से सीधे मुकाबले में नहीं है. इसी वजह से अमित शाह अपने पार्टी काडर से कहते हैं कि ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ कोई बड़बोली रणनीति नहीं है.
हालांकि कांग्रेस की हालत विपक्ष के हलके में भी कमजोर है, यह बात बीजेपी बखूबी समझती है.
कांग्रेस 5 अगस्त को जब कीमतों में बढ़ोतरी और महंगाई के खिलाफ सडक़ों पर उतरी तो खूद अमित शाह को कांग्रेस के खिलाफ बयान जारी करना पड़ा. उन्होंने बेहद चालाकी से प्रदर्शन को मोड़ देने की कोशिश की, और कहा कि कांग्रेस नेताओं ने ‘तुष्टीकरण’ राजनीति के तहत काले कपड़े पहने, ताकि आज के दिन 2020 में अयोध्या में पीएम मोदी के राम मंदिर की नींव रखने का विरोध किया जा सके. उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस का असली दर्द श्री राम मंदिर का बनना है.’ उन्होंने यह अनकहा छोड़ दिया कि आज के ही दिन अनुच्छेद 370 को भी बेमानी बना दिया गया था. जाहिर है, कांग्रेस खीझ से भर उठी और तीखा जवाब दिया लेकिन शाह के लक्षित समूह को कुछ नहीं कहा. इसकी एक वजह कई वर्षों तक सत्ता में रहने का हैंगओवर है तो दूसरी वजह आला नेतृत्व में उस शैली पर दो मत है कि बीजेपी से कैसे पार्टी को भिडऩा चाहिए और लोगों से केसे जुडऩा है, जिसमें मोदी वोटर भी शामिल हैं.
जैसा कि पार्टी के एक संजीदा जानकार कहते हैं, ‘कांग्रेस को हिंदू बनाना है या नहीं, यह पार्टी में किसीको पता नहीं.’ वह अपनी पहचान को लेकर असमंजस में है.
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‘हिंदू मतलब बीजेपी.’
यह शीशे की तरह साफ है कि बीजेपी का पूरा फोकस यही देखने पर है कि कांग्रेस उसके हिंदुत्व के एजेंडे के करीब आने में कामयाब न हो, जिस पर वह अपना एकाधिकार कायम करने की कोशिश कर रही है. बीजेपी की राजनीति के कई पहलू हैं, कुछ नकारात्मक भी, लेकिन पार्टी अपने मकसद को ध्यान में रखती है. यह ऐसे देश में हो रहा है, जहां 80 फीसदी लोग हिंदू हैं.
पीएम मोदी की अनोखी कामयाबी का आधार यही है कि वे उन सभी मुद्दों को पहचानने और अपनाने में कोई गलती नहीं करते, जो दक्षिणपंथी हिंदू समाज को बहुत पसंद है. अपने आधार को मजबूत करने के लिए बीजेपी ने कांग्रेस को हाशिए पर रखने के लिए बाटला हाउस मुठभेड़ और आंदोलनरत छात्रों के समर्थन में राहुल गांधी के जेएनयू दौरे जैसे मुद्दे चुने, जिसे बीजेपी ने ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ करार दिया था.
मोदी का विकास एजेंडा, उनकी कूटनीति और अपना पर्सनाल्टी कल्ट खड़ा करना, कुछ भी बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडे को चोट नहीं पहुंचाता. पार्टी ऐसा भ्रम पैदा करना चाहती है कि ‘हिंदू का मतलब बीजेपी’ है.
कांग्रेस रूपी पहेली
बीजेपी लगातार ऐसे मुद्दे उठा रही है, जो कांग्रेस को इमरजेंसी के पहले के दौर (1966-1974) की इंदिरा गांधी वाली ताकतवर पार्टी बनने से रोकें. इंदिरा का ‘भारत की अखंडता और एकता’ जैसे मुद्दों पर एकाधिकार था. बीजेपी ने सिर्फ कांग्रेस के सरदार पटेल की विरासत को ही आत्मसात नहीं कर लिया है, बल्कि इंदिरा गांधी के राजकाज की शैली को अपना लिया है.
ऐसा नहीं है कि इस खेल को समझने की कांग्रेस में समझ नहीं है. लेकिन उसकी एक दिक्कत ऊपरी हलके में मतभेद है. राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खडग़े, सिद्धरमैया, के. राजू और अन्य कई वफादार कांग्रेस को बीजेपी के विपरीत ध्रुव पर ले जाने को संकल्पबद्ध हैं. उधर, प्रियंका गांधी, अशोक गहलोत, रणदीप सुरजेवाला, दिग्विजय सिंह और भूपेश बघेल बीजेपी के खेल को समझ रहे हैं.
मई में उदयपुर चिंतन शिविर में बघेल ने अपने साथियों से पूछा, ‘हम रामनवमी और दिवाली भी मनाते है. क्यों बीजेपी को उस पर अपना दावा ठोंकने दिया जाए?’
2019 में बीजेपी ने 303 सीटें, 37.4 फीसदी वोट हासिल किए, जो कांग्रेस की वोट हिस्सेदारी से लगभग दोगुनी थी. कांग्रेस की 19.5 फीसदी वोट हिस्सेदारी के साथ गिरावट तीखी है. कांग्रेस के लिए ये आंकड़े बेमानी हैं, लेकिन मोदी की लहर में भी 55 फीसदी वोट एनडीए के खिलाफ था. बीजेपी ने इस हकीकत को सोच-विचार कर स्वीकार किया.
‘सेकूलर-उदार’ तबकों का बड़ा ब्लॉक है, फिर विभिन्न गैर-हिंदू धार्मिक अल्पसंख्यक, प्रांतीय गैर-हिंदू समुदाय और परंपरागत आरएसएस परिवार विरोधी वोट हैं, जिन पर ध्यान केंद्रीत करना चाहिए. लेकिन कांग्रेस तो बीजेपी के सेट किए एजेंडे में उलझी है.
आनंद शर्मा जैसे एक और नेता के पद से इस्तीफे से जाहिर है कि कांग्रेस की 2024 के आम चुनावों के पहले बीजेपी से मुकाबले की तैयारी में काफी कमियां हैं. नारेबाजी से इतर आला नेतृत्व को बीजेपी की राजनीति को बेहतर समझने की दरकार है, लेकिन वैसा कुछ नहीं दिखता.
(शीला भट्ट दिल्ली की वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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