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Thursday, 25 April, 2024
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BJP नहीं, उससे पहले तो लोहिया जैसे समाजवादियों ने ही नेहरू को खारिज कर दिया था

नब्बे के दशक में नेहरू-निंदा काफी चलन में रही, खासकर वामपंथी वर्चस्व वाली शैक्षिक-सांस्कृतिक दुनिया में. मुझे यह इसलिए मालूम है कि मुझे उन शिक्षकों ने पढ़ाया, जो नेहरू के शहरीपन, तर्कवाद, और धर्मनिरपेक्षता को खतरनाक रूप से ‘अ-भारतीय’ बताकर एक सिरे से खारिज करते थे .

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जवाहरलाल नेहरू का नाम लेना आज संस्कृति विरोधी बात मानी जाने लगी है. भारत की आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ के तमाम सरकारी आयोजनों से उन्हें लुप्त कर दिया गया है और वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य से भी उन्हें मिटा दिया गाय है. और ऐसा लगता है कि नेहरू से संबंध विच्छेद के प्रचलित अनुष्ठान में पूरा भारत ही शरीक हो गया है. इस आक्रामक मुहिम में सच और झूठ की पराकाष्ठा दिख रही है.

झूठ साफ उजागर है लेकिन यह दोहराना जरूरी है कि स्वतंत्र भारत की पहचान बनाने वाले संस्थापक और भारत के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे नेता के नाम को इस तरह मूर्खतापूर्ण तरीके से मिटाने के विरोध में प्रतिक्रिया उसी तरह उभरेगी, जिस तरह गेंद को जितनी ज़ोर से पटका जाता है वह उतनी ही तेजी से उछलती है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि बीबीसी ने 1953 में नेहरू के पहले टीवी इंटरव्यू को जब भारत के 75वें स्वतंत्रता दिवस पर पुनः प्रसारित किया तो वह सभी प्लेटफॉर्म पर वाइरल हो गया.

नेहरू का सरकारी स्तर पर जो बहिष्कार किया गया है वह इस राजनीतिक सच को उजागर करता है कि भाजपा उनके विचारों, उनके सपनों, और उनकी ऐतिहासिक विरासत की विरोधी है. ऐसा करते हुए वह अपनी वैचारिक निरंतरता को पुनर्स्थापित कर रही है, और ऐसा वह नेहरू के जमाने से ही करती आ रही है. भाजपा के पूर्ववर्ती जनसंघ की स्थापना 1951 में की गई थी और इसका मुख्य मकसद देश के लिए नेहरू के सरकार-केंद्रित आर्थिक कार्यक्रम का विरोध करना था.

करीब एक दशक पहले प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करते हुए नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में नेहरू और उनके ‘विकास मॉडल’ पर हमले करते रहे थे. आज मोदी के जुमलों में अगर तथाकथित ‘रेवड़ी संस्कृति’ का मुहावरा शामिल हो गया है, तो करीब दस साल पहले ‘नीचे से विकास’ का जुमला उनकी जबान पर था. जो भी हो, मकसद आर्थिक स्वावलंबन और सरकार की ओर से वितरण को लेकर नेहरू के विचारों को बदनाम और खंडित करना है, लेकिन आज धर्मनिरपेक्षता की जो स्थिति है उस पर चुप्पी साधे रखना है.

नेहरू को खारिज समाजवादियों ने भी किया

नेहरू को खारिज करने की कोशिश करने वालों में भाजपा न तो पहली है और न एकमात्र. सबसे पहले यह कोशिश तमाम रंग के समाजवाद की ओर से की गई. यह राजनीतिक विरासत आज भी भारत में काफी वैचारिक और राजनीतिक घालमेल पैदा कर रही है. ‘आम आदमी’ मुहावरे के आविष्कारक राम मनोहर लोहिया नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल के पहले दशक में नेहरू विरोधी राजनीतिक संस्कृति की धुरी थे. नेहरू और उनकी पार्टी को उनके तथाकथित कुलीन तथा अंग्रेजी तौर-तरीकों के लिए निशाना बनाया गया. इसी दौरान पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की खोज की गई और जैसा कि सर्वविदित है, लोहिया उस मंडलवादी राजनीति के वैचारिक प्रेरणा स्रोत बने जिसने नेहरू के बाद कई दशकों तक भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप निर्धारित किया.

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नब्बे के दशक के गठबंधनवादी दौर में नेहरू-निंदा काफी चलन में रही, खासकर वामपंथी वर्चस्व वाली शैक्षिक-सांस्कृतिक दुनिया में. मुझे यह इसलिए मालूम है कि मुझे उन शिक्षकों ने पढ़ाया, जो नेहरू के शहरीपन, तर्कवाद, और धर्मनिरपेक्षता को खतरनाक रूप से ‘अ-भारतीय’ बताकर एक सिरे से खारिज करते थे. इस तरह की आलोचना राम जन्मभूमि आंदोलन के चरम दौर में विश्वविद्यालयी शिक्षा का लब्बोलुआब होता था, जो शिक्षा जगत और ठोस राजनीति के बीच की खाई को दर्शाता था. यह खाई आगे और चौड़ी ही होने वाली थी.

आज, दिल को छू लेने वाली बात यह है कि वही लेखक और पूर्व शिक्षक नेहरू और उनके भारत की पैरोकारी कर रहे हैं. यह पश्चाताप है या अवसरवाद, इस सवाल का जवाब ही उन लोगों की उस वैचारिक उलझन का मूल तत्व है, जो हिंदुत्ववादी राजनीति के विरोध की राजनीतिक उद्यमशीलता की पहचान बन गई है. फिर भी, समाजवादी हलके ने नेहरू को 50 वर्षों तक जिस तरह खारिज किया उसने सांस्कृतिक विविधता और धर्मनिरपेक्षता को जो राजनीतिक ताकत और गति मिलनी चाहिए थी उससे उसे वंचित करके जर्जर कर दिया.

इसी तरह, लोहिया ने पिछड़ावाद को जिस तरह भारतीय लोकतंत्र का प्रमुख राजनीतिक विषय बनाने का प्रयास किया वह उस पर हावी हो गया और बेहद प्रबल बन गया. इस प्रयास में समाजवादी आस्था का 1990 के दशक में बेशक पुष्टीकरण हुआ, जब ओबीसी दलों ने भाजपा को राजनीतिक वर्चस्व से वंचित कर दिया. लेकिन आज हिंदुत्ववादी जब पिछड़ों को रिझा रहे हैं और वे उनके खेमे में एकजुट हो रहे हैं तब यही साबित हो रहा है कि वह शुरुआती मान्यता और जीत महंगी ही साबित हुई. पीछे मुड़कर देखें तो लगेगा कि वह एक रोमानी या ज्यादा-से-ज्यादा स्वार्थपरक कल्पना ही थी कि सिर्फ मंडलवादी राजनीति ही हिंदुत्व की बहुसंख्यकवादी राजनीति को रोकने के लिए काफी है.


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नेहरू : तब और अब

शुरुआत तो इस तरह हुई कि लोहिया ने नेहरू के अंग्रेजी तौर-तरीकों की काफी बढ़-चढ़कर आलोचना की और बाद में उनके अनुयायियों ने नेहरू को अ-भारतीय ही घोषित कर दिया. लेकिन सच यह है कि नेहरू ने तथाकथित आम आदमी से अपनी दूरी के लगभग असहनीय एहसास के कारण ही राजनीति में कदम रखा था. नेहरू की आत्मकथा इसकी पुष्टि करती है. वे कबूल करते हैं कि अगर महात्मा गांधी भारत की ‘आत्मा’ थे, तो नेहरू ने खुद को उस आत्मा के शरीर और वाहक के रूप में जानबूझकर ढाला था.

आज, उनके दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था के ‘बुरे’ युग पर तंज़ कसने के लिए ‘नेहरूवादी समाजवाद’ को एक कटाक्ष के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है और यह आलसी टीका-टिप्पणी और ‘साउंड बाइट’ का आम जुमला बन गया है. मार्के की बात यह है कि नेहरू के समाजवाद को लोहिया के चतुर राजनीतिक कटाक्षों ने नहीं बल्कि कांग्रेस के दिग्गजों ने घातक चोट पहुंचाई, जो कहीं ज्यादा रूढ़िवादी और प्रभावी थे.

नेहरू ने दो बड़े सुधार लागू करने की कोशिश की थी— हिंदू कोड बिल और जमींदारी उन्मूलन कानून. हिंदू कोड बिल को तो महिलाओं को संपत्ति और बेहतर वैवाहिक अधिकार दिलाने की बाबासाहब आंबेडकर की मांग ने कुंठित कर दिया. दोनों सुधारों को पुरुषोत्तम दास टंडन, राजेंद्र प्रसाद, गोविंद बल्लभ पंत सरीखे राजनीतिक दिग्गजों ने नाकाम और निरस्त करवा दिया. यह भीतरिया कारनामा था. 1950 के दशक को भारत में रूढ़िवाद के उत्कर्ष का काल कहा जा सकता है, जिसमें प्रथम प्रधानमंत्री की अपनी ही पार्टी के सदस्यों ने उन्हें मात दे दी.

नेहरू के प्रति मोह के कारण वाइरल हुई कोई तस्वीर नेहरू युग और मोदी दौर के बीच के बड़े फर्क को ही उजागर कर सकती है. पहला, बहुसंस्कृति और सिर्फ लोकतंत्र के सिद्धांत की वकालत अब सिर्फ पहले की याचिकाओं और राजनीतिक अवसरवाद की वजह से कमतर होने के कारण ही नहीं की जा सकती. हिंदुत्ववाद की वैचारिक स्पष्टता का प्रमाण आज इसके प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध काडर की आक्रामकता से ही मिलता है.

‘आम आदमी’ भी मजबूती से चर्चा में है लेकिन इसको लेकर लोहिया और उनके सत्ता विहीन मगर खतरनाक अनुयायियों ने जो वैचारिक घालमेल पैदा करने की कल्पना भी नहीं की होगी उससे कहीं ज्यादा घालमेल आज दिख रहा है. भारत किस विचार का प्रतिनिधित्व करता है, इसे स्पष्ट करने के लिए आज एकदम नया राजनीतिक पुनराविष्कार करना पड़ेगा, जिसके लिए मौसमी मित्रों से दूरी बनानी पड़ेगी और मैं तो यह कहने की हिम्मत करूंगी कि लोहिया को पुस्तकालयों में सीमित कर देना पड़ेगा.

(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में इंडियन हिस्ट्री और ग्लोबल पॉलिटिकल थॉट की प्रोफेसर हैं. वह @shrutikapila पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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