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Wednesday, 8 May, 2024
होममत-विमतपूरे समाज का भला इसी में है कि महिलाओं को शिक्षा, रोजगार मिले और इसके लिए पहनावे को शर्त न बनाएं

पूरे समाज का भला इसी में है कि महिलाओं को शिक्षा, रोजगार मिले और इसके लिए पहनावे को शर्त न बनाएं

मुसलमानों में महिला साक्षरता और उच्च शिक्षा का अनुपात सबसे कम है. सभी समुदायों में काम करने वाली उम्र की महिलाओं में रोजगार कर रहीं या काम करने को इच्छुक महिलाओं का अनुपात मात्र 20 प्रतिशत है.

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धीरे-धीरे अधिक इस्लामवादी हो गए मिस्र के कैरो विश्वविद्यालय के बाहर एक युवा मुस्लिम महिला की करीब सौ साल पुरानी प्रतिमा लगी है जिसमें उसे चेहरे से अपना बुर्का उठाते हुए दिखाया गया है. ‘मिस्र के जागरण’ को जताने वाली यह प्रतिमा इस बात का प्रतीक है कि वह अपने ऊपर पुरुषवादी परंपरा द्वारा थोपी गई मानसिक तथा दूसरी पाबंदियों से आज़ाद होना चाह रही है. इसलिए यह तर्क बेमानी है कि इस्लाम और उसके तमाम रूपों ने मुस्लिम महिलाओं के लिए हिजाब पहनना जरूरी बताया है. भारत में दुर्भाग्य से कैरो की इस प्रतिमा के संदेश के उलट रिवाज चल पड़ा है. ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम महिलाएं ज्यादा से ज्यादा पुरातनपंथी पहनावे को अपना रही हैं और यह उन जगहों पर भी हो रहा है जहां हिजाब या बुर्का पहनने का चलन नहीं था.

उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक रूप से प्रगतिशील यानी मानवतावादी लोग धार्मिक रुझानों के सार्वजनिक प्रदर्शन की इस प्रवृत्ति से चिंतित होंगे, जो कि केवल एक धर्म के लोगों तक सीमित नहीं है. लेकिन उन्हें यह मानना होगा कि जिस तरह पगड़ी सिख पुरुषों की पहचान है उसी तरह हिजाब भी एक पहचान का साधन है. अगर स्कूलों-कॉलेजों के अंदर पगड़ी की या लालत पर भस्म लगाकर आने की इजाजत है, तो क्या हिजाब पर रोक लगाई जा सकती है? अगर नहीं, तो यह बात बुर्का के लिए भी लागू हो सकती है.


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यह फिसलन भरी ढलवां जमीन है. और भारत ज्यादा से ज्यादा ऐसी ही जमीन में तब्दील होता जा रहा है. क्या यह विविधता भरे, बहुधर्मी देश के लिए यह अच्छा है? शायद नहीं. क्या सख्त धर्मनिरपेक्षता इसका समाधान हो सकता है? यह भी शायद नहीं. हालांकि स्कूलों या सेनाओं में तमाम तरह के यूनिफॉर्म बनाए जाते हैं ताकि अंतर को कम से कम किया जा सके, उनमें लचीलापन भी रखा जाता है. दाढ़ी-मूंछ की स्टाइल को लेकर विवाद उभरते रहे हैं. यानी सबको एक सांचे में ढालना कोई समाधान नहीं है.

यह स्तंभकार उस मामले में पैर नहीं फैलाना चाहता जिसके बारे में दूसरे लोग ज्यादा जानकारी रखते हैं. यहां कोशिश बहस को इस ओर मोड़ने की है कि समाज की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए—महिलाओं में शिक्षा का प्रसार और कार्य स्थलों पर उनकी ज्यादा भागीदारी. आंकड़े बताते हैं कि तमाम धर्मों की महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं में शिक्षा का प्रसार कम है. उच्च शिक्षा में भी महिलाओं का अनुपात कम है, और मुस्लिम आबादी के अनुपात में उनका प्रतिनिधित्व सबसे कम है. आंकड़े सुधर रहे हैं मगर अभी बहुत कुछ बाकी है. इसलिए इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए कि मुस्लिम बच्चियां और लड़कियां स्कूल-कालेज में पढ़ने आ रही हैं और खुद को बेहतर जीवन के लिए तैयार करना चाहती हैं. अब इसे पहनावे के एक कठिन विकल्प का बंधक बनाना कोई मजबूत तर्क नहीं है.

इसके साथ ही जुड़ा है कार्य स्थलों पर महिलाओं की उपस्थिति का मामला. सभी समुदायों में काम करने वाली उम्र की महिलाओं में उन महिलाओं का अनुपात, जो काम में लगी हैं या काम करने को इच्छुक हैं, 30 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत हो गया है, जबकि पुरुषों का अनुपात 80 से घटकर 75 प्रतिशत हो गया है. यह तो कोरोना महामारी से पहले की स्थिति है, इसके बाद दो साल में तो आंकड़े और गिरे होंगे. सभी महिलाओं में यह अनुपात 20 प्रतिशत है, तो मुस्लिम महिलाओं में तो यह अनुपात और भी कम होगा, चाहे यह शिक्षा ले रही महिलाओं का हो या आजीविका कमाने वाली का. मुस्लिम महिलाओं को घर से बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, चाहे यह सीधे उनके निजी हित के लिए हो या समाज के हित के लिए. इसके अलावा, तब वे अपने ऊपर लगाए जाने वाले आरोपों का जवाब देते हुए कम बच्चे भी पैदा कर सकती हैं.

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अंत में, गरीबी का मसला भी है. जिस देश में श्रमिक अधिक संख्या में हैं वहां परिवार में कमाई करने वाला एक ही व्यक्ति हो तो उसकी आय परिवार को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने में काफी कम पड़ सकती है. रोजगार भी पहले से ज्यादा अनिश्चित हो गया है. महिला को काम पर लगाना अतिरिक्त आमदनी से ज्यादा, एक बीमा भी है. यह रोजगार को लेकर महिला-पुरुष में टक्कर कराने वाली बात नहीं है. सभी समुदायों की महिलाएं रोजगार देने वाले कई कामों की ओर आकर्षित होती हैं, मसलन गारमेंट फैक्टरी या इलेक्ट्रोनिक कल-पुर्जे जोड़ने वाली यूनिटें. ये तो टीचिंग या नर्सिंग जैसे महिला केन्द्रित पारंपरिक पेशों के अलावा हैं. अध्ययन बताते हैं कि आदिवासी, मुस्लिम, दलित समुदायों में गरीबों का अनुपात सबसे ज्यादा है. जाहिर है, इन समुदायों की महिलाओं को शिक्षा और रोजगार देना पूरे समाज के हित में ही है और यह एक आर्थिक जरूरत भी है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष व्यवस्था के साथ)


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