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Saturday, 23 November, 2024
होममत-विमतMSP की मांग पर हड़बड़ी में फैसला अराजकता और लंबे समय तक होने वाले नुकसान का कारण बन सकता है

MSP की मांग पर हड़बड़ी में फैसला अराजकता और लंबे समय तक होने वाले नुकसान का कारण बन सकता है

एमएसपी की गारंटी देने का अर्थ होगा उगाही की एक योजना बनाना, कीमत में अंतर की भरपाई का विकल्प देना या इन दोनों को एक साथ लागू करना. इसका सरकार और बाजार पर क्या असर पड़ेगा?

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खबरें आ रही हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार आंदोलनकारी किसानों की एमएसपी की गारंटी की मांग समेत सभी मांगें मानने जा रही है. भारत को समर्थन मूल्य व्यवस्था और इसके कारण पड़ने वाले वित्तीय प्रभाव को लेकर भी सवाल पूछने चाहिए.

हिस्सेदारी और मजबूती को लेकर भी सवाल पूछे जाने चाहिए कि किन वर्गों के किसानों के पास बिक्री के लिए अतिरिक्त उपज उपलब्ध होती है? उगाही के लिए बेहतर इंतजाम किन क्षेत्रों में मौजूद है?

वर्षा वाले इलाके के उन किसानों का क्या होता है, जिन्हें लागत में सब्सीडी नहीं मिलती और जिनकी पहुंच उगाही की व्यवस्था तक नहीं है?

इस तरह के सवालों के जवाब बाद में ढूंढे जा सकते हैं. लेकिन सबसे पहले, मांग के विचार के बारे में स्पष्टता होनी चाहिए. क्या ‘अनिवार्य’ एमएसपी की मांग की जा रही है या एमएसपी की वैधानिक गारंटी की मांग की जा रही है? दोनों में अंतर है.

‘अनिवार्य’ एमएसपी का अर्थ यह है कि भारत में कहीं भी किसी भी अधिसूचित जींस को एमएसपी से नीचे की कीमत पर नहीं खरीदा जा सकेगा. अगर एमएसपी को अनिवार्य बना दिया गया तो सरकार यानी इंस्पेक्टरों को देखना पड़ेगा कि हरेक लेन-देन इस कानूनी शर्त के मुताबिक हो रहा है. इसका उल्लंघन करने पर सजा दी जाएगी. व्यापारी बाजार से दूर रहने को ही सुरक्षित मानेंगे और इंतजार करेंगे कि सरकार अपना भंडार बाजार में लाए. तब क्या सरकार ही एकमात्र व्यापारी होगी? यह निश्चित रूप से विनाश का रास्ता है.

ऐसा लगता है कि फिलहाल ‘कानूनी’ गारंटी की मांग की जा रही है (विश्वास पर आधारित व्यवस्था की जगह अधिकार पर आधारित व्यवस्था की) कि सरकार (राज्यों और केंद्र की) एमएसपी पर दिए जा रहे सभी माल को खरीद लेगी. यह उगाही की अखिल भारतीय कार्रवाई होगी, जैसी कि पंजाब और कुछ राज्यों में की जाती है. किसानों की मांग (जाहिर है कि विश्वास का अभाव है इसलिए यह अधिकार आधारित व्यवस्था है) है कि इस स्कीम को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए), जो ‘भोजन के अधिकार’ की गारंटी देता है, जैसे कानून में समाहित किया जाए.

अनाज की जगह नकदी भुगतान का सहारा एनएफएसए के अंतर्गत भी लिया जाता है. इसलिए, ‘गारंटीशुदा’ एमएसपी एक उगाही स्कीम हो सकती है जिसके तहत कीमत में अंतर की भरपाई की जा सकती है या दोनों व्यवस्था लागू की जा सकती है. अगर आगे का रास्ता यही है, तो इसके नतीजे क्या हो सकते हैं?


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लागत का मामला

क्या कानूनी गारंटी की मांग उन्हीं 23 जींसों के लिए की जा रही है, जो पहले से एमएसपी के दायरे में हैं? अगर ऐसा है तो उन किसानों को बाहर रखने के क्या कारण हैं, जो एमएसपी के दायरे के बाहर के फसल उगाते हैं? इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि एमएसपी के दायरे से बाहर के किसान एमएसपी की मांग नहीं करेंगे. संभावित नतीजों को समझने के लिए हम कृषि उपजों के मूल्य पर नज़र डालें.

फिलहाल एमएसपी के दायरे में मौजूद 23 फसलों का मूल्य करीब ₹ 7 लाख करोड़ है. प्रशासनिक और प्रबंध संबंधी बातों को छोड़कर ऐसे प्रस्ताव की लागत पर विचार करें. किरण विस्सा और योगेन्द्र यादव का कहना है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी देने पर सरकार को केवल अतिरिक्त ₹ 47,764 करोड़ (2017-18 का आंकड़ा) का खर्च आएगा. बाकी चीजों के अलावा, इस आंकड़े में ₹ 240,000 करोड़ की खाद्य सब्सीडी का, जो मुख्यतः उपभोक्ता को दी जाने वाली सब्सीडी है, हिसाब नहीं रखा गया है.

कानूनी गारंटी के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया गया तो सरकार को उगाही की मौजूदा नीति जारी रखनी होगी और कीमत में अंतर की भरपाई की गारंटी देनी होगी और मिश्रित व्यवस्था चलानी होगी. ऐसी स्थिति में सरकार को ₹240,000 करोड़ की खाद्य सब्सीडी जारी रखनी होगी (जो हर साल बढ़ती जाएगी क्योंकि एमएसपी बढ़ेगी और ईशु प्राइस स्थिर रहेगी) और इसमें हर साल ₹ 50,000 करोड़ जोड़ना पड़ेगा. चूंकि काफी कुछ बाजार के ऊपर निर्भर होगा इसलिए सरकार को इस मद में ₹ 300,000 करोड़ से ज्यादा का बिल भरना पड़ सकता है.


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बाधाएं

गेंहू और चावल को छोड़ बाकी अनाज, दलहन और तिलहन की उगाही की जाती है और उनकी बिक्री व्यापक ‘खुला बाजार बिक्री स्कीम’ के तहत विशेष नीलामी के जरिए की जाती है. अगर हम गेंहू और चावल की खुले बाजार में बिक्री के इतिहास को देखें सरकार का घाटा लगभग उतना ही होगा जितना एफसीआइ को होता है, यानी एमएसपी के 40-45 प्रतिशत के बराबर. इसलिए, उगाही की किसी व्यवस्था में सब्सीडी का बोझ मूल्य के 30 प्रतिशत से कम का नहीं होगा बेची, अगर वितरण की नीची लागत पर विचार करें तो. 22 फसलों (गन्ने को छोड़कर) के लिए कानूनी गारंटी के तहत एमएसपी की लागत का अनुमान लगाना जोखिम भरा काम होगा. बाजारू कीमतें और परिमाण में काफी अंतर आ सकता है.

लेकिन गेंहू और चावल के उदाहरण पर गौर करते हुए सरकार को निम्नलिखित बातों का ख्याल रखना होगा—

1. किसी प्रकार की सरकारी गारंटी के साथ एमएसपी, जिसके साथ ‘सीमित’ वास्तविक ख़रीदारी और कीमत में अंतर की भरपाई एक विकल्प हो सकता है. पीडीएस से जुड़ी और सरप्लस की खुली बिक्री वाली खुली उगाही व्यवस्था बेहिसाब महंगी साबित हो सकती है और इसे लागू करना मुश्किल हो सकता है. क्या अब एमएसपी को पीडीएस के लिए उगाही से अलग किया जा सकता है?

2. सरकार के पास ठोस तर्क होने चाहिए ताकि वह एमएसपी से बाहर की फसलें उगाने वाले किसानों को समझा सके कि केवल 23 फसलों को ही एमएसपी के दायरे में क्यों रखा गया है. वे एमएसपी के दायरेवाली फसलें उगाना चाह सकते हैं और टमाटर-प्याज-आलू पर अलग मुद्दा खड़ा कर सकते हैं.

3. केंद्र सरकार के अनुमानित राजस्व ₹17.88 लाख करोड़ (21-22 बीई) के मद्देनजर क्या सरकार खाद्य सब्सीडी को ₹ 2,40,000 करोड़ से बढ़ाकर ₹300.000 करोड़ से ज्यादा कर सकती है? यह पीएम किसान, खाद, और दूसरी सब्सीडियों के अलावा होगा.

4. क्या सरकार एनएफएसए के तहत अपने कवरेज को इस तथ्य के मद्देनजर घटा सकती है कि बहुआयामी गरीबी का ताजा आंकड़ा इसे घटाकर 40 प्रतिशत करने और सब्सीडी के बोझ को कम करने के लिए पीडीएस के तहत कीमतों को संशोधित करने के तर्क को मजबूत कर रहा है?

5. क्या हिस्सेदारी और मजबूती के पहलुओं की मांग यह है कि सरकार फल, सब्जी, डेरी के किसानों और वर्षा वाले क्षेत्र के किसानों की सहायता के लिए पीएम किसान जैसी व्यवस्था उनके उत्पादन तथा कीमत के जोखिमों के मद्देनजर लागू करे?

6. क्या राज्य सरकारों को इन सबमें सक्रिय भाग लेना चाहिए और किसानों की आय बढ़ाने की ज़िम्मेदारी लेने के लिए अधिक छूट नहीं देनी चाहिए?

एमएसपी की कानूनी गारंटी देना कोई आसान मसला नहीं है. इसके लिए व्यापक विचार-विमर्श जरूरी है. हड़बड़ी में किया गया फैसला अराजकता और दीर्घकालिक नुकसान की वजह बन सकता है.

(टी नंद कुमार पूर्व केंद्रीय सचिव, खाद्य और कृषि हैं. यहां व्यक्त विचार निजी है.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


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