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Wednesday, 11 December, 2024
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आखिर क्यों आंदोलनरत किसानों की MSP के लिए कानूनी गारंटी वाली मांग हर किसी के लिए घाटे का सौदा है

कृषि कानूनों को निरस्त करने के बाद अब प्रदर्शनकारी किसान चाहते हैं कि सरकार सुरक्षा-तंत्र वाले ढांचे के तहत आने वाली सभी 23 फसलों के लिए एमएसपी को कानूनी गारंटी दे.

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नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने का वादा किये जाने के बाद भी आंदोलनरत किसान अपने घरों को लौटने से इनकार कर रहे हैं.

उन्होंने अब प्रधानमंत्री को लिखा है कि वे अब अपनी अन्य मांगों के लिए विरोध प्रदर्शन जारी रखेंगे, जिनमें से सबसे प्रमुख मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस – एमएसपी) की कानूनी गारंटी है.

एमएसपी सरकार द्वारा किसानों को प्रदान किया जाने वाला न्यूनतम मूल्य का सुरक्षा कवच है. एमएसपी के माध्यम से ही सरकार किसानों की उपज को एक सुनिश्चित खरीद वाले बाजार के साथ-साथ उन्हें एक गारंटीकृत मूल्य देने के लिए उनके उत्पाद को खरीदती है.

फिलहाल, केंद्र सरकार, कृषि लागत और मूल्य आयोग (कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एन्ड प्रिंसेस – सी.ए.सी.पी) की सिफारिश पर, 23 फसलों – धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा, जौ, रागी, चना, अरहर, मूंग, उड़द,मसूर, मूंगफली, रेपसीड-सरसों, सोयाबीन, तिल, सूरजमुखी, कुसुम, नाइजर बीज, खोपरा, गन्ना, कपास और कच्चा जूट के लिए एमएसपी की घोषणा करती है.

हालांकि कानूनी अनिवार्यता के बिना सरकार एमएसपी के तहत आने वाली सभी 23 फसलों की खरीद के लिए बाध्य नहीं है.

अपने वर्तमान स्वरूप में, फसलों की एमएसपी-आधारित खरीद प्रणाली का उद्देश्य किसानों को कीमतों में उतार-चढ़ाव की विभिन्न परिस्थतियों से बचाना है, जैसे कि ज्यादा पैदावार के कारण बाजार में वस्तुओं का आधिक्य, जलवायु सम्बन्धी अनिश्चितता, फसली उत्पाद मूल्य के बारे में जानकारी की कमी, आदि.

सरकार एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी कैसे दे सकती है?

मुख्य रूप से, दो तरीके हैं जिनसे सरकार बिना किस गंभीर आर्थिक दुष्प्रभाव के एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी प्रदान कर सकती है.

सबसे पहले, सरकार बाजार में 23 फसलों के लिए एमएसपी को न्यूनतम आधार मूल्य घोषित कर सकती है. निजी कंपनियों के लिए एमएसपी की दरों पर भुगतान करना अनिवार्य होगा, जिससे मूल्य वृद्धि भी हो सकती है.

दूसरे, सरकार स्वयं सभी 23 फसलों को एमएसपी पर खरीद सकती है. वर्तमान में, भारतीय खाद्य निगम (एफ़सीआई), भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नाफेड) और भारतीय कपास निगम (सीसीआई) जैसी कई सरकारी एजेंसियां किसानों को समर्थन प्रदान करने के लिए उनसे बड़ी मात्रा में गेहूं, धान या चावल, दालें और कपास आने वाली पर खरीदती हैं, विशेष रूप से ऐसे मामले में जब बाजार की कीमतें एमएसपी से नीचे आ जाती हैं.


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यह सरकारी एजेंसियों को कैसे प्रभावित करता है?

सरकारी एजेंसियां, अपने सर्वोत्तम प्रयास के बावजूद अभी भी किसी भी फसल के कुल उत्पादन का सिर्फ 30 से 40 प्रतिशत ही खरीद पा रही हैं. और उन्हें इसे तेजी से बढ़ते पहले से जमा स्टॉक के साथ-साथ खरीद, परिवहन, भंडारण और अन्य विविध शुल्कों में होती वृद्धि के साथ हासिल करना होता है.

उदाहरण के लिए, 2019-20 सत्र में, एफ़सीआई ने 77.34 मिलियन टन धान और 38.99 मिलियन टन गेहूं की खरीद की, जिसकी एमएसपी पर आधारित कीमत लगभग 2,15,894 करोड़ रुपये पर है. 2020-21 में यह बढ़कर 2,53,274 करोड़ रुपये हो गया.

हालांकि इन खाद्यान्नों की पूरी खरीद, भंडारण और वितरण के ऊपर 20 रुपये प्रति किलोग्राम से अधिक की लागत आती है, जो इन फसलों के एमएसपी (गेहूं: 20.15 रुपये प्रति किलोग्राम; धान: 19.60 रुपये प्रति किलोग्राम) के बराबर है, इसके बाद खरीदे गए स्टॉक को सार्वजनिक वितरण प्रणाली और ऐसी अन्य योजनाओं के तहत समाज के सबसे गरीब तबके को 2-3 रुपये प्रति किलोग्राम की अत्यंत रियायती दर पर वितरित किया जाता है.

कृषि कानूनों का अध्ययन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति के सदस्य और किसान नेता अनिल घनवत ने दिप्रिंट को बताया कि एमएसपी को कानूनी गारंटी प्रदान करने में भारी लागत आएगी.

उन्होंने कहा, ‘सभी 23 फसलों के लिए कानूनी रूप से एमएसपी की गारंटी देने की मांग समूचे देश को दिवालियेपन की ओर ले जाएगी, क्योंकि केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, जो भी एमएसपी पर फसलों की खरीद और भुगतान करेगा, वह दिवालिया हो जाएगा. सारा राजस्व इसी ओर लग जाएगा और सरकार के पास सड़क, पुल आदि जैसी आवश्यक चीजों को विकसित करने और उन्हें कामकाजी बनाए रखने के लिए कोई पैसा नहीं बचेगा.‘

उन्होंने आगे कहा, ‘अगर इन 23 फसलों के लिए एमएसपी को क़ानूनी रूप से वैध कर दिया जाता है, तो जल्द ही अन्य किसान भी अपनी फसलों, जैसे फलों और सब्जियों, के लिए इसकी मांग लेकर सामने आएंगे.’

घनवत कहते हैं, ‘मौजूदा एमएसपी व्यवस्था के कारण, सरकार अपने पास 41 लाख टन का बफर स्टॉक होने के बावजूद करीब 110 लाख टन गेहूं और धान की खरीद करती है. अगर हम इसमें कुछ और फसलें भी जोड़ दें, तो उन्हें कैसे खरीदा और संग्रहित किया जाएगा? तथा अन्य आवश्यक खर्चों में बाधा डाले बिना इस सब के लिए पैसा कहां से आएगा?’

एमएसपी गारंटी के साथ अन्य समस्याएं क्या हैं?

कानूनी गारंटी के रूप में एमएसपी को लागू किये जाने के साथ एक और प्रमुख समस्या यह है कि यह खरीदी गई फसल के भंडारण को सुनिश्चित करने के सरकार के प्रयासों को और जटिल बना सकती है. केंद्रीय कोटे से एमएसपी पर खरीदे गए खाद्यान्न – जैसे गेहूं और चावल – का स्टॉक अक्सर बफर स्टॉक के न्यूनतम मानदंडों से दोगुना से अधिक होता है. बफर स्टॉक से सम्बंधित नियमों के मुताबिक इस साल अक्टूबर में केन्द्रीय पूल में स्टॉक 257.70 लाख टन होना चाहिए था लेकिन असलियत में यह 721.78 लाख टन था.

एमएसपी के लिए पात्र 23 फसलों में से अन्य सभी फसलों का भी यही हाल है. उदाहरण के लिए, 2014 और 2019 के बीच वाली पांच साल की अवधि में, नाफेड ने एमएसपी पर 91 लाख टन तिलहन और दलहन की खरीद की, जो 2009 और 2014 के बीच खरीदे गए 7.02 लाख टन की तुलना में 1205 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी थी.

एक ओर खाद्यान्न उत्पादन में हो रही लगातार वृद्धि और एमएसपी पर खरीद की बढ़ती लागत और दूसरी ओर हैंडलिंग (भंडारण, पैकिंग और वितरण) के साथ, सरकार के पास बिलों का वित्तीय बोझ बढ़ गया है.

इसके अलावा, पहले तरीके के अनुसार, यदि सरकार इन 23 फसलों के लिए एमएसपी को आधारभूत मूल्य के रूप में निर्धारित करने का निर्णय लेती है, तो यह खुदरा और थोक कीमतों को काफी ऊंचे स्तर पर ले जाएगी. साथ ही यह इन्हें मांग और आपूर्ति के बाजार आधारित समीकरण से अलग कर देगा, जिससे अंततः तमाम उपभोक्ताओं को असुविधा होगी.

इससे देश में कृषि निर्यात क्षेत्र को भी भारी नुकसान होने की संभावना है, जो कोविड -19 महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था के बुरे हाल के बाद भी देश के लिए दुर्लभ आशा की किरणों में से एक रहा है.

2020-21 में भारत का कृषि निर्यात छह साल के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया. निर्यात में यह असाधारण वृद्धि अन्य निर्यातक देशों के मुकाबले बाजार में कम दर पर भारत की खाद्यान्न उपलब्धता के कारण संभव हुई. अधिकांश निर्यात किए गए खाद्यान्नों की आपूर्ति प्रमुख कृषि उत्पादक राज्यों जैसे यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल, गुजरात और राजस्थान से की गई थी.

हालांकि ये राज्य गेहूं और चावल के प्रमुख उत्पादक हैं, फिर भी सरकार द्वारा एमएसपी पर की गई खरीद यहां न्यूनतम स्तर पर बनी हुई है, इस कारण किसान अपनी उपज को बाजार मूल्य पर बेच रहे हैं जिससे ये निर्यात के लिए व्यावहारिक मूल्य वाले हो जाते हैं

एमएसपी व्यवस्था की कमजोरियों के बारे में बताते हुए, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर और अर्थशास्त्री इला पटनायक, ने कहा, ‘किसी भी प्रणाली में जहां केंद्रीय योजनाकार द्वारा कीमतें तय की जाती हैं, संसाधनों का आवंटन गलत होता है. तब कीमतें इस बात से निर्धारित नहीं होती हैं कि लोगों को क्या चाहिए और वे इसके लिए किस हद तक भुगतान करने को तैयार हैं. बाजार ही वस्तुओं की कीमत तय करने का सबसे अच्छा माध्यम है क्योंकि यह लोगों की मांगों को दर्शाता है.’

उन्होंने आगे कहा कि एमएसपी के मामले में, उत्पादन कीमतों के अलावा, बिजली, पानी, उर्वरक जैसे विभिन्न इनपुट कॉस्ट (लागत मूल्य) भी पहले से ही सरकार द्वारा निर्धारित की जा रही हैं.

वे कहती हैं, ‘इससे अर्थव्यवस्था में संसाधनों का खराब तरीके से आवंटन होता है. इससे उन खाद्य पदार्थों का अतिरिक्त भण्डारण हो जाता है जिनकी आपको आवश्यकता ही नहीं होती है और इसके बजाय जिन चीजों की आपको आवश्यकता है उनकी ही कमी हो जाती है. उदाहरण के लिए, यदि आप गेहूं के लिए अधिक संसाधन आवंटित करते हैं, तो दाल को पर्याप्त संसाधन नहीं मिल पाते हैं और इसकी कीमतें बढ़ जाती हैं. लोगों की आय में परिवर्तन के साथ ही मांग में बदलाव आता है लेकिन (क्या) केंद्रीय योजनाकार कीमतों में इस के अनुसार बदलाव करने में सक्षम होंगे?’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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