8 दिसंबर की दोपहर अगर भाजपा गुजरात विधानसभा का चुनाव जीत जाती है तो वह अपनी लगातार सातवीं जीत की क्या वजह बताएगी? यह सवाल मैंने अहमदाबाद में भाजपा के वरिष्ठ नेता से पूछा.
उनका सीधा जवाब था— ‘नरेंद्र मोदी’.
मैंने सवाल किया, ‘हिंदुत्व नहीं?’
‘एमना मा बधु समाय जाय (मोदी की छवि में सारे तत्व समाए हैं, हिंदुत्व भी)’, उनका कहना था.
इस चुनाव को पूरी तरह मोदी के चुनाव के रूप में ही याद किया जाएगा.
प्रधानमंत्री ने अपनी भाषण कला और मतदाताओं से सीधा संबंध बनाने के कौशल के बूते इस चुनाव से तमाम तात्कालिक मुद्दों को अलग कर दिया. मतदाताओं के बीच उनकी प्रत्यक्ष मौजूदगी ने ‘गुजरात नी अस्मिता’ पर ध्यान केंद्रित कर दिया, जिसका वे उग्र प्रतिनिधित्व करते हैं.
यही उस अप्रत्याशित कदम का भी कारण है जो प्रधानमंत्री मोदी ने 1 दिसंबर को उठाया. उन्होंने विरासत नगर अहमदाबाद की गली-कूचों में ऐसा रोड शो किया जिसे गुजरातियों ने अब तक नहीं देखा था. मोदी ने 50 किलोमीटर के रोडशो के रूप में कठिन चुनाव अभियान में भाग लिया और वे अपने वाहन पर लगातार पांच घंटे खड़े रहकर अहमदाबाद-गांधीनगर के 14 विधानसभा क्षेत्रों की लंबाई-चौड़ाई में घूमे और हाथ हिलाकर 10 लाख से ज्यादा लोगों का अभिवादन किया.
इस अभियान को मैंने नारायणपुरा के विसात नगर के पास खड़े होकर देखा, जहां गरड़िया रबारी समुदाय की बस्ती है. विसात माता का एक मंदिर पाकिस्तान में है. इस समुदाय के कुछ लोग मोदी के इंतजार में खड़े थे ताकि वे उन्हें अर्जी दे सकें कि उन्हें विसात माता के दर्शन के लिए पाकिस्तान जाने की सुविधा मिले.
मोदी की लोकप्रियता
उनकी बस्ती में आम आदमी पार्टी (AAP) ने अपनी मौजूदगी तो दर्ज करा दी है लेकिन मोदी के काफिले का दर्शन करने के लिए सड़क के किनारे उनके बुजुर्ग और युवा मतदाताओं में होड़ लगी थी. मध्यवर्ग की एक पकी भाजपा समर्थक दुकानदार ने मुझसे विनम्रता से कहा कि मैं ज्यादा सवाल न करूं, ‘बेन, चर्चा रेहवा दो. मोदी ने वोट आपिए छीये एटले शांति थी रहेवा (बहन, बहस को अलग रखो, हम लोग इसलिए शांति से रह रहे हैं क्योंकि हम मोदी को वोट देते हैं).’
एक लाइन के इस जवाब, हालांकि इसके कई अर्थ हैं, से साफ हो जाता है कि मोदी को उनके अपने मैदान में चुनौती देना क्यों मुश्किल है. गुजरात चुनाव इस बात की मिसाल है कि चुनाव अभियान किस तरह एक ऐसा माहौल बनाने का नाम है जिससे लोगों में सुरक्षा का एहसास पैदा हो. यह गुजरात के मतदाताओं में चमत्कार पैदा करता है.
दक्षिण और उत्तर गुजरात की जनसभाओं में मोदी ने स्थानीय जनता के मद्देनजर अपनी बोली बदल ली. सौराष्ट्र में उन्होंने गर्मजोशी वाला काठियावाड़ी लहजा अपनाया.
सोशल मीडिया पर भाजपा और कांग्रेस, दोनों को आप की चुनौती का सामना करना पड़ा. अगर मतदान ट्वीटर पर हो तो आप शानदार जीत दर्ज करेगी, लेकिन असली मैदान में भाजपा ने याद दिला दिया है कि गुजरात और पंजाब में फर्क है.
लेकिन भाजपा अपनी तमाम ताकत, पैसे और सियासत के बावजूद इस चुनाव में आप को गुजरात में अपनी मौजूदगी जताने से रोक नहीं पाएगी. यह मौजूदगी चाहे कितनी भी कमजोर क्यों न हो, आप चुनाव के बाद भाजपा और कांग्रेस को अपने तौर-तरीके बदलने पर मजबूर कर देगी.
आसान नहीं है
मोदी और अमित शाह गुजरात में ‘शांति और स्थायित्व’ पर ज़ोर देते रहे हैं. हालांकि वे ‘कांग्रेस शासन के भ्रष्टाचार’ का खुलासा करते रहे हैं; आतंकवाद से भारत के खतरों, अनुच्छेद 370, युद्धग्रस्त यूक्रेन से भारतीय छात्रों की वापसी, सुरक्षा संबंधी मसलों को उठाते रहे हैं. मुस्लिम बहुल इलाकों में शाह ने 2002 के गोधरा दंगों के बहाने यह संकेत देकर सांप्रदायिक तापमान को ऊपर चढ़ाया कि केवल भाजपा ही राज्य को दंगा मुक्त रख सकती है.
दो महीने पहले, कांग्रेस और आप महंगाई और सभी स्तर पर भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाकर चुनाव और उसके एजेंडा को काबू में करने की कोशिश कर रही थी. लेकिन जैसे ही दिल्ली से मोदी और शाह ने राज्य में कदम रखा और 65 से ज्यादा रैलियां और 15 रोड शो किए, कोई भी गंभीर मसला भाजपा को कायल करने की ताकत नहीं हासिल कर सका. भाजपा के प्रचार तंत्र, खासकर क्षेत्रीय प्रिंट मीडिया और गुजराती टीवी चैनलों ने चुनावी बहस को बड़ी कुशलता से ‘गुजरात के इतिहास और भविष्य’ की ओर मोड़ दिया.
ऐसा नहीं है कि भाजपा के लिए सब कुछ आसान ही रहा. पिछले कुछ महीनों में, जनता के बीच गुजरात सरकार की कड़ी आलोचन हुई है. मोदी को मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को उनके पूरे मंत्रिमंडल समेत बदलना पड़ा. उनमें से अधिकतर तो चुनाव अभियान में निष्क्रिय रहे.
फिलहाल गुजरात को ऐसी कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जो सीधे गरीबों और मध्यवर्ग को प्रभावित करती हैं—जनजातीय क्षेत्रों में पानी की कमी, महंगी निजी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा की बदहाली, और व्यापक भ्रष्टाचार. कोविड के मामले में बदइंतजामी की याद अभी भी उन परिवारों में ताजा है जिन्हें खराब स्वास्थ्य सेवा के कारण अपने परिजनों को गंवाना पड़ा.
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विभाजित परिवार
इस चुनाव में भाजपा परिवार बंटा हुआ नज़र आया. हरेक चुनाव क्षेत्र में असंतुष्ट नेता और कार्यकर्ता मौजूद है, और कई क्षेत्रों में भाजपा के बागी पार्टी के कमजोर उम्मीदवार से मुक़ाबला कर रहे हैं. हालांकि प्रदेश पार्टी अध्यक्ष सी.आर. पाटील के नेतृत्व ने शुरू में युवा कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाया लेकिन उनकी ‘कॉर्पोरेट स्टाइल’ की कार्यशैली केंद्रीय राज्य के दिग्गज नेताओ को नहीं भायी. उम्मीदवारों के चयन की निर्धारित प्रक्रिया का कड़ाई से पालन नहीं किया गया, अंतिम तिथि के मद्देनजर उसे हड़बड़ी में निबटाया गया. चुनाव प्रचार अभियान—‘आ गुजरात मैं बनावयू छे’—को अपेक्षित सफलता नहीं मिली. पार्टी ने इसे पूरे मन से नहीं चलाया.
एक समय था जब भाजपा के पास बागी उम्मीदवारों से निपटने का अच्छा तरीका था. लेकिन इस बार वह तरीका विफल रहा और एक दर्जन से ज्यादा को पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए पार्टी से निलंबित किया गया है. ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि पहले चरण में कम मतदान ने जाहिर कर दिया कि भाजपा ने ‘पन्ना प्रमुख’ (बूथ स्तरीय पार्टी प्रभारी) और ‘बूथ मैनेजमेंट’ के जो दावे किए थे वे हवा हवाई ही साबित हुए. ‘पन्ना प्रमुख’ अगर मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक नहीं ला पाए तो इस व्यवस्था का क्या फायदा?
कांग्रेस और भाजपा के जो बड़े नेता गुजरात में आप की मौजूदगी को लगातार नकार रहे थे उन्हें इस चुनाव ने गलत साबित कर दिया. मजे की बात यह रही कि भाजपा के नेताओं ने कांग्रेस की जीत की संभावना को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया. आप को दोनों तरफ से मार झेलनी पड़ रही थी.
भाजपा मीडिया में बार-बार कह रही थी कि आप विचारधारा हीन पार्टी है इसलिए वह भारतीय राजनीति में ज्यादा समय तक नहीं टिक सकती. भाजपा नेताओं ने वाम दलों, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, और द्रविड़ दलों के उदाहरण दिए कि वे अपनी विचारधारा के कारण ही आगे बढ़ीं.
2017 में, भाजपा को 1.4 करोड़ और कांग्रेस को 1.2 करोड़ वोट मिले थे, जिसे पार्टी को राज्य में अब तक का सर्वाधिक वोट माना गया. अब, कांग्रेस कमजोर पड़ गई है. इस चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ कोई स्पष्ट संदेश नहीं दिया था, उसे न तो केंद्रीय नेतृत्व से समर्थन हासिल था और न वह पूरे गुजरात में कोई मीडिया अभियान चला रही थी. सारे कांग्रेस उम्मीदवार मुख्यतः अपने खर्चे से अपनी राजनीतिक जंग लड़ रहे थे.
भाजपा के संसाधन के मुक़ाबले में वे कहीं नहीं थे. कांग्रेस नेता शक्ति सिंह गोहिल, अर्जुन मोढ़वाडिया, भरत सिंह सोलंकी, और अध्यक्ष जगदीश ठाकोर चार अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे थे. मोदी का आत्मविश्वास 2017 के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस को मिले वोटों के अंतर से पैदा हुआ है. सरकार विरोधी भावना के कारण भाजपा को अगर वोटों का नुकसान होता है तब भी वह मुक़ाबले में कायम रहेगी.
कुछ सवालों के जवाब
आप के कई स्थानीय नेताओं को अफसोस है कि गुजरात के युवा भी बंटे हुए हैं और उनमें से अधिकतर में क्रांति की कोई चाहत नहीं है, जैसी 1974 में तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के भ्रष्टाचार और आर्थिक गिरावट के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन के दौरान थी.
कुल मिलाकर अनुवर्ती पार्टी के रूप में उभरती आप महात्मा गांधी की भूमि में जन्म लेने को है लेकिन उसे वह सम्मानजनक वोट और सीटें हासिल कर लेती है तब भी उसे कठिन चुनौती का सामना करना पड़ेगा. भाजपा ने उस पर ‘विशेष ध्यान’ दिया है और जहां आप के नेता मुक़ाबले में थे वहां ज्यादा ज़ोर लगाया.
यह चुनाव न तो उबाऊ है और न कम महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके नतीजे कई अहम सवालों के जवाब देंगे. मसलन यह कि इस चुनाव को मोदी ने कितना प्रभावित किया? क्या मोदी की लोकप्रियता इस चुनाव में चरम पर थी? 2017 के मुक़ाबले इस बार भाजपा का वोट प्रतिशत क्या रहा? आप ने शहरी और ग्रामीण इलाकों में भाजपा के और कांग्रेस के कितने वोट काटे? क्या आप का वोट प्रतिशत उसे गुजरात में ‘नयी कांग्रेस’ के रूप में उभरने के लिए काफी होगा? आप ने कांग्रेस के वोट काट कर भाजपा को कितनी सीटों पर फायदा पहुंचाया? क्या भाजपा सौराष्ट्र और उत्तर गुजरात में अपनी स्थिति सुधार सकी? कांग्रेस की जीती हुई सीटों पर जाति ने कितनी भूमिका निभाई? वे कौन-से असली मुद्दे हैं जिन्होंने आप को गुजरात में कदम रखने में मदद की? मोदी गुजरात में बदहाल शासन को किस तरह सुधरेंगे? वे पार्टी के कामकाज में किस तरह के बदलाव लाएंगे?
वैसे, गुजरात की कहानी तो मोदी के इर्दगिर्द ही घूमेगी. सूरत में एक वरिष्ठ पत्रकार ने, जो मोदी को अच्छी तरह जानते हैं, कहा, ‘गुजरात में दूसरा कोई तब तक चुनाव नहीं जीत सकता जब तक विपक्ष जनता की अदालत में यह पक्के तौर पर साबित न कर दे कि मोदी एक नकली हिंदू हैं. जाहिर है, ऐसा नहीं होने वाला है. जब तक मोदी की साख साबुत है,तब तक गुजराती जनता भाजपा को जिताती रहेगी.’
फिलहाल तो हम 8 दिसंबर तक इंतजार करें.
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(शीला भट्ट दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @sheela2010 हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(अनुवाद: अशोक कुमार)
(संपादन: ऋषभ राज)
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