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Wednesday, 25 December, 2024
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किसानों की ताकत कम न आंके सरकार, उनकी मांगों को मानने से प्रधानमंत्री का ‘इकबाल’ कम नहीं हो जाएगा

कई प्रेक्षक सुझा रहे हैं, बेहतर होगा कि चार जनवरी की वार्ता में सरकार मेज के उस तरफ आकर निर्णय ले, जहां से किसानों की मुश्किलें, एतराज और नज़रिया उसे साफ समझ आए.

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शुक्र है कि लंबे गतिरोध के बाद गत बुधवार को किसानों और केन्द्र सरकार के बीच शुरू हुई वार्ता फिर से गतिरोध की शिकार नहीं हुई और किसी भी पक्ष ने उसके नतीजों को लेकर असंतोष नहीं जताया. सरकार की मानें तो पांच घंटों से ज्यादा चली इस वार्ता में उसने इलेक्ट्रीसिटी अमेंडमेंट बिल और पराली जलाने पर भारी जुर्माने के कानून को लेकर किसानों के असंतोष का शमन कर उनके साथ सहमति बनाने का आधा रास्ता तय कर लिया है.

इसके विपरीत कई किसान नेताओं का कहना है कि अभी तो विवाद के हाथी की पूंछ भर बाहर निकली है और उसके भीमकाय शरीर का निकलना बाकी है. फिर भी सहमति के प्रति उनका रवैया नकारात्मक नहीं है.

दूसरी ओर स्वतंत्र प्रेक्षक कह रहे हैं कि सरकार जिसे पचास प्रतिशत सहमति बता रही है, उसकी असली परीक्षा आगामी चार जनवरी को ही होगी, जब दोनों पक्ष किसानों के लिए परेशानकुन तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने व न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी गारंटी देने के मुद्दों पर बात करेंगे. अभी सरकार न न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाने को राजी दिखाई दे रही है, न उक्त कृषि कानूनों को वापस लेने को ही, जबकि किसानों का कहना है कि वे उन्हें वापस लेने के तरीकों पर ही बात करेंगे और महज कुछ संशोधनों के सरकार के प्रस्ताव को मानकर अपना आंदोलन खत्म नहीं करेंगे. साफ है कि अंतिम सहमति तक पहुंचने के लिए अभी दोनों पक्षों को लम्बा रास्ता तय करना है.

लेकिन इस सिलसिले में कम से कम इतनी अच्छी बात तो हुई ही है कि सरकार ने थोड़ा लचीला रुख प्रदर्शित किया है, जिससे दोनों पक्षों के बीच विभिन्न कारणों से जमी आ रही अविश्वास की बर्फ थोड़ी पिघली है. किसानों को अपनी जीत की आशा बंधी है, तो सरकार उम्मीद में है कि वह उन्हें आंदोलन के खात्मे के लिए मनाने में सफल हो जायेगी.

वार्ता के इससे पहले के दौर में खिन्न किसानों ने सरकार का भोजन स्वीकार करने से साफ-साफ इनकार कर दिया था, लेकिन इस बार उन्होंने न सिर्फ अपने भोजन में सरकारी वार्ताकारों को शामिल किया, बल्कि खुद भी सरकार की चाय पी. इतना ही नहीं, अपना प्रस्तावित ट्रैक्टर मार्च भी वार्ता के अगले दौर तक के लिए स्थगित कर दिया है.

दोनों पक्षों में स्थापित हुआ यह सौहार्द इस अर्थ में बहुत मूल्यवान है कि इसके बगैर उनकी वार्ता बीच में ही टूट जाती और बात जहां से शुरू हुई थी, फिर वहीं पहुंच जाती. लेकिन अभी बात ‘वेल बिगिन इज हॉफ डन ’ की स्थिति में है और क्षीण सी ही सही लेकिन उम्मीद बनी हुई है कि जो बात अभी ‘न पूरी तरह बनी और न बिगड़ी’ की हालत में है, चार जनवरी को पूरी तरह बन जायेगी.

इस बीच किसान अपना नये साल का जश्न भी पूरे जोशोखरोश के साथ मना चुके हैं, जिसे अन्यथा उन्हें उसको तल्खी और कड़वाहट के साथ मनाना पड़ता.


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प्रसंगवश, बुधवार की वार्ता के लिए किसानों ने अपना एजेंडा पहले ही तय कर दिया था ताकि सरकार के लिए बहुत इधर-उधर करके उसे निरर्थक करने की गुंजायश बचे ही नहीं. उनके एजेंडे के अनुसार सरकार पर्यावरण संबंधी कानून और बिजली बिल को लेकर उनकी बात मानने को पूरी तरह तैयार हो गई है, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर अपना रुख थोड़ा नरम किया है. अब सारा पेंच इसी पर फंसा है कि सरकार विवादित कृषि कानूनों को वापस नहीं लेना चाहती. हां, उसका यह प्रस्ताव अपनी जगह है कि किसानों की इस संबंधी मांग पर विचार के लिए एक समिति बना दी जाये.

आपको याद होगा, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी ऐसी एक समिति बनाने की बात कही गई थी और सरकार को सुझाया गया था कि उस समिति की सिफारिशों के आने तक इन कानूनों पर अमल रोक दे. लेकिन सरकार ने ऐसा करना गवारा नहीं किया. ऐसे में चार जनवरी की वार्ता का नतीजा स्वाभाविक ही इसी पर निर्भर करेगा कि किसानों के साथ सौहार्द का जो वातावरण बना है, उसे पूर्ण विश्वास तक पहुंचाने के लिए सरकार अपना अड़ियल रवैया छोड़ने को तैयार होगी या नहीं?

नहीं तैयार होगी तो यही माना जायेगा कि दरअसल, वह वार्ता नहीं कर रही, समय बिताने और आंदोलित किसानों को थकाने व उनका हौसला तोड़ने की चालाकी बरत रही है, ताकि निरंकुशता का अपना पुराना रिकार्ड कायम रख सके. भले ही आंदोलन कर रहे किसान मायूस होकर रह जायें. ऐसा करके वह यही सिद्ध करेगी कि उसके वार्ताकार किसानों के साथ खाना खाकर भी उनकी तकलीफों में साझीदार नहीं हो पाये और यही मानते रहे कि भीषण सर्दी में उनका दिन-रात राजधानी की सड़कों पर बैठे रहना विरोधी दलों की राजनीति से प्रेरित या कि उनका शगल है.

सोचिये जरा कि उसका यह सिद्ध करना इस आंदोलन की सफलता में अपना भविष्य तलाश रहे किसानों के प्रति कितना बेरहम होगा. लेकिन अभी से यह कल्पना क्यों की जाये कि उसकी ओर से यह बेरहमी ही बरती जायेगी, जबकि उसके पास मौका है कि वह आगे उनकी क्षमता को नजरअंदाज करने की गलती न दोहराये और समझे कि उनकी मांगों को मानकर वह न उनसे छोटी हो जायेगी, न उनके सामने झुकी हुई दिखेगी और न प्रधानमंत्री का इकबाल कम होगा, जिसका उनके कई ‘शुभचिंतक’ अंदेशा जता रहे हैं.

इसके उलट किसानों की मांगे मानने का अर्थ होगा कि सरकार ने देश के अन्नदाताओं का सम्मान करते हुए वह गलती सुधार ली, जो उनसे पूछे बिना उनकी तथाकथित बेहतरी के नाम पर तीन कानून बनाकर की थी. लोकतंत्र में ऐसे भूल-सुधार, उन्हें यू-टर्न कहा जाये तो भी, बहुत स्वाभाविक माने जाते हैं.

तिस पर यह यू-टर्न इस कारण भी बहुत स्वाभाविक है कि अब यह पोल खुल चुकी है कि तीनों विवादास्पद कृषि कानून कॉर्पोरेट को न सिर्फ किसानों बल्कि गरीबों तक को सताने के नये मौके उपलब्ध कराने वाले हैं और सच पूछिये तो किसान इस आंदोलन की मार्फत अपनी खेती-किसानी ही नहीं, समूचे देश को इन मौकों से बचाने के लिए संघर्षरत हैं.

इन मौकों को यों समझा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में एक कॉर्पोरेट कंपनी ने 22 किसानों के साथ दो करोड़ का करार कर उन्हें जो चेक दिया, वह बाउंस हो गया जिसके फलस्वरूप किसानों के हाथ कुछ नहीं आया.

ऐसे में केंद्र सरकार से यह सवाल भी पूछा ही जाना चाहिए कि क्या वह इसकी गारंटी दे सकती है कि इन कानूनों के रहते किसानों से ऐसी ठगी आगे नहीं होगी? अगर नहीं तो वह किसानों से उनका रहा-सहा सुरक्षा चक्र भी क्यों छीन रही है? जैसा कि कई प्रेक्षक सुझा रहे हैं, बेहतर होगा कि चार जनवरी की वार्ता में वह मेज के उस तरफ आकर निर्णय ले, जहां से किसानों की मुश्किलें, एतराज और नज़रिया उसे साफ समझ आए.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)


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