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Saturday, 4 May, 2024
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जम्मू कश्मीर की राजनीति में लौटने को ‘मजबूर’ आज़ाद

लगभग 16 साल बाद वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद का जम्मू स्थित प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में आना साफ कर गया है कि उनके सितारे गर्दिश में हैं और वे वापस जम्मू कश्मीर की राजनीति में लौटने की फिराक में हैं.

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जम्मूः गत दिवस लगभग 16 साल बाद वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद का जम्मू स्थित प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में आना साफ कर गया है कि आज़ाद के सितारे इन दिनों गर्दिश में हैं और वे वापस जम्मू कश्मीर की राजनीति में लौटने की फिराक में हैं.

यह इसलिए भी बड़ी खबर बन रही है, क्योंकि इन 16 सालों में आज़ाद कई बार अपने गृह राज्य में आए पर एक बार भी प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय नहीं गए.


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दरअसल, उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी पद से हटाए जाने के बाद से ग़ुलाम नबी आज़ाद हाशिए पर दिखाई दे रहे हैं. राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए सीमित अवसरों को देखते हुए ही आज़ाद फिलहाल वापस जम्मू कश्मीर की राजनीति में लौट आने की संभावनाएं तलाशने लगे हैं. इसी सिलसिले में उन्होंने गत दिवस जम्मू का दौरा किया और राज्य की राजनीति की नब्ज़ टटोलने की कोशिश की. जानकारों के अनुसार कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तरफ से भी साफ संकेत हैं कि आज़ाद जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस की कमान संभालें.

गुलाम नबी आज़ाद का ताज़ा दौरा साफ संकेत दे रहा है कि बदल रही राजनीतिक परिस्थितियों में आज़ाद अपने गृह राज्य में ही अपने लिए राजनीतिक आश्रय ढूंढ़ने को मजबूर हो रहे हैं.

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उल्लेखनीय है कि जब-जब गुलाम नबी आज़ाद पर राजनीतिक संकट आया है उन्हें अपने गृह राज्य जम्मू कश्मीर की याद आई है. इस बार भी ऐसा ही हो रहा है. हालात ऐसे बन रहे हैं कि आज़ाद के लिए प्रदेश की राजनीति में वापस लौटना आवश्यक हो चला है. लेकिन अपनी आदत के अनुसार आज़ाद ऐसा कोई संकेत नहीं देना चाहते कि वे किसी मजबूरी में जम्मू कश्मीर की राजनीति में लौट रहे हैं. उनकी कोशिश है कि संदेश यह हो कि जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस को उनकी ज़रूरत है न कि उनकी कोई अपनी राजनीतिक मजबूरी.

इसी सोची समझी रणनीति के तहत जम्मू कश्मीर में बैठे उनके समर्थक उनके लिए बकायदा ज़मीन तैयार करने में जुट गए हैं. स्थानीय नेता बक़ायदा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मांग कर रहे हैं कि आगामी संसदीय व विधानसभा चुनाव को देखते हुए जम्मू कश्मीर में आज़ाद को ही सारी ज़िम्मेवारी सौंपी जाए. इस सारी क़वायद के पीछे आज़ाद का ही इशारा माना जा रहा है.

दोहराया जा रहा है 2002

2002 में भी कुछ इसी तरह का राजनीतिक नाटक खेला गया था. उस समय भी अचानक राष्ट्रीय राजनीति में कमजोर होने पर ग़ुलाम नबी आज़ाद जम्मू कश्मीर की राजनीति में चले आए थे.

गुलाब नबी आज़ाद के इशारे पर ही 2002 में भी जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस में उनके समर्थकों ने बक़ायदा प्रस्ताव पारित कर कांग्रेस आलाकमान से मांग की थी कि आज़ाद को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी जाए. कईं दिनों तक आज़ाद समर्थक नेता दिल्ली कार्यालय में बैठ रहे थे और अंत में आलाकमान को झुकना पड़ा था और कांग्रेस आलाकमान ने गुलाम नबी आज़ाद को जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया था. बाद में कांग्रेस ने उनके नेतृत्व में ही 2002 का विधानसभा चुनाव भी लड़ा.

हालांकि, उस समय गुलाम नबी आज़ाद का खुद का कहना था कि ‘वे राज्य की राजनीति में आने के इच्छुक नहीं थे पर जम्मू कश्मीर कांग्रेस कार्यकर्ताओं का सम्मान रख कर ही राज्य की राजनीति में आए हैं.’

2002 में राज्य की राजनीति में आने पर गुलाम नबी आज़ाद का जादू भी खूब चला व लगभग मृत पड़ी कांग्रेस एकाएक ज़िंदा भी हो उठी. चुनाव में कांग्रेस ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और पार्टी ने बाद में पीडीपी के साथ मिल कर जम्मू कश्मीर में सरकार भी बनाई. आज़ाद 2005 में राज्य के मुख्यमंत्री भी बने.

राजनीति के मौसम वैज्ञानिक

70 वर्षीय गुलाम नबी आज़ाद को राजनीति का धुरंधर खिलाड़ी माना जाता रहा है. उन्हें देश के उन राजनीतिक नेताओं में गिना जाता है जो राजनीति के ‘मौसम वैज्ञानिक’ हैं और ठीक वक़्त पर बदलते राजनीतिक मौसम को पहचान लेने के माहिर हैं. लगभग 50 वर्षों से राजनीति में सक्रिय आज़ाद किस्मत के बेहद धनी रहे हैं और राजनीति में उनके अधिकतर दांव सही साबित हुए हैं.

इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, सीता राम केसरी और सोनिया गांधी सहित सभी के दौर में आज़ाद ने अपने पत्ते बड़ी परिपक्वता से खेलें हैं और कांग्रेस के भीतर अपनी अहमियत बनाए रखी. लगभग सभी के दौर में उन्होंने अपनी ताकत का लोहा मनवाया है. कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो उन्होंने अपने विरोधियों को पटखनी ही दी है.

जम्मू कश्मीर के एक बेहद पिछडे़ और दुर्गम क्षेत्र में पैदा होने के बावजूद जिस ढंग से उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में अपने को स्थापित किया वह अपने आप में एक मिसाल है. उनके पैतृक गांव में आज भी मूलभूत सूविधाओं का आभाव है.

इसे उनके सितारों का कमाल ही कहा जाए या कुछ और कि राष्ट्रीय राजनीति में बेहद कामयाब रहने के बावजूद 1973 से राजनीति में सक्रिय आज़ाद को अपने राज्य से पहला चुनाव जीतने के लिए लगभग 30 साल का इंतज़ार करना पड़ा. उन्होंने अपने जीवन का पहला विधानसभा चुनाव 1977 में जम्मू कश्मीर के इंद्रवाल क्षेत्र से लड़ा पर बुरी तरह से चुनाव हार गए. यहां तक कि अपनी जमानत भी नहीं बचा सके. राज्य से 2006 में जो पहला चुनाव जीता भी वो राज्य का मुख्यमंत्री रहते हुए जीता. जबकि तब तक वे राज्य से बाहर 1980 व 1984 में वाशिम (महाराष्ट्र) से लोकसभा चुनाव जीत चुके थे. 1989 से आज़ाद लगभग लगातार राज्यसभा के सदस्य के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रहे हैं.

प्रदेश कांग्रेस पर गहरी पकड़

यह भी एक सच्चाई है कि गुलाम नबी आज़ाद के जम्मू कश्मीर लौटने से प्रदेश कांग्रेस को ज़बर्दस्त लाभ मिल सकता है. इस समय प्रदेश कांग्रेस की हालत बेहद खराब है व जबर्दस्त गुटबंदी का शिकार है. अगर आज़ाद वापस लौटते हैं तो निष्क्रिय पड़ी कांग्रेस फिर से जिंदा हो सकती है.

उल्लेखनीय है कि गुलाम नबी आज़ाद की प्रदेश कांग्रेस पर ज़बर्दस्त पकड़ है. कईं गुटों में बंटी हुई प्रदेश कांग्रेस को एकसूत्र में पिरोने की क्षमता आज़ाद में ही है. प्रदेश कांग्रेस में कईं गुट हैं, मगर इन सभी गुटों का ‘रिमोट कंट्रोल’ आज़ाद के पास ही है. सभी गुट व नेता आज़ाद को ही अपना नेता मानते हैं और आज़ाद के कहे अनुसार ही अपनी राजनीति करते रहे हैं.

ऐसी दिलचस्प स्थिति शायद ही किसी दूसरे राज्य में हो, जहां गुट तो कई हों पर निर्विवाद रूप से नेता एक ही व्यक्ति हो. पर जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस में ऐसा ही है, नेता व गुट तो कईं हैं पर सबका नेता एक ही है- गुलाम नबी आज़ाद. हालांकि यह भी एक बड़ा रहस्यमय सवाल है कि जब सबका नेता एक ही है तो इतने गुट क्यों हैं?

मगर जो भी हो आज़ाद के मुकाबले का प्रदेश कांग्रेस में दूसरा कोई नेता भी नहीं है. अपने कुशल प्रबंधन शैली व विशाल व्यक्तित्व से विभिन्न गुटों में बंटी प्रदेश कांग्रेस को सक्रिय करने की क्षमता उन्हीं के पास है.

जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस में इस स्थिति का जब तब गुलाम नबी आज़ाद पूरा लाभ भी उठाते रहे हैं और आलाकमान को अपनी ‘ताकत’ का अहसास भी कराते रहे हैं. अपने को राष्ट्रीय राजनीति में हमेशा प्रासंगिक व ताकतवर बनाए रखने के लिए उन्होंने बेहद ख़ूबसूरती के साथ अपने गृह राज्य की राजनीति का इस्तेमाल किया है.

हालांकि, इसका भले ही उन्हें अपनी राजनीति चमकाने का लाभ मिला हो पर प्रदेश कांग्रेस हमेशा लड़खड़ाती ही रही है. उनके दखल के कारण जम्मू कश्मीर में कभी भी कांग्रेस मजबूत नहीं बन सकी. आज़ाद के ‘हस्तक्षेप’ व ‘प्रभाव’ के कारण कोई भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कभी भी कामयाब नहीं हो सका.

प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में गुलाम रसूल कार, चौधरी महोम्मद असलम, महोम्मद शफी कुरैशी, पीरज़ादा महोम्मद सईद, सैफूद्दीन सोज़ आदि के असफल रहने के पीछे कहीं न कहीं आज़ाद की ‘दखलंदाजी’ तो जिम्मेवार रही ही, वहीं आज़ाद के विशाल व्यक्तित्व के आगे कोई ठहर भी नहीं सका. मौजूदा अध्यक्ष जी ए मीर को भी अपना काम करने में कठिनाई आ रही है और आज़ाद समर्थकों से उन्हें सहयोग नहीं मिल रहा है.


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दिल दिल्ली में

हालांकि, यह भी एक सच है कि गुलाम नबी आज़ाद का दिल हमेशा दिल्ली में ही लगा है. अपने राजनीतिक लाभ के लिए भले ही उन्होंने हमेशा जम्मू कश्मीर की राजनीति में दखल रखा हो पर नियमित रूप से कभी भी उन्होंने अपने आप को जम्मू कश्मीर की राजनीति में पूरी तरह से नहीं डुबोया. आज़ाद प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख भी रहे और प्रदेश के मुख्यमंत्री भी पर उनकी प्राथमिकता हमेशा दिल्ली ही रही है. राज्य का मुख्यमंत्री रहते हुए भी हर शनिवार को दिल्ली जाना और सोमवार को वापस लौटना उनके कार्यक्रम का हिस्सा रहता था. यहां यह उल्लेखनीय है कि आज भी आज़ाद जम्मू कश्मीर से ही राज्यसभा सदस्य हैं.

(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं .लंबे समय तक जनसत्ता से जुड़े रहे अब स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं .)

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