मातृ सदन के गुरू स्वामी शिवानंद पर जिम्मेदारी बहुत बड़ी आन पड़ी है. वे जरूर समझते होंगे कि चालाकी और ताकत के इस दौर में संतों की सहृदयता बार–बार घायल हो रही है. वे भरोसा करने का अपना आचरण छोड़ने को तैयार नहीं और सरकार को धोखा देने की पुरानी आदत.
गंगा आंदोलन का गढ़ बने मातृ सदन में इस बार साध्वी पद्मावती अनशन पर बैठी हैं. 15 दिसंबर से प्रारंभ उनके अनशन को एक माह से ज्यादा हो गया लेकिन अब तक जलशक्ति मंत्रालय ने पद्मावती से कोई संवाद नहीं किया. देशभर में फैले पर्यावरणविद् इस आंदोलन के समर्थन में खड़े है लेकिन साथ ही डरे हुए भी हैं. ऐसा नहीं कि मातृशक्ति पर उन्हें कम भरोसा है लेकिन उनकी आशंका गैर वाजिब भी नहीं है, क्योंकि पिछले अनुभव सरकार पर भरोसा करने से रोक रहे हैं.
पिछले साल मातृ सदन के हरिद्वार स्थित आश्रम में संत आत्मबोधानंद ने लंबा अनशन किया था. यह अनशन जीडी अग्रवाल की मौत के बाद प्रारंभ किया गया था. इस लंबे चले अनशन से सरकार बचावमुद्रा में आ गई और 17 अप्रैल 2019 को हुई एक मिटिंग में प्रधानमंत्री के सचिव नृपेंद्र मिश्र ने यह वादा किया कि सरकार ‘no new dams’ का नोटिफिकेशन जारी करेगी. यह नोटिफिकेशन उसी दिन जारी होना था जिस दिन आम चुनाव खत्म हो रहे थे यानी 19 मई 2019 को. मातृ सदन ने नृपेंद्र मिश्र के वादे पर यह सोच कर भरोसा कर लिया कि आवाज प्रधानमंत्री की ही है और 4 मई को आत्मबोधानंद ने अपना 195 दिन पुराना अनशन तोड़ दिया.
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चुनाव के बाद एक फिर स्वामी शिवानंद की मुलाकात नृपेंद्र मिश्र से हुई जिसमें उन्होंने ‘no new dams’ पर आदेश जारी करने से साफ इंकार कर दिया. बेशक उनके इंकार के कारण रहे होंगे. लेकिन गंगा आंदोलन से जुड़े लोग खुद को ठगा महसूस कर रहे थे. यह भी आवाज उठी कि आत्मबोधानंद को सिर्फ मौखिक आश्वासन पर इतने समय से चला आ रहा अनशन नहीं तोड़ना था. जबकि जीडी अग्रवाल का अनुभव उनके सामने था.
हुआ यह था कि जीडी अग्रवाल के अनशन शुरू करने के कुछ ही दिन पहले तात्कालीन गंगा संरक्षण मंत्री नितिन गडकरी ने मीडिया में बयान दिया था कि गंगा पर अब कोई नए बांध नहीं बनेंगे लेकिन अग्रवाल ने उनके मौखिक बयान पर भरोसा करने से इंकार कर दिया और अपना अनशन शुरू कर दिया. उनका अंदेशा सही था गडकरी का वह वादा, वादा ही बनकर रह गया.
इस पृष्ठभूमि में पद्मावती का अनशन बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है. यदि उनके स्वास्थ्य कारणों से या सरकारी – सामाजिक दवाब में उनका अनशन समाप्त किया जाता है तो यह लड़ाई काफी पीछे चली जाएगी. पहले भी गोपाल दास के अनशन और उनके असंतुलित व्यवहार से गंगा आंदोलन को नुकसान ही हुआ है.
यह भी सवाल है कि पद्मावती का अनशन शिवानंद की व्यक्तिगत लड़ाई में तब्दील ना हो जाए. उनके अनशन की मांगों से यह अंदेशा साफ जाहिर होता है. एक नजर उन मांगों पर डाल लीजिए.
1- गंगा पर प्रस्तावित और निर्माणाधीन सभी बांधों को निरस्त किया जाए. इनमें भी चार खास हैं – सिंगौली भटवारी, फाटा ब्युंग, तपोवन विष्णुगाड और विष्णुगाड पीपलकोटी.
2- जो बांध पहले से बने हुए है उनमें ई- फ्लो सुनिश्चित किया जाए. जैसा कि आईआईटी कंसोर्डियम ने सिफारिश की थी. यानी कम से कम पचास फीसद.
3- खनन पर एनएमसीजी के पूर्व आदेश का पालन किया जाए और इस पर नोटिफिकेशन जारी हो. (अग्रवाल के अनशन के समय खनन पर रोक लगाने का एनएमसीजी का आदेश था, जो आज भी कागजों पर ही है.)
4- गंगा एक्ट संसद में जाने से पहले चर्चा के लिए रखा जाए. और इसमें सभी पक्षों की राय ली जाए.
5- एनजीटी के जज राघवेंद्र राठौर को गंगा द्रोही घोषित किया जाएं और उन्हे निलंबित कर उच्चस्तरीय जांच हो.
और आखिरी मांग में साफ लिखा है –
6- हरिद्वार के एसएसपी सेंथिल अबुदई किशन राज को निलंबित किया जाए. क्योंकि उन्होने मातृ सदन के स्वामी शिवानंद को मारने की कोशिश की है.
पद्मावती की छह में से चार मांगें वहीं है जो जीडी अग्रवाल की भी थी. लेकिन उनकी पांचवी और छटवीं मांग दूसरी चिंता जाहिर करती है. जो बता रही है कि लड़ाई नीतिगत ना होकर व्यक्तिगत हो रही है.
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बेशक मातृ सदन एक बड़ी लड़ाई लड़ रहा है लेकिन उसे अनशन की मांगों पर स्पष्ट होना ही चाहिए. यह अनशन सिर्फ और सिर्फ गंगा के लिए है. अंतिम दो मांगें सरकार को ‘बात ना करने के लिए’ आधार प्रदान करती हैं. शिवानंद जी जरूर समझते हैं – इस बार पीछे हटे तो नुकसान बड़ा होगा.
एक ओर नमामि गंगे के अधिकारी हैं जो पद्मावती की हिम्मत टूटने का इंतजार कर रहे हैं. वे जानते है कि सरल लोगों को कैसे वायदों और कागजों में उलझाया जाता है. दूसरी ओर पद्मावति है जिनकी लड़ाई कई मोर्चों पर है. उन्हे हिम्मत बना कर रखनी है और खुद को कठपुतली भी नहीं बनने देना है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)