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Friday, 19 April, 2024
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1962 से लेकर यूक्रेन तक- भारत की गुटनिरपेक्ष नीति के लिए तीन सबक

जैसे कि अतीत में अक्सर कई बार हो चुका है, नई दिल्ली जिसे 'रणनीतिक स्वायत्तता' कहती है, वह दरअसल कठिन विकल्पों को टालने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सिर्फ एक सजी-संवरी भाषा हो होती है.

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चीन के एक परमाणु शक्ति के रूप उदय का संकेत देते हुए लोप नूर के मैदानों के ऊपर एक विशालकाय ‘मशरूम क्लाउड’ के उठने से ठीक नौ दिन पहले पेंटागन के अधिकारियों ने एक संक्षिप्त सी चेतावनी जारी की थी: ‘वे अब परीक्षण के लिए तैयार हैं.’ साल 1964 की वसंत ऋतु से ही संयुक्त राज्य अमेरिका के यू2 जासूसी-विमानों ने ओडिशा के चारबटिया में स्थित इंटेलिजेंस ब्यूरो (आई बी) के स्टेशन से गुप्त मिशनों का संचालन शुरू कर दिया था, हालांकि इसे भारत ने कभी खुले तौर पर स्वीकार नहीं किया. 21,000 मीटर से अधिक ऊंचीं उड़ान भरने वाले और वायु-रक्षा प्रणालियों की पहुंच से काफी दूर उड़ने वाले यू2एस विमानों ने अमेरिका को चीन के सबसे क़ीमती रहस्यों के बारे में यह ‘दिव्य दृष्टि’ प्रदान की थी.

अब जब कि हम भारतीय, यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की निंदा करने से इनकार करने से संबंधित गुण-दोष पर बहस कर रहे हैं, ये गुप्त उड़ानें उस गहरी अस्पष्टता की ओर इशारा करती हैं जो इस देश की विदेश नीति के रुख को रेखांकित करती हैं. सच तो यह है कि भारत की गुटनिरपेक्षता हर समय पूरी तरह से गुटनिरपेक्ष नहीं रही थी. इसके अलावा, इस तरह की फेन्स सिटिंग (सीमा पर बैठकर इंतजार करते रहने) कभी भी भारत को महान शक्तियों के बीच की आपसी प्रतियोगिता में दांव पर लगाए जाने से नहीं बचा सकी.


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कभी भी गुटनिरपेक्ष नहीं थी हमारी गुटनिरपेक्षता

साल 1956 से ही अमेरिका के विदेश मामलों की ख़ुफ़िया एजेंसी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने तिब्बत में चीनी शासन के खिलाफ सिर उठाने वाले विद्रोहियों को प्रशिक्षण और हथियार देना शुरू कर दिया था. हालांकि, इन बागियों को साजो-सामान की आपूर्ति करने वाली सीआईए की ये गुप्त उड़ानें उस समय के पूर्वी पाकिस्तान में स्थित चटगांव के पास के ठिकानों से संचालित हुआ करती थीं, लेकिन वे भारतीय वायु क्षेत्र से होकर भी गुजरती थीं. पूर्व खुफिया अधिकारी और विद्वान लेखक ब्रूस रीडेल ने लिखा है कि सीआईए अधिकारी रिचर्ड हेल्म्स ने इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक बी.एन. मलिक को इस सारे ऑपरेशन के बारे में साल 1960  में हवाई में हुई एक गुप्त बैठक के दौरान जानकारी दी थी.

रीडल कहते हैं, ‘मलिक ने इस परियोजना पर कभी कोई आपत्ति नहीं जताई. हालांकि, उन्होंने अमेरिकियों को चेतावनी दी थी कि अगर सीआईए का एक भी गुप्त विमान भारतीय क्षेत्र में दुर्घटनाग्रस्त हो गया तो यह भारत- अमेरिका संबंधों के लिए एक बहुत ही हानिकारक झटका होगा.’

जिन कारणों की वहज से नई दिल्ली ने सीआईए की मदद करने का विकल्प चुना, वे कभी भी अस्पष्ट नहीं थे. भारत के आधिकारिक युद्ध इतिहास से पता चलता है कि नई दिल्ली ने 1950 में चीन के प्रति चलाए जा रहे तिब्बती प्रतिरोध का समर्थन करने के लिए अपने सैन्य बलों का उपयोग करने की संभावना पर भी विचार किया था. भारत सरकार बखूबी जानती थी कि हमारे लिए एक रणनीतिक खतरा उभर रहा है, लेकिन अंततः उसने यह निष्कर्ष निकाला कि उसके पास इससे लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे. हालांकि, 1950 के दशक के मध्य से ही सीआईए इस मसले पर नई दिल्ली के हिस्से का काम कर रही थी.

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चीन के तत्कालीन विदेश मंत्री, झोउ एनलाई, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के इस बारे में जताये विरोधों से कभी भी सहमत नहीं हुए कि उन्हें सीआईए के खुफिया अभियानों के बारे में कुछ भी नहीं पता था. चीन सम्बन्धी मामलों के विद्वान् (सिनोलॉजिस्ट) जॉन गार्वर ने निष्कर्ष निकाला कि ‘अमेरिकी गुप्त अभियानों में भारतीय भागीदारी की वास्तविक सीमा जो भी रही हो, बीजिंग का हमेशा से मानना था कि नेहरू सीआईए के प्रयासों के बारे में जानते थे और उनमें सहयोग भी करते थे.’ इसी तरह, रीडेल ने दावा किया कि सीआईए के ‘गुप्त ऑपरेशन ने भारत पर आक्रमण करने के माओ के फैसले में एक भूमिका निभाई थी.’

पूर्व सिविल सर्वेंट सुनील खत्री ने (विवादास्पद रूप से) तर्क दिया है कि अमेरिका का वास्तविक उद्देश्य तिब्बत को स्वतंत्रता दिलाना नहीं था, बल्कि भारत और चीन के बीच आपसी संदेह के बीज बोना और इस तरह गुटनिरपेक्ष आंदोलन को ख़त्म करना था. सीमित संख्या में खुलासा किये गए दस्तावेजों (डीक्लासिफाइड मटीरियल) में ऐसे कोई सबूत नहीं है कि यह सारा मामला इस बारे में था – लेकिन इसका आखिरी नतीजा वास्तव में बिल्कुल वैसा ही था.

साल 1955 के बाद से ही हिमाचल प्रदेश के बाराहोती, हिप्की ला और कौरिक तथा लद्दाख के हिप्संग खुद में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की एक-के-बाद-एक घुसपैठ का सिलसिला जारी रहा था. इसने लद्दाख में खुर्नक फोर्ट पर कब्जा कर लिया गया था, और स्पंगगुर और डिगरा में सैनिक चौंकियां स्थापित की गई थी. 1962 के युद्ध से बहुत पहले ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन माओत्से तुंग ने हिमालय के पार रेखायें, वह भी खून से, खींचनीं शुरू कर दी थीं.

भारत ने संयुक्त राज्य अमेरिका के अत्यंत करीबी के रूप में देखे जाने की कीमत चुकाई – और वह भी बिना उस लाभ के जो एक गहरी साझेदारी के तहत उसके हाथ आया होता.

दो महाशक्तियों के बीच पिसता भारत 

साल 1962  की जंग के बाद  नेहरू ने भारत को पश्चिम देशों के साथ घनिष्ठता की ओर ले जाना शुरू कर दिया. साल 1963 में, यूएस, ग्रेट ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के प्रशिक्षक भारतीय वायु सेना के पायलटों को प्रशिक्षण दे रहे थे. भारतीय थल सेना के छह पर्वतीय (माउंटेन) डिवीजनों को अमेरिकी साजो-सामान (हार्डवेयर) के साथ फिर से लैस किया गया. सीआईए ने भारत की गुप्त इकाई ‘स्पेशल फ्रंटियर फोर्स’ को आठ सी-46 परिवहन विमान (ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट) और चार छोटे विमानों की आपूर्ति की. हालांकि, इस मदद की कुछ सीमाएं भी थीं: पश्चिम का पाकिस्तान के साथ एक संधि आधारित संबंध (ट्रीटी रिलेशनशिप) था, और वह अपने कम्युनिस्ट विरोधी सहयोगी को छोड़ने को तैयार नहीं थे.

विद्वान लेखक पीआर चारी ने लिखा है कि, 1954 के बाद से पाकिस्तान ने पश्चिम के साथ अपने कम्युनिस्ट विरोधी गठबंधन के माध्यम से अपनी सेना का विस्तार किया था. बदले में, उसने ऐसी सैन्य संपत्ति अर्जित की जिसका उपयोग भारत के विरुद्ध भी किया जा सकता था. इस प्रकार की सहायता ने उसे अपने पूर्वी पड़ोसी, भारत, के साथ सैन्य समानता जैसी लगने वाली ताकत हासिल करने में सक्षम बनाया, जिसे वह महान शक्ति वाले सहयोगियों के बिना हासिल नहीं कर सकता था.

साल 1962 के युद्ध के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका के जनरल मैक्सवेल टेलर ने भारत की सैन्य जरूरतों का अध्ययन करने के लिए नई दिल्ली का दौरा किया. उन्होंने टिप्पणी की, ‘भारतीय, चीन को नियंत्रित करने के सामान्य उद्देश्य के साथ एक क्षेत्रीय सुरक्षा समुदाय के हिस्से के रूप में – कम-से-कम परोक्ष रूप से, खुद को देखने के लिए तैयार थे.’ मगर, भारत स्वयं को एक व्यापक साम्यवादी विरोधी गठबंधन में शामिल किये जाने के लिए तैयार नहीं था – और यह अवसर हाथ से चला गया.

अमेरिका द्वारा भारत को ऍफ़ 104 लड़ाकू विमान  – जिसे वह पहले से ही पाकिस्तान को बेच चुका था – बेचे जाने की पेशकश नहीं किए जाने के वाशिंगटन के फैसले से हताश होकर – और  पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर रियायतें हासिल करने के लिए हथियारों की सहायता का लाभ उठाने के अधकचरे प्रयासों से तंग आकर – प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इसके बजाय सोवियत संघ के साथ सौदा कर लिया. सोवियत संघ के साथ हमारा गठबंधन 1971 में तब अपने चरम पर पहुंच गया, जब मास्को ने अमेरिकी दबाव के खिलाफ भारत को बांग्लादेश अभियान को सुरक्षित रूप से पूरा करने में मदद की.

हालांकि, अन्य विकल्पों की ही तरह, इसकी भी एक कीमत थी. साल 1972 के बाद से, इस्लामाबाद ने चीन के साथ अपने घनिष्ठ संबंधों का लाभ उठाते हुए अमेरिका और चीन के बीच के संपर्क सूत्र के रूप में काम किया. बाद में, वह अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा वित्त पोषित सोवियत-विरोधी युद्ध के लिए एक लॉन्च पैड के रूप में उभरा.

इस प्रकार, पाकिस्तान ने अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए खुली छूट के साथ-साथ अत्याधुनिक पश्चिमी सैन्य उपकरणों की उदार आपूर्ति सुनिश्चित कर ली. इसने भारतीय सैन्य प्रतिक्रियाओं को बाधित किया, विशेष रूप से खालिस्तान और कश्मीर विद्रोह के सन्दर्भ में.


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वर्तमान के लिए सबक

कई भारतीयों के नजरिए से भारत सिर्फ अपने हित में खड़ा हो रहा है. उनका तर्क यह है कि चूंकि यूरोपीय और अमेरिकी पक्ष वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत के पीछे खड़े नहीं हुए थे, इसलिए नई दिल्ली को भी यूक्रेन मुद्दे पर पश्चिम का पक्ष नहीं लेना चाहिए.

परन्तु, यह पूरा सच नहीं भी हो सकता है. पूर्व अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने स्पष्ट रूप से कहा, ‘चीन का उल्लेख करने में संयम बरतने के बात भारत से ही आती है, जो चीन को गहरी चोट देने को लेकर बहुत चिंतित है.’

उनका यह दावा एकदम से अकल्पनीय भी नहीं है: आखिकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही घोषणा की थी कि एलएसी पर भारतीय क्षेत्र का कोई अतिक्रमण नहीं किया गया है. अब जिस तरह की शक्तिशाली भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है, उसकी जगह नई दिल्ली ने चीन के साथ किसी सीधे सैन्य संघर्ष में शामिल होने का विरोध किया, शायद यह महसूस करते हुए कि वह खुद को एक बहुत ही विषम द्वन्द के तहत हारने वाले पक्ष के रूप में खड़ा पा सकता है.

जैसे कि अतीत में अक्सर कई बार हो चुका है, नई दिल्ली जिसे ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ कहती है, वह दरअसल कठिन विकल्पों को टालने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सिर्फ एक सजी-संवरी भाषा हो होती है.

यहां तीन सबक महत्वपूर्ण है :-

पहली बात तो यह है कि गुटनिरपेक्षता द्वारा प्रदत्त स्वायत्तता, आंशिक रूप से, एक मिथक थी. महाशक्तियों द्वारा आकार दी जाने वाली इस दुनिया में, भारत को अनिवार्य रूप से किसी एक पक्ष के साथ किसी दूसरे पक्ष के खिलाफ गुप्त गठबंधन, जो उतना भी दबा-ढंका नहीं था,  करने के लिए मजबूर होना पड़ा. दूसरे, गुटनिरपेक्षता की भी अपनी कीमत होती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी गठबंधन की कीमत होती है. तीसरा, रणनीतिक स्वायत्तता और रणनीतिक आत्मनिर्भरता के बीच अंतर होता है. वैश्विक भू-राजनीति की धाराओं की अनदेखी करते हुए नई दिल्ली अकेली खड़ी नहीं हो सकती.

यह सच है कि पश्चिमी शक्तियों को रूस पर अपनी रक्षा सम्बन्धी मामलों में निर्भरता, विशेष रूप से महत्वपूर्ण परमाणु और मिसाइल प्रौद्योगिकियों के सन्दर्भ में, के बारे में भारत की वैध चिंताओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.

हालांकि,  तलवार की धार दुधारी होती है; भारत रूस और व्यापक दुनिया के सन्दर्भ में अपने भागीदारों की चिंताओं की अनदेखी करते हुए चीन के खिलाफ पश्चिमी देशों के खुले समर्थन को मांग नहीं कर सकता.

अब जब कि यूक्रेन में युद्ध के मैदानों से एक नया शीत युद्ध शुरू हो रहा है, भारत को अपने रणनीतिक परिप्रेक्ष्य (स्ट्रेटेजिक पाराडाइम) के मूलभूत तत्वों पर फिर से विचार करने और इस देश को दशकों से जकड़े हुए ‘खुद की ग़लतफ़हमी’ और ‘दिखावटी नैतिकता’ से मुक्ति दिलाने की आवश्यकता है.

(लेखक ट्विटर हैंडल @praveenswami से ट्वीट करते हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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