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Thursday, 2 May, 2024
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जब अवध के किसानों ने जमीनदारी और जागीरदारी के अंत की पटकथा लिखी

यह आंदोलन सामंती तथा साम्राजी हुकूमत के विरुद्ध किसानों की स्वतंत्र शक्ति का प्रदर्शन था. इसे भी ब्रिटिश सरकार ने बेहद क्रूरता व दमन से कुचला.

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देश में किसान आंदोलनों के दुर्दिन न होते तो इस साल की 17 अक्टूबर की तारीख बहुत महत्वपूर्ण होती, क्योंकि अवध में 1920-22 के जिस विकट किसान आंदोलन ने स्वाधीनता के तुरंत बाद जमीनदारी एवं जागीरदारी के खात्मे की पटकथा लिखी और जो सच्चे अर्थों में उत्तर भारत का पहला जन आंदोलन था, वह 1920 में प्रतापगढ़ जिले के रूरे नामक गांव से 17 अक्टूबर को ही आरम्भ हुआ था और इस 17 अक्टूबर से उसका शताब्दी वर्ष प्रारम्भ हो रहा है.

इतिहास की पुस्तकों में दर्ज है कि ब्रिटिश कालीन सामंती व्यवस्था के क्रूरतम उत्पीड़नों के विरुद्ध इस आंदोलन में किसानों ने अपने रक्त से भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ लिखा था. अलबत्ता, स्वाधीनता संग्राम से तालमेल रखते हुए.

ज्ञातव्य है कि 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान अवध की जनता ने, जिसमें किसानों की बहुतायत थी, अंग्रेजों की सत्ता ओर सेनाओं के खिलाफ जमकर मोर्चे लिये थे. उनके व्यापक उभार से डरे अंग्रेजों ने उक्त स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने के बाद जमीदारों, तालुकेदारों, रजवाड़ों को अपना प्रशासनिक आधार बनाया और उन्हें किसानों से निपटने की खुली छूट दे दी. बढ़ते लगान, बेदखली, नजराने व हरी-बेगारी के साथ दमन व अपमान की मार गहरी होती गयी तो किसानों का गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने सामंती एवं साम्राजी दमन व उत्पीड़न के विरुद्ध अप्रत्याशित संघर्ष में अपनी सारी ताकत झोंक दी.

इसकी शुरुआत प्रतापगढ़ जिले के रूरे ग्राम से 17 अक्टूबर, 1920 को हुई, जहां जमीनदारों द्वारा शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष के लिए ‘किसान सभा’ का गठन किया गया. आगे चलकर यह ‘अवध किसान सभा’ की मातृसंस्था बन गई. इसी गांव के गरीब किसानों झिंगुरी व सहदेव के नेतृत्व में इसके बैनर पर शुरू हुए किसान संघर्ष जमीनदारों व जागीरदारों के प्रभुत्व और साजिशों के आगे कमजोर पड़ने लगे तो किसानों के सौभाग्य से बाबा रामचंद्र, जो महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे तथा फिजी में गुलाम भारतीय मजदूरों को संगठित कर उनके लिए संघर्ष करने का अनुभव लेकर भारत लौटे थे, प्रतापगढ़ आ पहुंचे.

झिंगुरी व सहदेव ने उनसे संपर्क कर उन्हें किसानों को संगठित करने के लिए आमंत्रित किया. फिर मई, 1920 में उन्हीं के नेतृत्व में आंदोलन को नई धार दी गई. किसानों की मांगों के लिए कांग्रेस का समर्थन हासिल करने तथा उनके संघर्षों का राष्ट्रीय आंदोलन से तालमेल बिठाने के लिए बाबा रामचंद्र ने पांच सौ किसानों का जत्था लेकर इलाहाबाद तक लगभग 110 किलोमीटर का पैदल मार्च निकाला. यह जत्था छः जून, 1920 को इलाहाबाद पहुंचा मगर महात्मा गांधी से मुलाकात की उसकी हसरत अधूरी रह गई क्योंकि गांधी तीन जून को ही इलाहाबाद से वापस लौट गये थे. तब कांग्रेस के अन्य नेताओं पं. कृष्णकान्त मालवीय, पं. गौरीशंकर, पुरुषोत्तम दास टंडन तथा जवाहरलाल नेहरू ने उनका समर्थन कर सहायता देने का आश्वासन दिया.

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रायबरेली स्थित फिरोज गांधी कालेज के पूर्व प्राचार्य डाॅ. रामबहादुर वर्मा, जो इस किसान आंदोलन के इतिहास पर काम कर रहे हैं, बताते हैं कि, ‘इसके बाद बाबा ने बढ़े हुए मनोबल के साथ लगान न देने, बेदखली की जमीन को अन्य किसानों द्वारा लगान पर न लेने आदि के नारे देकर ‘सीधी कार्यवाही’ शुरू की, जो तेजी से गांव-गांव फैल गयी. बाबा ने ‘जय सीता राम’ का नारा दिया, जिसे सुनते ही किसान आनन-फानन में एकत्रित हो जाते थे. इससे अधिकारी घबराए और उन्होंने 28 अगस्त, 1920 को बाबा रामचंद्र व अन्य सक्रिय किसान कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया.

इस पर हजारों किसानों ने अदालत में ही आंदोलन शुरू कर दिया. 10 सितम्बर, 1920 को लगभग 20 हजार किसानों ने जेल के सामने 48 घंटे तक लगातार प्रदर्शन किया. इससे घबराये अधिकारियों ने बाबा तथा अन्य नेताओं को रिहा कर जमीदारों की ज्यादतियों एवं किसानों की शिकायतों की जांच के लिए डिप्टी कमिश्नर वीएन मेहता को नियुक्त किया.’

डाॅ. वर्मा के अनुसार इस ‘विजय’ ने अवध के किसानों में व्यापक हलचल पैदा की. रायबरेली, फैजाबाद, सुलतानपुर व बाराबंकी आदि जिलों में किसानों ने जमीदारों व तालुकेदारों के जुल्म के खिलाफ खुली बगावत कर दी-इसमें लगान न देने और जमींदारी को स्वीकार न करने का एलान भी शामिल था. हजारों किसानों के जत्थे एक जिले से दूसरे जिले मार्च कर पंहुचते व चेतना और संगठन फैलाते. इससे चिढ़े अंग्रेजो ने 7 जनवरी, 1921 को रायबरेली के मुंशीगंज में दूसरे जलियांवाला बाग कांड का अंजाम दे डाला.

बाबा रामचंद्र बाराबंकी में गिरफ्तार किये गए तो वहां के कमिश्नर ने बाराबंकी में मुकदमा करने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें आशंका थी कि इससे बाराबंकी, फैजाबाद व रायबरेली में किसान विद्रोह हो जाएगा. अन्त में बाबा को गुप्त रूप से लखनऊ जेल लाया गया, जहां मुकदमा करके दो वर्ष की कड़ी सजा दी गयी. लेकिन, आंदोलन के दबाव में सरकार को अवध रेंट ऐक्ट-1868 में संशोधन करना पड़ा, जिसके द्वारा सभी काश्तकारों को जमीन पर मालिकाना हक मिला.

किसानों के इन संघर्षों व आंदोलनों के ही एक अंग के रूप में नवंबर, 1921 में लखनऊ के मलिहाबाद से ‘एका’ आंदोलन शुरू हुआ, जो शीघ्र ही सीतापुर, हरदोई, बहराइच व बाराबंकी आदि में फैल गया. यह आंदोलन मुख्यतः अनाज के रूप में लगान न देकर निश्चित धनराशि के रूप में देने तथा उससे अधिक न देने के प्रश्नों को लेकर संगठित किया गया. गांवो में ‘एका समितियां’ बनाकर आंदोलन संगठित किया गया. इसमें बेदखली के प्रतिरोध, रसीद लेकर ही लगान देने, तालाबों से मुफ्त सिचाई तथा चारागाह व परती की जमीन पर मवेशी चराने के अधिकार आदि के सवाल उठाए गये. मदारी पासी व ख्वाजा अहमद इसके प्रमुख नेता थे. इसमें पंचायतों के आदेश को मानने व अदालतों में न जाने का भी आह्वान किया गया.


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यह आंदोलन सामंती तथा साम्राजी हुकूमत के विरुद्ध किसानों की स्वतंत्र शक्ति का प्रदर्शन था. इसे भी ब्रिटिश सरकार ने बेहद क्रूरता व दमन से कुचला. किसान कार्यकर्ताओं पर समानांतर प्रशासन चलाने से लेकर ‘डकैती’ व ‘बदमाशी’ तक के आरोप लगाकर तत्सम्बन्धी धाराओं में जेलों में बंद किया गया. किसानों के नेताओं को ही नहीं, आम किसानों को भी भीषण दमन बर्दाश्त करने पड़े.

फिर भी उनके आंदोलनों व संघर्षों की लहर तभी दबी, जब महात्मा गांधी द्वारा चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने की घोषणा कर दी गई. लेकिन तब तक ये आंदोलन स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन पर गहरी छाप छोड़ चुके थे. इसके फलस्वरूप कांग्रेस को जमीनदारी व जागीरदारी उन्मूलन को अपने एजेंडे में शामिल करना पड़ा. आगे चलकर बीसवीं शताब्दी के चौथे और पांचवें दशक में भी देश के अनेक भागों में जुझारू किसान आंदोलन फूट पड़े, जिनके दबाव में स्वाधीनता के तुरंत बाद कांग्रेस सरकार को जमीदारी एवं जागीरदारी प्रथा के खात्मे के कदम उठाने पड़े.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

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