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Tuesday, 17 December, 2024
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एकनाथ रानडे- RSS का ऐसा प्रचारक जिसने विवेकानंद शिला स्मारक के लिए सभी विचारधाराओं को एक कर दिया

विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माता और विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के संस्थापक एकनाथ रानडे जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे, उन्होंने स्वामी विवेकानंद के स्मारक के लिए सब विचारधाराओं को भारतीयता के रंग में रंग दिया.

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राजनैतिक-वैचारिक मतभेद, कटुता और द्वेष की खबरें तो हम अधिकतर पढ़ते और सुनते रहते हैं लेकिन अगर राजनीति को अलग कर दें तो अधिकतर राजनेता सकारात्मक कार्यों में साथ आ सकते हैं. वह राजनीति का चोला ही है जो राजनेताओं से ऐसे कार्य भी करवाता है जिसका उस राजनेता से कोई संबंध नहीं है.

विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माता और विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के संस्थापक एकनाथ रानडे जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे, उन्होंने स्वामी विवेकानंद के स्मारक के लिए सब विचारधाराओं को भारतीयता के रंग में रंग दिया. वामपंथी नेता ज्योति बसु से भी मिले और उनकी धर्मपत्नी कमला बसु ने तो समारक निर्माण के लिए धन संग्रह में सहभागिता भी दिखाई.

समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया से भी स्मारक निर्माण में हस्ताक्षर करवा कर रानडे ने सहयोग लिया तो भारत के दूसरे प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री से मार्गदर्शन लेकर स्मारक के कार्य को गति प्रदान की.

शेख अब्दुल्ला और हरियाणा के तब के मुख्यमंत्री ताऊ देवी लाल से मिलकर उनको भी कार्य से जोड़ा तो करूणानिधि और इंदिरा गांधी को भी. यह सब कुछ इसलिए संभव हो सका क्योंकि स्मारक स्वामी विवेकानंद का था और इसका कार्य एकनाथ रानडे देख रहे थे.


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विवेकानंद शिला स्मारक

जैसे बोधगया का बोधीवृक्ष गौतम बुद्ध से जुड़ा हुआ है, वैसे ही कन्याकुमारी में स्थित विवेकानंद शिला (जहां आज विवेकानंद शिला स्मारक है) स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हुई है.

स्वामी विवेकानंद ने यहां 25-27 दिसंबर 1892 को 3 दिन 3 रात साधना की थी और यहीं उनको अपने जीवन का उद्देश्य मिला था. उस शिला पर आज एक भव्य राष्ट्र स्मारक है जिससे हम सब विवेकानंद शिला स्मारक के नाम से जानते हैं. स्मारक को 2020 में 50 वर्ष पूर्ण हुए हैं. इस स्मारक के निर्माण के पीछे एक प्रेरणादायी और रोचक कथा है.

स्मारक को बनने में लगभग 6 वर्ष का समय लगा था और यह कार्य इसलिए व्यवस्थित पूर्ण हुआ क्योंकि इसके पीछे एक ऐसा चरित्र था जिनका उनके काम से परिचय होता है. वह है विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माता और विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के संस्थापक एकनाथ रानडे .

विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के दौरान चाहे प्रशासनिक और राजनैतिक अनुमति लेने का कार्य हो या 3 दिन में 323 सांसदों के स्मारक के समर्थन में हस्ताक्षर करवाना हो, हर राज्य के मुख्यमंत्री से सफलतापूर्वक सहयोग राशि लेनी हो या सम्पूर्ण भारत से 30 लाख लोगों (उस समय भारत की 1 प्रतिशत युवा जनसंख्या) से 1, 2, या 3 रुपए भेंट सवरूप लेकर उनको स्मारक से जोड़ना हो, एकनाथ रानडे ने हर कार्य निपुणता के साथ किया.


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संघ के प्रचारक

स्मारक के निर्माण के पूर्व में जब एकनाथ रानडे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के तौर पर काम कर रहे थे तब तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने उनके बारे में कहा था, ‘लोग मुझे लौह पुरुष कहते हैं लेकिन मुझे एकनाथ जी में फौलादी पुरुष नज़र आता है’.

एकनाथ रानडे का जब 22 अगस्त 1982 को स्वर्गवास हुआ तो लाख कोशिश करने के बाद भी उनका एक चित्र भी उस समय नहीं मिला था. इतना विशाल कार्य करने वाले एकनाथ रानडे के चित्र ना मिलने का अगर सबसे बड़ा कोई कारण था तो वह है कि उन्होंने कभी अपना नाम अपने काम से बड़ा नहीं होने दिया. राष्ट्र और समाज के हित के कार्य के लिए सबकुछ करना और अपने लिए कुछ ना करना यह उन्होंने जीवन भर जीकर दिखाया. वह बीज की तरह मिट्टी में मिल गए जिसके कारण विशाल वृक्ष रूपक विवेकानंद शिला समारक और विवेकानद केंद्र- आध्यात्मिक प्रेरित सेवा संगठन हम सबके सामने है.

एकनाथ रानडे का जन्म 19 नवंबर 1914 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के टिमटाला गांव में एक साधारण परिवार में हुआ था. 1926 में वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आये.

एकनाथ रानडे कहते थे, ‘यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मेरे जीवन में न आता, तो मेरा जीवन दिशाहीन ऊर्जा का प्रवाह मात्र बनकर रह जाता.’

कॉलेज के दिनों में ही उनका परिचय स्वामी विवेकानंद के साहित्य से हुआ. 1936 में उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में नागपुर के कामठी और अन्य क्षेत्र में विस्तारक के रूप में काम किया था और फिर स्नातक स्तर की पढ़ाई करके वे प्रचारक बने. प्रचारक के रूप में वह सबसे पहले महाकौशल प्रान्त में गए. इसके अंतर्गत जबलपुर, इंदौर, उज्जैन, होशंगाबाद, छत्तीसगढ़ इत्यादि क्षेत्र आते थे.

1948 में महात्मा गांधी की हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. संघ के सभी प्रमुख अधिकारियों को सरकार ने जेल में डाल दिया था. ऐसे में देशव्यापी सत्याग्रह की जिम्मेदारी एकनाथ रानडे को दी गयी. उन्होंने इतनी सफलता से सत्याग्रह का नेतृत्व किया कि वह विश्व का सबसे ‘बड़ा सत्याग्रह’ कहलाया.

यह सत्याग्रह 9 दिसंबर 1948 से शुरू हुआ और 20 जनवरी 1949 को समाप्त हुआ. इसी दौरान तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल से उनका लंबा संवाद चला और आखिरकार सरकार को ‘सच्चाई’ समझ में आयी और प्रतिबंध हटा लिया गया.


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‘व्यक्ति की पहचान और खोज एकनाथ जी की विशेषता’

1950 में उन्हें पूर्वांचल के प्रांत प्रचारक के रूप में भेजा गया. 1953 से 56 तक वे संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख और 1956 से 62 तक सरकार्यवाह रहे. वह विशिष्ठ परिस्थतियों में संघ के सरकार्यवाह बने थे. इससे पहले पी. बी. दाणी सरकार्यवाह थे जो अपने पिता कि मृत्यु और माता-पिता की इकलौती संतान होने के कारण अपनी संपत्ति का प्रबंध करने के लिए अपने घर गए थे. सरकार्यवाह रहते हुए एकनाथ रानडे ने संघ कार्य को प्रांत-प्रांत तक और उसके बाद जिले-जिले तक मजबूत किया. वो हमेशा पूर्व नियोजन और पूर्ण नियोजन पर बहुत जोर देते थे.

1962 में संघ के सरकार्यवाह के दायित्व से उन्हें मुक्त कर दिया गया, जब पी. बी. दाणी वापस आ गये थे. इसी वर्ष उन्होंने स्वामी विवेकानंद के समग्र लेखन के 9 खंडों का अध्ययन कर उसको एक संक्षिप्त पुस्तक के रूप में संकलित किया जिसका नाम है ‘राउजिंग कॉल टू हिन्दू नेशन’.

उस समय के संघ के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने उन्हें 1963 में विवेकानंद शिला स्मारक समिति का कार्यभार संभालने को कहा जिसका काम उन्होंने धैर्य, कौशल और अपने व्यक्तित्व के अनुरूप निपुणता से 1970 में राष्ट्र को समर्पित किया था. स्मारक को जीवित रूप देने के लिए ‘विवेकानंद केंद्र- एक आध्यात्म प्रेरित सेवा संगठन’ की स्थापना 7 जनवरी 1972 को की गई. विवेकानंद केंद्र के हजारों कार्यकर्ता जनजाति और ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा एवं विकास, प्राकृतिक संसाधन विकास, सांस्कृतिक अनुसंधान, प्रकाशन, युवा प्रेरणा, बच्चों के लिए संस्कार वर्ग एवं योग वर्ग आदि गतिविधियां संचालित करते हैं.

एकनाथ रानडे के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं. वह कहते थे, ‘यदि संपूर्ण धार्मिक भावना को लोकहित के कार्यों में रूपांतरित कर दिया जाए तो राष्ट्रीय पुनर्निर्माण हो सकता है.’ उनके अनुसार, ‘प्रत्येक व्यक्ति में भारतीयता को जागृत करना है, उन्हें कार्य में लगाना है. उनको यह पूर्ण विश्वास था कि यदि आप गहराई में उतरकर देखेंगे तो प्रत्येक व्यक्ति में भारतीयता और हिंदुत्व की जाग्रति पायेंगे.’

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब उनके जन्म शताब्दी वर्ष के समारोह में भाग लेने आये तो उन्होंने कहा, ‘एकनाथ जी जो भी करते थे स्थाई भाव से करते थे, भविष्य को ध्यान में रखते हुए करते थे, सहज, सरल, उपयोगी हो ऐसी योजना से करते थे. व्यक्ति की पहचान और व्यक्ति की खोज एकनाथ जी की विशेषता थी.’ प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि उनका सौभाग्य था कि उनको एकनाथ जी के साथ काम करने का मौका मिला.

एकनाथ रानडे ने सैकड़ो कार्यकर्ताओं के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाया है. आज उनके स्वर्गवास के 38 वर्ष बाद भी सभी कार्यकर्ता उनको स्नेह से ‘एकनाथजी’ ही बुलाते हैं.

(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रांत के युवा प्रमुख हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक किया है और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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