scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतभारतीय उदारवादियों के पास RSS के अपने ब्रांड हिंदुत्व संवैधानिकता से मुकाबले की कोई रणनीति नहीं

भारतीय उदारवादियों के पास RSS के अपने ब्रांड हिंदुत्व संवैधानिकता से मुकाबले की कोई रणनीति नहीं

हिंदुत्व के उदारवादी विरोधियों को अभी तक हिंदुत्व संवैधानिकता के राजनीतिक प्रभाव का एहसास नहीं हुआ है. वे अब तक भारतीय संविधान को एक स्व-व्याख्यात्मक राजनीतिक पाठ मानते हैं.

Text Size:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की हिंदुत्ववादी राजनीति का मुकाबला करने के लिए भारतीय उदारवादी और प्रगतिशील कार्यकर्ता अक्सर बी.आर. आंबेडकर की ‘संवैधानिक नैतिकता’ का हवाला देना पसंद करते हैं. वे संविधान को अंतिम, निर्विवाद रूप से स्पष्ट दस्तावेज मानते हैं, लेकिन अपनी इस संविधान भक्ति में वे यह बात भूल जाते है कि भाजपा और संघ भी संविधान की राजनीति करते है. जब जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने, नागरिकता (संशोधन) कानून, तीन तालक और गोहत्या पर पाबंदी जैसी विवादास्पद नीतियों की बात आती है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी संविधान को ही आगे रखता है. इस राजनीति को मैं ‘हिंदुत्व संविधानवाद’ कहता हूं. इसलिए, आरएसएस के नए हिंदुत्व को हिंदुत्व संवैधानिकता के विचार के संबंध में समझना चाहिए.

भारतीय संविधान के प्रति समर्पण आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के हालिया भाषणों और वक्तव्यों के सबसे विचारणीय पहलुओं में से एक रहा है. दरअसल, उन्होंने संविधान को आरएसएस के सांस्कृतिक-राजनीतिक लोकाचार से जोड़ा है.

उनके शब्दों में आरएसएस भारत के संवैधानिक विचार को आत्मसात करने का प्रयास करता है.

भारतीय संविधान आरएसएस की विचारधारा और कार्यपद्धति का आधारभूत स्रोत होने यह उत्साही स्वीकृति हिंदुत्व की मानक उदारवादी आलोचना के खिलाफ है. यह तर्क कि हिंदुत्ववादी राजनीति संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को खारिज करती है और इसलिए इसे गैर-संवैधानिक कहना वैध है, हिंदुत्व की वर्तमान राजनीतिक परिकल्पनाओं पर खरा नहीं उतरता है.

हमें इस पर ध्यान देना चाहिए कि समकालीन हिंदुत्व की पुराने हिंदू राष्ट्रवाद वाले आदर्श बयानों जैसे धर्म राज्य, हिंदू राष्ट्र या यहां तक कि अखंड भारत में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसके विपरीत, इसने राजनीति का एक नया रूप गढ़ा है, जो अनुकूल राजनीतिक सामान्य ज्ञान को स्थापित करने के लिए मौजूदा कानूनी-संवैधानिक ढांचे का सहारा लेता है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

हिंदुत्व संविधानवाद क्या है?

कुछ हद तक तकनीकी अर्थों में संविधानवाद उन मानदंडों और सिद्धांतों को संदर्भित करती है जो न केवल राज्य संस्थानों (विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्ति सम्पन्न) का निर्माण करते हैं, बल्कि उन पर कुछ सीमाएं और पाबंदियां भी लगाते हैं.

हमारे संविधान की प्रस्तावना में रेखांकित नैतिक सिद्धांत और चौथे भाग में राज्यों को दिए गए दिशा-निर्देशों (राज्य के लिए नीति निर्देशक सिद्धांतों) को इन कानूनी सीमाओं के उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है.

संविधानवाद का एक राजनीतिक अर्थ भी है जो कई साल बीतने के साथ विकसित हुआ है. 1950 के वैचारिक रूप से विभाजित राजनीतिक वर्ग ने औपचारिक चुनावी राजनीति में हिस्सा लेने के लिए संविधान को मूलभूत संदर्भ बिंदु के तौर पर स्वीकार किया है. लेकिन यहां तक कि जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों ने भारतीय संदर्भ में संविधान की सफलता को लेकर एक राजनीतिक चिंता जताई थी (भारतीय राजनीति के पुनर्निर्माण के लिए एक दलील, 1959).

यही नहीं राजनीतिक दलों ने चुनावी राजनीति के दायरे में संवैधानिकता की भाषा पर बहुत ज्यादा भरोसा किया, वे भारतीय संविधान की विभिन्न वैचारिक रूपों के लिहाज से उपयुक्त व्याख्याएं करते रहे. इसने विचार उन्मुख और राजनीतिक रूप से व्यवहार्य संवैधानिकता के विभिन्न स्वरूपों का मार्ग खोला. हिंदुत्व संवैधानिकता एक ऐसा ही राजनीतिक स्वरूप है.

हिंदुत्व संविधानवाद की तीन विशिष्टताएं

अन्य राजनीतिक ताकतों के विपरीत हिंदुत्ववादी समूहों ने कभी भी संविधान की व्याख्या स्व-व्याख्यात्मक पाठ के रूप में नहीं की. 1990 के दशक के बाद के दौर में जब वामपंथियों समेत हर राजनीतिक दल ने भारतीय संविधान को लोकतंत्र के निर्णायक दस्तावेज के तौर पर स्वीकारना शुरू कर दिया, आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस पर आलोचनात्मक रुख जारी रखा. यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने संविधान की कार्यपद्धति की समीक्षा के लिए एक समिति का गठन कर दिया.

वह तो नरेंद्र मोदी थे जिन्होंने न केवल इसे ‘पवित्र ग्रंथ’ करार किया, बल्कि बाद के वर्षों में हिंदुत्व संवैधानिकता को भी रेखांकित किया. अक्टूबर 2015 में सरकार ने घोषणा की कि 26 नवंबर, जिस दिन संविधान सभा ने 1949 में संविधान के अंतिम मसौदे को अपनाया था, को हर साल संविधान दिवस के रूप में मनाया जाएगा. संविधान की महानता को समर्पित एक भाषण में मोदी ने यहां तक कहा कि ‘अगर मानव निर्मित कोई रचना अमर है तो यह भारत का संविधान है.’

1- तकनीकी बारीकियोंपर जोर

एक प्रेरक राजनीतिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कानूनी बारीकियों के प्रति दृढ़ता समकालीन हिंदुत्व की पहली विशेषता है. यहां यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि 1950 के हिंदू राष्ट्रवादी-जनसंघ या हिंदू महासभा-अपने बहुसंख्यकवाद पर जोर देने के लिए औपनिवेशिक वर्गीकरण (जैसे हिंदू और मुस्लिम) को छोड़ना मुश्किल पाते थे. उन्होंने एहसास किया कि संविधान राजनीतिक दलों को एक तरह से सीधे तौर पर धर्म के नाम पर कुछ कहने-करने की अनुमति नहीं देता है. वे अधिक परिष्कृत कानूनी भाषा का उपयोग करने लगे जो उन्हें एक समावेशी चरित्र का दावा करने में सक्षम बनाती है. उदाहरण के तौर पर नागरिकता (संशोधन) अधिनियम या सीएए विशेष रूप से हिंदुओं के पलायन पर केंद्रित नहीं है. इसमें पड़ोसी मुस्लिम देशों के गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों को संदर्भित किया गया है, जिसमें हिंदू भी शामिल हैं.

2- एक राष्ट्र,एक संविधान

हिंदुत्व संवैधानिकता ‘एक राष्ट्र, एक संविधान’ को अपनी राजनीति के मूलभूत सिद्धांत के रूप में मान्यता देती है. पूरी तरह से पुराने हिंदू राष्ट्रवादियों के दावों जैसे एक मुस्लिम बहुल राज्य कश्मीर को कोई विशेष दर्जा नहीं होना चाहिए, पर निर्भर रहने के बाद हिंदुत्व समूहों ने परिष्कृत कानूनी भाषा का इस्तेमाल किया. इन्होंने जोर दिया कि संविधान के अन्य प्रावधान स्थिर, स्थायी और सुसंगत होने के बावजूद अनुच्छेद 370 एक अवांछित और अनुपयोगी है, जिसे स्पष्ट तौर पर कांग्रेस की तरफ से राजनीतिक कारणों से लागू किया गया था.

भाजपा की राजनीतिक प्रतिबद्धता और नरेंद्र मोदी और अमित शाह की दृढ़ इच्छाशक्ति ने इस तार्किक आधार पर ‘एक राष्ट्र, एक संविधान’ की व्यवस्था लागू करने में अहम भूमिका निभाई. यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि कश्मीर का विशेष दर्जा निरस्त करने संबंधी राष्ट्रपति के आदेश को संविधान (जम्मू और कश्मीर में लागू) संशोधन आदेश, 2019 कहा जाता है.

3- बहुसंख्यक के बजाय अल्पसंख्यक पर जोर

बहुसंख्यक के बजाय अल्पसंख्यक पर केंद्रित एक परिष्कृत और गहन विचार पर जोर देना हिंदुत्व संवैधानिकता की तीसरी और अंतिम विशेषता है. पिछले छह वर्षों में भाजपा सरकार ने पीड़ित हिंदू के अपने तर्क को वैध बनाने के लिए अल्पसंख्यक के विचार को स्थापित करने की पूरी कोशिश की है. 2017 में एक भाजपा नेता की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका (पीआईएल) की मांग की गई कि आठ राज्यों (लक्षद्वीप, मिजोरम, नगालैंड, मेघालय, जम्मू और कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब) में हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित किया जाए. तर्क दिया गया कि यहां हिंदुओं के अल्पसंख्यक अधिकार ‘गैरकानूनी और मनमाने तरीके से बहुसंख्यक आबादी को दिए जा रहे हैं क्योंकि न तो केंद्र और न ही राज्य सरकारों ने इन राज्यों में हिंदुओं को ‘अल्पसंख्यक’ का दर्जा दिया है.’

सीएए इस कानूनी दावे का दायरा भी बढ़ाता है. मुस्लिम बहुल देशों में हिंदू अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न को उजागर करके यह कानून आरएसएस के इस पुराने तर्क को ही रेखांकित करता है कि भारत में हिंदू बहुसंख्यक महत्वहीन है क्योंकि भारत मुस्लिम-बहुल देशों से घिरा हुआ है.

हिंदुत्व के उदारवादी विरोधियों को अभी तक हिंदुत्व संविधानवाद के राजनीतिक प्रभाव का एहसास नहीं हुआ है. वे अब तक भारतीय संविधान को एक स्व-व्याख्यात्मक राजनीतिक पाठ मानते हैं. हिंदुत्व पर सवाल उठाने के लिए संविधान पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता उल्टे उनके लिए ही प्रतिघाती साबित हो रही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक नई दिल्ली स्थित सीएसडीएस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

share & View comments