जम्मू में वायुसेना के अड्डे पर 27-28 जून की रात ड्रोन के पहले आक्रामक इस्तेमाल ने भारत के सुरक्षा तंत्र की नींद उड़ा दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के साथ बैठक की और रक्षा के क्षेत्र में ‘भावी चुनौतियों’ पर विचार-विमर्श किया.
इस हमले के मामले में आश्चर्यजनक बात यह थी कि इस हमले से हमें आश्चर्य हुआ है. कम लागत वाली इस तकनीक का विकास हो रहा है, सीरिया में आतंकवादियों ने इसका जमकर इस्तेमाल किया है, यह सबको मालूम है. पाकिस्तान भारतीय सीमा के अंदर पंजाब और जम्मू-कश्मीर में हथियार और गोला-बारूद आदि गिराने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल करता रहा है. पश्चिमी सीमा पर 300 से ज्यादा ड्रोन दिख चुके हैं और रक्षा विशेषज्ञ पिछले कुछ वर्षों से इस खतरे के बारे में चेतावनी देते रहे हैं.
मैंने 7 फरवरी 2019 को जो लिखा था उसे प्रस्तुत करना उपयुक्त होगा-
‘वह दिन दूर नहीं है जब आतंकवादी जम्मू-कश्मीर, उत्तर-पूर्व, नक्सल क्षेत्र आदि में हमले करने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल करने लगेंगे. ड्रोन-आतंकवाद के आगे भारत लगभग अरक्षित है और दुनिया भर से चेतावनी के संकेत मिलने के बावजूद कोई तैयारी नहीं कर रहा है.’
अब दुविधा यह है किसकी सुरक्षा की जाए और कैसे? ‘कम लागत, ज्यादा लाभ’ वाले इस खतरे की ताकत सीमा पार से या सीमा के अंदर भी दिख सकती है और जम्मू में हुए हमले के बाद सेना के सभी ठिकानों और दूसरे संवेदनशील क्षेत्रों/स्थानों को हाई अलर्ट पर डाल दिया गया है. लेकिन हाई अलर्ट पर रखने का भी क्या फायदा है अगर हमारे पास ड्रोन के ऐसे खतरों का जवाब देने की बुनियादी तैयारी भी नहीं है?
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क्या हुआ था?
26 जून की रात 0137 और 0142 बजे एक/दो ड्रोन की मदद से सभी दिशाओं में फटने वाले दो विस्फोटक आईईडी एक के बाद एक करके गिराए गए. एक विस्फोटक हेलीकॉप्टर के पार्किंग क्षेत्र में फटा और दूसरा एअर ट्रैफिक कंट्रोल के पास फटा. इन्हीं दोनों को निशाना बनाने की कोशिश की गई थी. इमारत की छत को नुकसान पहुंचा और वायुसेना के दो कर्मचारी मामूली घायल हुए. हेलिकॉप्टरों या दूसरे सामान को नुकसान नहीं पहुंचा. ड्रोनों का पता नहीं लगा, वे सुरक्षित लौट गए.
इसकी अगली रात एक/दो ड्रोन 11.45 और 2.40 बजे रतनुचक/कालुचक सैनिक क्षेत्र के ऊपर उड़ते देखे गए. फौरी कार्रवाई दलों ने छोटे हथियारों से ड्रोनों को उलझाया. हमारी असहायता, अज्ञानता और अक्षमता रक्षा विभाग के पीआरओ के इस बयान में झलकती है कि ‘दोनों ड्रोन वापस उड़ गए. सेना की चौकसी और जवाबी कार्रवाई के कारण एक बड़े खतरे को टाल दिया गया. किसी छोटे हथियार के चमत्कारी टक्कर से ही ड्रोन को गिराया जा सकता है और मानव रहित इस रोबोट को कोई फर्क नहीं पड़ता. संयोग से ड्रोन चलाने वाले का मकसद हमला करना नहीं था.
खबर है कि 28-29 और 29-30 जून की रात को भी रतनुचक-कालुचक-सुंजुवां के सैनिक क्षेत्र के ऊपर भी ड्रोन मंडराते दिखे थे. ऐसा लगता है कि सैनिक क्षेत्र के ऊपर उड़ने का मकसद टोह लेना था. लेकिन, ‘अनजाने दुश्मन के डर’ की वजह से रात में गश्ती कर रहे जवानों की चिंता के कारण भी ऐसी खबरें आ सकती हैं. अब तक चार रातों में ड्रोन दिखने के बावजूद यह नहीं पता लगाया जा सका है की ड्रोन किस जगह से उड़ाए गए या उनका उड़ान पथ क्या था.
इससे हमारी टोही व्यवस्था की कमजोरी उजागर होती है. हमलों और टोह लेने का तरीका बताता है कि यह आजमाइश की कोशिश थी, जिसके बाद निकट भविष्य में ज्यादा बड़ी और आधुनिक कार्रवाई की जा सकती है. मैं इस संभावना को बहुत प्रबल मानता हूं.
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किसने किया और क्यों किया?
वायुसेना का अड्डा और फौजी इलाका पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय सीमा से 14-16 किलोमीटर दूर है. ड्रोनों को सीमा पर से उड़ाया गया होगा या हमारे इलाके में मौजूद आतंकवादियों ने उन्हें संचालित किया होगा. अनुमान लगाया गया है कि यह हमला सीमा पार से लश्कर-ए-तैयबा का काम है. इस अनुमान की वजह यह है कि एक आतंकवादी को ड्रोन द्वारा भेजे गए 5-6 किलो आईईडी के साथ गिरफ्तार किया गया है. पाकिस्तान में अफवाह तेज है कि 23 जून को हाफिज सईद के घर के पास जिस कार बम का विस्फोट हुआ वह किसी ‘विदेशी खुफिया एजेंसी’ का काम था. इशारा भारतीय खुफिया एजेंसियों की ओर था.
ड्रोन हमले का मकसद जम्मू-कश्मीर में परिसीमन और चुनाव करवाने की मोदी सरकार की राजनीतिक पहल को नुकसान पहुंचाना और आतंकवादियों की हौसलाअफजाई भी हो सकता है. इनकार से पाकिस्तानी आईएसआई को सीमा पर से ड्रोन के जरिए कार्रवाई करने या इस काम के लिए भारत में छिपे आतंकवादियों द्वारा यहीं से ड्रोन का इस्तेमाल की छूट देता है.
यह भी संभव है कि आईएसआई के अंदर अपनी मर्जी से काम करने वाले उग्रवादी तत्व या लश्कर/जैश के आतंकवादी भारत-पाकिस्तान संबंधों में सुधार और जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया को निशाना बना रहे हों.
‘एफएटीएफ’ के प्रतिबंधों और भारत के साथ संबंधों को बेहतर बनाने के प्रत्यक्ष प्रयासों ने पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर में सीधी दखल देने से रोक दिया है. कम खर्चीले, गुप्त रूप से काम करने वाले जुगाड़ू ड्रोन पाकिस्तान को यह सुविधा प्रदान करते हैं कि वह भारत पर दबाव बनाए रख सके.
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कम खर्च पर बड़ा फायदा
भारत में आतंकवादी कार्रवाइयां मुख्यतः एके-47 धारी आतंकवादी, फिदायीन मानव बम और आईईडी के बूते चलती रही हैं. शुरू में एके-47 धारी आतंकवादी ही मुख्य भूमिका निभा रहे थे क्योंकि उनके बच निकलने की गुंजाइश रहती थी लेकिन सुरक्षा बलों का हाथ ऊपर रहने के कारण उनसे निपटना आसान था. मानव बम के लिए जबरदस्त जुनून और प्रेरणा की जरूरत है इसलिए यह रास्ता शायद ही अपनाया जाता था. आईईडी ने अफगानिस्तान में भारी जनसंहार किया. इन्हें व्यक्तिगत रूप से फिट करना पड़ता है और आतंकवादी सुरक्षित और गुमनाम बना रहता है. लेकिन ड्रोन आतंकवादियों को अधिकतम सुरक्षा प्रदान करता है.
हाल तक, ड्रोन बेहद महंगे होते थे. लेकिन तकनीकी प्रगति ने उसे एक-47 से भी सस्ता बना दिया है. हथियार का बोझ उठाकर उड़ान भरने वाले व्यापारिक ड्रोन की कीमत 1,000 से 2,000 डॉलर के बीच है. जुगाड़ से पुर्जे जोड़कर बनाए गए ड्रोन और भी सस्ते हैं.
अमेरिका के पूर्व एअर फोर्स अफसर मार्क जेकबसन ने ‘बागी’ ड्रोन तैयार करने का प्रयोग किया था. उन्होंने कहा था, ‘इसके लिए 4 डॉलर का फोम बोर्ड, पैकिंग टेप और हॉट ग्लू के अलावा 250 डॉलर के चीनी पुर्जे चाहिए. यह देखने में खराब था लेकिन दो पाउंड वजन का सामान 10-20 किमी दूर तक पहुंचा सकता था.’
अब जरा देखिए कि एक बागी ड्रोन किस तरह के मिशन पूरे कर सकता है और क्या-क्या फायदे दे सकता है. यह नेताओं और सेना/पुलिस वालों की हत्या कर सकता है, जमीन पर खड़े या उड़ान भरने जा रहे अथवा लैंड करते व्यापारिक/फौजी विमानों को निशाना बना सकता है, राजनीतिक सभाओं, धार्मिक आयोजनों, बाज़ारों, खेल के स्टेडियम में भीड़ पर हमला करके भगदड़ मचा सकता है या लोगों की हत्या कर सकता है, रसायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल हमले कर सकता है, बिजली के ग्रिडों या ईंधन के भंडारों को निशाना बना सकता है, रेल या बस हादसे करवा सकता है, सीमा पार से हथियारों/गोला-बारूद की घुसपैठ करवा सकता है और निगरानी तथा टोही कार्रवाई कर सकता है.
इससे पहले आतंकवादियों को इतने सस्ते में हथियार नहीं उपलब्ध हुए थे. इसके अलावा यह उनको गुमनाम और सुरक्षित भी रखता है. कल्पना कीजिए ऐसे 10 ड्रोनों का झुंड क्या कुछ कर सकता है.
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जवाबी उपाय
सुरक्षा बल अब तक उच्च तकनीक वाले ‘यूएवी’ के खतरे का जवाब देते रहे हैं. पारंपरिक और विशेष डिजाइन वाले लेज़रों और एअर डिफेंस सिस्टम भी प्रचलन में हैं. इन सिस्टमों की ऊंची कीमत महंगे फौजी ‘यूएवी’ की ऊंची कीमत से मेल खाती है.
छोटे ड्रोन मौजूदा फौजी रडार की पकड़ में नहीं आते, उनके लिए विशेष रडार चाहिए. प्लास्टिक के पुर्जे और मामूली ऑटोपाइलट रेडियो सिग्नल को बहुत कमजोर कर देते हैं. लेजर, रैपिड फायर तोपें, ड्रोन को पकड़ने के लिए वीपन सिस्टम से फायर किए गए सुरक्षा जाल, हंटर ड्रोन और कमांड/नेविगेशन/जीपीएस सिग्नल जैमर जैसे कई जवाबी उपाय तैयार किए गए हैं. इन सिस्टमों की कीमत और ड्रोन की कीमत में भारी अंतर है.
फिलहाल, मौजूदा पारंपरिक रडार और रेडियो जैमर को छोड़ दूसरे जवाबी उपाय हमारे पास नहीं हैं. ‘डीआरडीओ’ ने छोटे ड्रोन की टोह लेने, जैमिंग करने और नष्ट करने वाला सिस्टम विकसित किया है. एंटी-ड्रोन सिस्टम के उत्पादन की तकनीक भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) को दी गई है और यह निजी कंपनियों को भी उपलब्ध कराई गई है. व्यावसायिक उत्पादन अभी शुरू नहीं हुआ है. कीमत अभी सार्वजनिक नहीं की गई है लेकिन यह शायद ही सस्ती होगी.
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत ने सोमवार को एक टीवी चैनल को इंटरव्यू में कहा कि भारत को भावी पीढ़ी के युद्ध की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए. उन्होंने बताया कि तीनों सेना, ‘डीआरडीओ’, शिक्षा जगत और दूसरे हितधारी ड्रोन से उभर रहे खतरों का जवाब जल्द खोजने के लिए तकनीक विकसित करने में जुटे हुए हैं.
सार यह कि सीडीएस कबूल करते हैं कि जवाबी उपाय अभी तैयार ही किए जा रहे हैं या अभी उसमें लंबा समय लगेगा. भारतीय वायुसेना को जम्मू वायुसेना अड्डे की सुरक्षा के लिए ड्रोन का पता लगाने और उसे जाम करने का सिस्टम नेशनल सिक्युरिटी गार्ड्स (एनएसजी) से उधार लेना पड़ा है और यह हमारी कमजोरी की पुष्टि करता है.
अब यह मान लीजिए कि एके-47 से लैस या खुद मानव बम बने आतंकवादियों का जमाना गया. उनके नये अवतार छोटे ड्रोन के रूप में उभर आए हैं, जो कहीं ज्यादा विनाशकारी हैं और जिनसे बचने के लिए भारत अभी तैयार नहीं है.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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