कन्हैयालाल की बर्बर हत्या जितनी दुखद है उतना ही दुखद यह है कि इस बदकिस्मत दर्जी की हत्या को अपना मतलब साधने का राजनीतिक औज़ार बनाकर हम मामले को और खराब कर रहे हैं.
अगर आप टीवी समाचार चैनलों पर की जा रही टिप्पणियों और सोशल मीडिया पर जारी बहसों—ऐसा नहीं है कि इनमें इन दिनों बहुत फर्क रह गया हो—पर गौर करते रहे होंगे तो आपको पता लग गया होगा कि चालू संदिग्ध तत्व उदयपुर हत्याकांड के वीभत्स स्वरूप को अपनी स्थिति मजबूत करने का बहाना बना रहे हैं.
नासमझी भरी प्रतिक्रियाएं
पहला रुख नूपुर शर्मा के समर्थकों की ओर से तय होता है. विचित्र बात यह है कि इस कत्ल को वे शर्मा के बयान को सही ठहराने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि हत्या बयान देने के बाद की घटना है. उनका तर्क है—‘हमने आपसे कहा था न कि वे कातिलाना और खतरनाक जिहादियों के खिलाफ हैं, फिर भी उदारवादियों ने उनके बचाव में कुछ नहीं किया, बल्कि वे उनके पीछे ही पड़ गए.’
यह खतरनाक मूर्खता है. मैं मानता हूं कि शर्मा ने जो किया उसे कहने का उन्हें पूरा अधिकार था. वास्तव में, आपत्ति उदारवादियों ने नहीं की (उनमें से कई तो ऐसे हैं जो वे टीवी चैनल देखते ही नहीं जिन पर शर्मा ने बयान दिया था), आपत्ति तो दूसरे देशों की सरकारों ने की. और जिन लोगों ने शर्मा से पल्ला झाड़ लिया और उनको ‘बाहरी तत्व’ बता दिया तथा ठोकर मार दिया, वे उदारवादी नहीं थे. वह तो भारत सरकार थी जिसने शर्मा को बियावान में धकेल दिया; और इस कदम का समर्थन भाजपा नेतृत्व ने भी किया.
इसके अलावा, जिन उदारवादियों ने शर्मा की आलोचना उनके बयान के कारण की उन्होंने न तो हिंसा का समर्थन किया और न शर्मा से हिंसक बदला लेने की वकालत की. कुछ बड़बोलों ने जब यह करने की कोशिश की तो उदारवादियों ने उनकी भी आलोचना की.
एक तरह से देखा जाए तो हिंदू दक्षिणपंथियों की प्रतिक्रिया और, उसके साथ सताए जाने का महत्वाकांक्षी दिखावा कोई आश्चर्य की बात नहीं है. न ही, मेरे खयाल से, वे कुछ उदारवादी प्रतिक्रियाएं आश्चर्यजनक हैं जो उदयपुर वारदात के बाद सुनी गईं. एक उदारवादी प्रतिक्रिया यह थी—’बेशक यह भयानक अपराध है. लेकिन देखिए, सरकार जब मुसलमानों को एकदम दबाव में डाल दे और उन्हें यह एहसास करा दे कि उन्हें इंसाफ नहीं मिलेगा, तो कुछ लोग तो कानून को अपने हाथ में लेंगे ही.’
यह लापरवाही भारी मूर्खता है. और यह दोगुना खतरनाक है क्योंकि यह भेदभाव के जवाब में मुस्लिम समुदाय की प्रतिक्रिया को गलत रूप में पेश करती है. मुझे शक है कि जो हालात हैं उनसे मुस्लिम लोग खुश होंगे लेकिन यह कहना सरासर गलत है कि उन्होंने भारतीय व्यवस्था पर भरोसा करना खत्म कर दिया है और हिंसा की ओर मुड़ रहे हैं. वास्तव में, मुसलमानों का बहुमत हिंसा को हमेशा खारिज करता रहा है, और इसी वजह से भारत पिछले दो दशकों से दुनिया को अस्थिर कर रहे अखिल इस्लामी कट्टरपंथ की लहरों से अछूता रहा है.
यह भी पढ़ें: विधायक अब राजनीतिक उद्यमी बन गए हैं, महाराष्ट्र इसकी ताजा मिसाल है
आतंकवाद का खाका
कन्हैयालाल हत्याकांड के बारे में अब तक हमें जो मालूम है (तस्वीर बाद में बदल भी सकती है) उसके मुताबिक यह अकेले दम पर आतंकी कार्रवाई करने की ही मिसाल है.
पश्चिमी देशों में इंटरनेट (सदा संदिग्ध) या किसी इस्लामी संगठन (इस मामले में कहा जा रहा है कि किसी पाकिस्तानी कट्टरपंथी संगठन का हाथ है) पर दर्ज सीखों से कट्टरपंथी बना युवा मुसलमान आईएसआईएस की तर्ज पर अकेले ही हिंसक वारदात करने की कोशिश करता है. ऐसे युवा कुछ सनकी होते हैं और वे आम तौर पर जो वीडियो पोस्ट करते हैं उनमें भटके हुए विक्षिप्त दिखते हैं.
उदयपुर हत्याकांड इसी सांचे की बात लगती है. हत्यारे स्थानीय थे. वे पीड़ित को पहले ही धमकी दे चुके थे. उनकी ख़्वाहिश उनकी क्षमता से बड़ी थी (उन्होंने पीड़ित का गला काटना चाहा मगर ऐसा करना उन्हें नहीं आता था), और वे आतंक की भयानक वारदात करके जितने खुश नहीं थे उससे ज्यादा वीडियो पोस्ट करके खुश थे.
अब तक यह सबूत नहीं मिला है कि वे किसी संगठित आतंकवादी गुट के थे या भारत में मुसलमानों की स्थिति से नाराज होकर बदले की कारवाई को खुद ही अंजाम देना चाहते थे. वे दो खतरनाक इस्लामी कट्टरपंथी थे. यह भयानक बात है लेकिन यह कोई अजूबा नहीं है : ब्रिटेन और अमेरिका में इस तरह के लोग अक्सर ऐसे हमले करते पाए गए हैं. लेकिन कुछ उदारवादी लोग कहेंगे कि उदयपुर वाले इन हत्यारों ने मुसलमानो के साथ भेदभाव के कारण ही हिंसा का रास्ता अपनाया. यह विचार वैश्विक सच्चाई के विपरीत है.
अधिकतर आतंकवादी संगठनों (और आतंकवादियों) ने वहां हत्या और हिंसा नहीं की है जहां मुस्लिम समुदाय पीड़ित अल्पसंख्यक हैं बल्कि वहां की है जहां वह बहुमत में हैं. आतंकवादियों ने पाकिस्तान में अराजकता फैला रखी है और वे हिंदुओं के दमन का विरोध नहीं कर रहे हैं. अलक़ायदा और आईएसआईएस मुस्लिम देशों में ही सबसे ताकतवर रहे हैं.
आतंकवाद एक जटिल मामला है. लोग पहले कई कारणों से कट्टरपंथ की ओर आकर्षित होते हैं, फिर कट्टरपंथी हिंसा करने लगते हैं. यह कहना बहुत आसान है कि यह सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि मुस्लिम समुदाय प्रताड़ित अल्पसंख्यक होता है. इतिहास से बस एक बहुचर्चित उदाहरण लीजिए : सलमान रुश्दी की किताब ‘द सटैनिक वर्सेज़’ पर सबसे पहले रोक भारत में लगाई गई. लेकिन उसके खिलाफ पहला फतवा मुस्लिम देश ईरान से जारी हुआ. और जिन लोगों ने उसके प्रकाशकों को बम भेजे, अनुवादकों की हत्या की और रुश्दी को मार डालने की कोशिश की, वे भारतीय नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्से के मुसलमान थे.
मानवीय त्रासदी पर फोकस
इसलिए, हम उदयपुर कांड को लेकर तुरंत चालू निष्कर्ष न निकालने लगें तो बेहतर. इससे न तो नूपुर शर्मा के बयान की आलोचना बेमानी हो जाएगी और न ही उनकी अपनी पार्टी द्वारा उनसे पाल्ला झाड़ने पर हुई प्रतिक्रिया का खंडन होगा. और इससे यह नहीं साबित होता भारतीय मुसलमान इतने असंतुष्ट हैं कि वे सरकारी दमन के चलते हिंसा की ओर मुड़ गए हैं.
इसकी बजाय हम कन्हैयालाल की त्रासदी पर फोकस करें, भारत के उस नागरिक की हत्या पर जिसे अपनी आस्था के मुताबिक बोलने के लिए मार डाला गया, जिसे उसके हत्यारों ने धमकी दी थी और जिसने अपनी सुरक्षा की मांग की तो पुलिस ने उसकी अनदेखी कर दी. और हम किसी राजनीतिक खेमे को इस त्रासदी को ‘हाइजैक’ न करने दें. इससे यह नहीं साबित होता कि सभी मुसलमान कट्टरपंथी हैं, और इस्लाम पर किसी भी टिप्पणी के खिलाफ छुरा उठाने को तैयार खड़े हैं. और इससे यह भी साबित नहीं होता कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने मुसलमानों को हिंसा करने को मजबूर कर दिया है.
इस कांड को अंजाम देने वालों को कठोरतम सज़ा दी जानी चाहिए. हमें पता लगाना चाहिए कि उनके तार कहीं और से तो नहीं जुड़े हैं, या उन्होंने अपने बूते ही कार्रवाई की. गरीब दर्जी की हत्या को राजनीतिक अवसर में बदलने और उसे पक्षपातपूर्ण बहसों के लिए मसाले के रूप में इस्तेमाल करने के लालच से हमें बचना चाहिए.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: योगी के दाहिने हाथ पर रसातल है, सो मोदी भाजपाई कट्टरपंथियों पर कसें लगाम