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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टक्या मुझे ऑल्ट न्यूज़ के ज़ुबैर से कोई शिकायत है? इसके 3 जवाब हैं- नहीं, नहीं और हां

क्या मुझे ऑल्ट न्यूज़ के ज़ुबैर से कोई शिकायत है? इसके 3 जवाब हैं- नहीं, नहीं और हां

किसी को अपने विचारों के लिए जेल में नहीं डाला जाना चाहिए, न उस पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए. खासकर उन विचारों के लिए जो केवल सोशल मीडिया पर जाहिर किए गए हों.

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अगर आप मुझसे पूछें कि ‘आल्ट न्यूज़’ के मोहम्मद ज़ुबैर से मुझे कोई शिकायत है? तो मैं आपको तीन जवाब दूंगा— नहीं, नहीं और हां. पहले मैं दो ‘नहीं’ के कारण बताऊंगा.

सबसे पहली बात तो यह कि किसी को अपने विचारों के लिए जेल में नहीं डाला जाना चाहिए, न उस पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए. खासकर उन विचारों के लिए जो केवल सोशल मीडिया पर जाहिर किए गए हों. किसी लोकतांत्रिक समाज के लोगों की, चाहे वे उदारवादी हों या नहीं, चमड़ी इतनी पतली नहीं होनी चाहिए. जो भी हो, जिसे भी वे ‘निंदक’ मानते हों उसके खिलाफ उस कानून का इस्तेमाल करने की छूट नहीं होनी चाहिए जो किसी की स्वाधीनता छीनता हो.

मेरे पहले ‘नहीं’ की सफाई तो यही है. मैं उस व्यक्ति की स्वाधीनता वापस लौटाने के पूरे पक्ष में हूं. ‘50 शब्दों के संपादकीय’ में भी यही व्याख्या दी गई है.

इसके अलावा, अपमानित महसूस करने वाले लोग ‘निंदकों’ के खिलाफ आईपीसी की जिन धाराओं 153-ए और 295-ए के तहत मुकदमा दायर करते हैं वे अश्लील ही हैं. धारा 295 तो आईपीसी में सन 1860 में जोड़ी गई थी, 295-ए को ब्रिटिश हुकूमत ने 1927 में एक संकट के मद्देनजर शामिल किया था. किसी संकट या घटना के जवाब में बनाए गए सभी कानून खतरनाक होते हैं.

वह उथल-पुथल का दशक था जब 1929 में एक हिंदू, महाशय राजपाल की हत्या की गई थी. उन्होंने 1924 में एक छद्म नाम से एक किताब प्रकाशित की थी, जिसे मुसलमानों ने पैगंबर मुहम्मद का अपमान माना था. मुहम्मद अली जिन्ना समेत कई आला मुस्लिम वकील हत्यारे का बचाव करने के लिए आगे आए थे. ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां’ लिखने वाले मशहूर शायर इक़बाल हत्यारे के जनाजे में शामिल हुए थे. उन्हें ‘ग़ाज़ी’ की उपाधि दी गई थी और आज भी उन्हें पाकिस्तान में ‘नेशनल हीरो’ माना जाता है. उससे पहले वाले दशक में अंग्रेजों को हिंदू-मुस्लिम तनाव से निपटना पड़ा था. केरल के मालाबार में मोपला विद्रोह हुआ, उसके बाद देश भर में कई दंगे हुए. पंजाब में यह मुसलमानों और आर्य समाजी हिंदुओं के बीच तीखी बहसों के रूप में सामने आया.

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मुसलमानों की ओर से एक किताब प्रकाशित की गई जिसे हिंदुओं ने ‘रामायण’ की सीता का अपमान माना. और जल्दी ही उन्होंने पैगंबर मुहम्मद पर एक किताब छाप दी. इस किताब के संदिग्ध लेखक की हत्या की कई नाकाम कोशिशें की गईं लेकिन महज 20 साल का इल्मुद्दीन अप्रैल 1929 में कामयाब रहा.

इसी उथल-पुथल भरे दशक में अंग्रेजों ने मसले के कानूनी-प्रशासनिक समाधान के रूप में भारत का ईशनिंदा कानून बना दिया. इसी कोशिश के तहत 1927 में आईपीसी में धारा 295-ए जोड़ दी. उम्मीद यह की गई थी कि लोगों को अगर ईशनिंदा के खिलाफ अपने आक्रोश का कानूनी समाधान मिल जाएगा तो हिंसा पर रोक लग सकती है. लेकिन यह धारा राजपाल की ज़िंदगी नहीं बचा सकी. इसके करीब 100 साल बाद यह कन्हैयालाल या उमेश कोल्हे की भी ज़िंदगी नहीं बचा सकी.

यह कानून उस सशंकित उपनिवेशवादी सत्ता ने बनाया था, जिसका भारत से कोई स्थायी लगाव नहीं था. लेकिन यह कानून न केवल कानून की किताबों में बना रहा बल्कि 1957 में सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी पीठ ने उस पर बकायदा मुहर लगा दी. पाकिस्तान में ज़िया-उल-हक़ ने उसे अपने डरावने, तार्किक अंत तक पहुंचा दिया. उन्होंने इसमें एक उप-धारा जोड़ दी और क़ुरान के अपमान के लिए उम्रकैद और पैगंबर के अपमान के लिए फांसी की सज़ा तय कर दी.

जब भारत में ही 75 साल में किसी ने इस कानून को खत्म करने की हिम्मत नहीं की, तो पाकिस्तान में इसे कौन हाथ लगाता? भारत में अब जवाबी एफआईआर दायर करने का जो चलन चला है उसने इस कानून को नयी ताकत दे दी है.

सो, अगर यह कानून अश्लील है, तो इसके तहत ज़ुबैर या किसी की भी गिरफ्तारी और नूपुर शर्मा की गिरफ्तारी की मांग भी अश्लील है.


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ज़ुबैर से मुझे कोई शिकायत है या नहीं, इसके जवाब में मेरा पहला ‘नहीं’ में दिया जवाब सिद्धांत का मामला है लेकिन दूसरा ‘नहीं’ एक हिंदू के दिल से निकली आवाज़ है. मुझे लगता है, सोशल मीडिया पर ज़ुबैर के पुराने पोस्ट फिर से सामने आए और उन्होंने बड़ी संख्या में हिंदुओं को उत्तेजित किया. यह कोई नयी बात नहीं है.

पीढ़ियों से हम हिंदू लोग अपने देवी-देवताओं पर भी सवाल उठाते रहे हैं, अक्सर उनकी आलोचना करते रहे हैं. शायद यही वजह है कि देवी-देवताओं की संख्या इतनी ज्यादा है. एक देवता की कमियों को ढकने के लिए आपको दूसरे देवता की जरूरत पड़ती है. किसी ने हमें वह अंतिम सत्य नहीं दे दिया है जिस पर हम बहस नहीं कर सकते. कम-से-कम अब तक तो नहीं.

हमारे सभी देवी-देवताओं में, जो खास तौर से मानव रूप में हैं, उनमें कमजोरियां हैं. इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि हिंदू धार्मिकता के साथ हमेशा सहजता और थोड़ा हास्यबोध जुड़ा रहा है. यहां तक कि हमारे देवताओं में भी हास्यबोध है, और इसके लिए हमें उनका शुक्रगुजार होना चाहिए.

अरुण शौरी ने अपने संस्मरण में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के इतिहास में किंवदंती बन चुके एक संवाद (’जनसत्ता’ अखबार के दिवंगत संपादक प्रभाष जोशी और रामनाथ गोयनका के बीच) का जिक्र किया है. जोशी ने गोयनका से पूछा कि वे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक बी.जी. वर्गीज़ का करार आगे क्यों नहीं बढ़ा रहे, जो इतने ‘संत आदमी’ हैं? गोयनका ने जवाब दिया था, ‘समस्या यही तो है. वे संत जॉर्ज वर्गीज़ हैं. और मेरा ‘इंडियन एक्सप्रेस’ शिवजी की बारात है.’

अब अगर आपको यह नहीं मालूम कि शिवजी की बारात कैसी थी, तो देवानंद की 1955 की फिल्म ‘मुनीमजी’ का गाना सुन लीजिए. करीब सात दशकों में अब तक किसी को वह अपमानजनक नहीं लगा है. इसके लिए किसी पर धारा 295-ए या एनडीपीएस कानून के तहत आरोप नहीं दर्ज किया गया है.

हम यह भी याद कर सकते हैं कि स्व. सुषमा स्वराज ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर’ फिल्म के गाने ‘राधा ऑन द डांस फ्लोर’ पर कितनी नाराज हुई थीं और सवाल उठाया था कि हमेशा किसी हिंदू देवी-देवता का नाम ही क्यों घसीटा जाता है? लेकिन उस पर कोई बवाल नहीं मचा था. उसके बाद से लाखों हिंदुओं ने शादी, वर्षगांठ, जन्मदिन, कॉलेज या दफ्तर की पार्टियों में इस गाने पर डांस किया होगा. दीपा मेहता ने अपनी फिल्म ‘फायर’ में मध्यवर्गीय हिंदू परिवार की दो महिलाओं को समलैंगिक प्यार करते हुए दिखाया. इस पर कुछ आपत्तियां उभरी थीं कि उनका नाम राधा और सीता ही रखना क्या जरूरी था? लेकिन कोई बड़ा बवाल नहीं हुआ था.

हमारे देश में हिंदुओं की विशाल आबादी के लिए ईशनिंदा जैसी चीज का लगभग कोई अस्तित्व नहीं था. आज वही हिंदू अगर खुद को अपमानित महसूस कर रहे हैं और इतने नाराज हैं कि ज़ुबैर की गिरफ्तारी पर खुशियां मना रहे हैं और ऐसी और ज्यादा गिरफ्तारियों की मांग कर रहे हैं तो यह हिंदू धर्म का ‘अब्राह्मीकरण’ ही है और यह कोई अच्छी बात नहीं है.

यह दूसरी वजह है, जिसके चलते मैंने दूसरा जवाब भी ‘नहीं’ में दिया. हम हिंदू लोग अब तक जैसे रहे हैं उस लिहाज से मैं ज़ुबैर को पीड़ित ही मानूंगा. जाहिर है, उसने यह ख्याल नहीं किया कि मिजाज और माहौल अब बदल गया है.


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अब मैं अपने तीसरे जवाब, ‘हां’ पर आता हूं. सिद्धांत और अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण मुझे मुहम्मद ज़ुबैर से शिकायत है. यह सही है कि उन्होंने और ‘आल्ट न्यूज़’ ने तथ्यों की जांच करने वाली पत्रकारिता से मोदी सरकार को काफी परेशानी में डाला है. लेकिन आज वे नूपुर शर्मा प्रकरण के कारण परेशानी में फंसे हैं.

‘टाइम्स नाउ’ पर शर्मा ने पैगंबर के निजी जीवन के बारे में कुछ टिप्पणियां की, जिससे मुसलमान नाराज हो गए. माफी मांग कर इस मामले को दफा किया जा सकता था और यह भारत के अंदर ही सीमित रहता लेकिन ज़ुबैर ने एक छोटे दृश्य को व्यापक तौर पर जारी क्या किया, इस्लामी दुनिया में शोर मच गया और मोदी सरकार को शर्मसार होना पड़ा. उनकी दुर्भाग्यपूर्ण गिरफ्तारी उसका अफसोसनाक परिणाम है.

शर्मा के हिंदू समर्थकों का कहना है कि शर्मा केवल वही बता रही थीं जो इस्लामी ग्रंथों में लिखा है. उनका यह तर्क उतना ही कमजोर है जितना फिल्मकार लीना मणिमेकलाई का यह कहना कि उन्होंने अगर काली को सिगरेट पीते दिखा दिया तो यह यही दिखाता है कि वे रूढ़िवादी सामाजिक प्रतिबंधों को नहीं मानतीं. दोनों मामलों में असली चीज है संदर्भ.

दूसरी ओर, ज़ुबैर और उनकी संस्था के व्यापक तर्क को देखिए. वे वामपंथी हों या न हों, उदारवादी और धर्मनिरपेक्षतावादी तो हैं ही. अगर ऐसा है, तो क्या आप ईशनिंदा में विश्वास करते हैं? ईशनिंदा को लेकर बवाल को उकसाना किस तरह का उदारवाद है?

अगर आप पक्के मुसलमान की भाषा बोलते तब तो ठीक था. मेरी शिकायत यह है कि आप अपनी मशहूरियत और इज्जत अपनी उदारवादी और धर्मनिरपेक्षतावादी पहचान से हासिल करते हैं, या फिर कह दीजिए कि ऐसा नहीं है. यह भी माना जा सकता है कि आप किसी मुस्लिम मुल्ला की तरह तब अपमानित महसूस करते हैं जब आपको लगता है किसी ने आपकी किसी प्रतिष्ठित हस्ती का अपमान किया है. लेकिन तब यही सिद्धांत दूसरों के भगवानों पर भी लागू कीजिए और कोई छूट मत लीजिए.

मुझे वामपंथियों से तब तक कोई शिकायत नहीं है जब तक वे अपनी विचारधारा के प्रति सच्चे हैं और किसी ईश्वर या धर्म को नहीं मानते. लेकिन मुझे उस तथाकथित वाम-उदारवाद पर गंभीर आपत्ति है, जो अपमानित करने या अपमानित महसूस करने का पूर्वाग्रहग्रस्त नजरिया रखता है. मैं यहां अपनी शिकायत दर्ज एक भारतीय के रूप में करा रहा हूं, न हिंदू के रूप में और न मुसलमान के रूप में.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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