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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतदिवाली तो उजाले बांटने से ही शुभ होगी, उन्हें अपनी-अपनी मुट्ठियों में कैद करते रहने से नहीं

दिवाली तो उजाले बांटने से ही शुभ होगी, उन्हें अपनी-अपनी मुट्ठियों में कैद करते रहने से नहीं

आश्चर्य कि दीपावली पर धन की देवी की पूजा के बीच भी 80 करोड़ देशवासी अपनी भूख मिटाने के लिए मुफ्त के सरकारी राशन पर निर्भर हैं. तिस पर अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में यह भूख भी रुपये की ही तरह रिकार्ड तोड़ रही है.

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हो चित्त जहां भय-शून्य, माथ हो उन्नत/हो ज्ञान जहां पर मुक्त, खुला यह जग हो/घर की दीवारें बने न कोई कारा/हो जहां सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का/हो लगन ठीक से ही सब कुछ करने की/हों नहीं रूढ़ियां रचतीं कोई मरुथल/पाये न सूखने इस विवेक की धारा/हो सदा विचारों, कर्मों की गति फलती/बातें हों सारी सोची और विचारी/हे पिता मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें/बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा.

निस्संदेह, विविधताओं से भरे विशाल देश के तौर पर हम उस उजास का, दीपावली से हर साल जिसके सच्चे प्रतिनिधित्व की अपेक्षा की जाती है, सच्चा अभिषेक तभी कर सकते हैं, जब न सिर्फ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा की गई इस प्रार्थना के सुर में अपना सुर मिलायें बल्कि देश को उक्त स्वर्ग में जगाने के प्रयत्नों के प्रति स्वयं को समर्पित कर परस्पर स्नेह के दीप जलायें और उनके उजाले बांटने में लगें.

लेकिन विडम्बना देखिये कि हममें बहुतेरों ने इसकी सर्वथा उल्टी दिशा पकड़ ली है और ‘आप आप ही चरे’ की राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की काव्य पंक्ति को सार्थक करते हुए उजालों को अलग अलग अपनी-अपनी मुट्ठियों में कैद करने में लग गये हैं. इस कदर कि उनका वश चले तो दूसरों को उसकी झलक भी न लगने दें. यही कारण है कि हमारे समाज इतने परपीड़क हो चले हैं कि 21वीं शताब्दी के 22वें साल में भी देश के सर्वाधिक शिक्षित प्रदेश केरल से जल्दी मालदार होने की हवस में दो महिलाओं की क्रूरतापूर्वक बलि देकर उनका मांस खाये जाने की खबर आती है.


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क्या अर्थ है इसका? यही तो कि अपने सुख व समृद्धि के लिए दूसरों की जानें ले लेने में भी कोई बुराई नहीं देखी जा रही. इसीलिए तो गैरबराबरी और उसके जाये उत्पीड़न व शोषण आजादी के 75 साल बाद भी हमारे आकांक्षा व प्रतीक्षा के द्वंद्वों का खात्मा नहीं होने दे रहे.

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सत्ताधीशों ने तो खुद को गुरुदेव टैगोर के इस कथन तक का विलोम बना डाला है कि ‘जब तक मैं जिंदा हूं, मानवता पर देशभक्ति को हावी नहीं होने दूंगा’. जहां गुरुदेव को संकुचित राष्ट्रवाद कतई स्वीकार नहीं था, हमारे वर्तमान सत्ताधीशों को अपने तथाकथित राष्ट्रवाद को और संकुचित करते जाना छोड़कर कुछ रास ही नहीं आता. आता तो वे आंखें मूंदकर ऐसे कौतुक क्यों करते रहते कि एक ओर अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक की उपस्थिति में दिव्य व भव्य सरकारी दीपावली हर साल दीपों की संख्या बढ़ाकर गिनीज बुक के अपने रिकार्डों को नया करती रहे, दूसरी ओर रुपया गिरावट के नये-नये रिकार्ड बनाता रहे.

इस कदर कि भूख, महंगाई और बेरोजगारी के नंगे नाच अनेक लोगों को दीपावली को सुख-समृद्धि का पर्व बताने से भी रोकने लगें. रेटिंग एजेंसियां देश की विकास दर के अनुमानों को तो बार-बार घटायें ही, मंदी की आशंका भी जाने का नाम न ले.

गौर कीजिए, उनके कौतुक बेटियों में भी धार्मिक व साम्प्रदायिक भेदभाव करने और उनसे दरिन्दगी करने वालों को अनुकम्पा का पात्र बनाने लगे हैं- सो भी प्रधानमंत्री के गृह राज्य में, जहां बिलकिस बानो की बेबसी अंतहीन हो गई है. इतना ही नहीं, इसी राज्य के खेड़ा जिले में पुलिस कुछ अल्पसंख्यक युवाओं को ‘न अपील, न दलील न वकील’ की तर्ज पर सजा देने के लिए गांव के चौराहे पर बिजली के खम्भे से बांधकर तालियां बजाती भीड़ के सामने लाठियों से पीटती है. लेकिन सत्तापक्ष या विपक्ष कोई भी इसके विरुद्ध आवाज बुलन्द करने का जोखिम नहीं उठाता.

इसलिए कि इस स्थिति को न्यू इंडिया का ऐसा न्यू नार्मल बना दिया गया है, जिसमें सारे विरोध व असहमतियां खतरनाक अंदेशों के हवाले हो गई हैं. साथ ही नफरत को सद्भाव की छाती पर सवार कराकर उसका स्थायी भाव बना दिया गया है.

क्या आश्चर्य कि दीपावली पर धन की देवी की पूजा के बीच भी 80 करोड़ देशवासी अपनी भूख मिटाने के लिए मुफ्त के सरकारी राशन पर निर्भर हैं. तिस पर अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में यह भूख भी रुपये की ही तरह रिकार्ड तोड़ रही है. पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल व श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों तक के मुकाबले पिछले वर्षों से ही पतली चली आ रही उसकी हालत इस साल के वैश्विक भूख सूचकांक में और बदतर हो गई है.

लेकिन उसे लेकर सरकारी रवैया भी पिछला वाला ही है. वह पहले की ही तरह सूचकांकों के निर्धारण की प्रक्रिया पर सवाल उठाकर ‘हालात से निपट’ रही है. यह समझने को कतई तैयार नहीं कि भूख सूचकांकों में देश की लगातार गिरावट तभी रुक सकती है, जब वे उसके अमले के लिए गम्भीर चिंता व आत्मावलोकन का सबब बनें. लेकिन वे तो आजादी के 75वें साल में भी उसके माथे पर बल नहीं ही ला पाये.

कारण यह कि बेचारी भूख अभी तक न हिंदू हो पाई है, न मुसलमान, जबकि सरकार अपनी इस आदत से पीछा नहीं छुड़ा पा रही कि जब भी आम लोगों के जीवन-मरण से जुड़े किसी मुद्दे पर किसी भी आधार या मंच पर पिछड़ने लगे, उसका नोटिस लेने या कारण दूर करने के बजाय उसे देश का अपमान या उसके खिलाफ साजिश वगैरह बताने लग जाये या फिर हिंदू-मुसलमान और पाकिस्तान करने लग जाये.

यह तब है जब देश की सबसे ज्यादा संपत्ति एवं आर्थिक साधनों पर ‘10 प्रतिशत’ धनाढ्यों का कब्जा है और 90 प्रतिशत देशवासी कम से कम संपत्ति व संसाधनों पर गुजर-बसर को अभिशप्त हैं.

भले ही उसके संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि हम भारत के लोग भारत को एक समता व बंधुत्व पर आधारित सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी गणराज्य बनायेंगे. ऐसे में कोई क्यों नहीं बताता कि हमारा यह कैसा समाजवादी गणराज्य है, जिसकी सत्ता देशवासियों के बड़े प्रतिशत के भूख व कुपोषण के पंजे में जकड़े होने को लेकर दुःखी होने के बजाय उसके बयान में कभी देश तो कभी प्रधानमंत्री के अपमान का दर्शन करने लग जाती है.

दुष्यंत कुमार ने कभी इन्हीं हालात को लेकर कहा था: मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है. अब कई दूसरे तरह के घने कोहरे भी किसी की व्यक्तिगत आलोचना की परिधि में आ गये हैं, इसलिए ज्यादातर देशवासियों की जिन्दगियां उन्हें ‘जो छिपाने की थी, वह बात बताकर’ सजा दे रही हैं- धनकुबेरों द्वारा वैभव के उस प्रदर्शन को आदरणीय बनाकर, जो एक समय गहरी लज्जा का विषय हुआ करता था. धनकुबेरों का इस तरह अपने सारे लज्जाबोध को फलांग जाना, इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि उनके हिस्से आई सत्ता प्रायोजित जगर-मगर ने उनकी आंखों को इतना चाैंधिया डाला है कि वे अंधेरे में देखने को कौन कहे, अपने चारों ओर फैले उजाले के आर-पार भी नहीं देख पा रहीं.

लेकिन वे यह भ्रम न ही पालें तो ठीक कि अंधेरे में रहने को अभिशप्त देशवासियों की हालत भी उनकी जैसी ही है और वे भी अपने अंधेरों के पार कुछ नहीं देख पा रहे. क्योंकि ये देशवासी सब कुछ देख रहे हैं. न सिर्फ यह कि धनकुबेर किधर देख रहे हैं, बल्कि उन सत्ताधीशों की नजरें भी, जो धनकुबेरों की ही तरफ देख और एक कवि के शब्द उधार लेकर कहें तो बहुत संभल-संभल कर उनके लिए हितकारी अनुकूलित सत्य या झूठ बोल रहे हैं.

देशवासी जानते हैं कि उनका देश सच्ची दीपावली उस दिन ही मनायेगा, जब सच भी बहुत संभल-संभलकर बोला जाने लग जायेगा, क्योंकि तभी वह धनकुबेरों की तिजोरियों में कैद आम लोगों के उजालों को मुक्त कर पायेगा. अन्यथा तो वे अस्पतालों में अपनों की मौत के बाद एम्बुलेंस तक के लिए तरसेंगे और उनके रहनुमा लकदक लग्जरी वाहनों के काफिले में दनदनाते हुए उनके पास से गुजर जायेंगे-उन्हें वर्चुअली हैप्पी दीवाली कहते हुए!

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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