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Thursday, 25 April, 2024
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क्या अक्टूबर में ही दिवाली से कम होगा वायु प्रदूषण, पिछले 5 साल के आंकड़ों का जवाब है ‘नहीं’

दिवाली के बाद दिल्ली-एनसीआर में हवा की गुणवत्ता हमेशा 'बेहद खराब' से 'गंभीर' तक की श्रेणी में होती है. विशेषज्ञों का कहना है कि यह कितना खराब होता है यह पटाखों/वाहन उत्सर्जन और मौसम के मिजाज पर निर्भर करेगा.

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नई दिल्ली: जैसे-जैसे रोशनी का त्यौहार नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में छाई प्रदूषण की धुंध और गहरी होती जा रही है. दिवाली से पहले हवा की गुणवत्ता (एयर क्वालिटी) के ‘बहुत खराब’ स्तर तक गिरने की उम्मीद के साथ, केंद्र सरकार के वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट- सीएक्यूएम) ने बुधवार को अपनी ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (जीआरएपी) का दूसरा चरण लागू कर दिया.

हालांकि, वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि असली चुनौती 24 अक्टूबर को दिवाली के बाद ही सामने आएगी, जब आतिशबाजी, मौसम और बाकी फैक्टर्स के मिले-जुले प्रभाव से शहर में एक बार फिर से जहरीला स्मॉग (धुंध और धुएं का मिश्रण) पैदा हो सकता है.

यहां तक कि अपेक्षाकृत ‘गर्म’ महीने में पड़ने वाली दिवाली भी शायद हमारा बचाव न कर सके. इस महीने की शुरुआत में, सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (सफर) -इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मौसम विज्ञान (आईआईटीएम्) के वैज्ञानिकों ने कथित तौर पर कहा था कि इस साल प्रदूषण का स्तर कम हो सकता है, क्योंकि इस साल की दिवाली नवंबर, जब ठंडी हवा अधिक प्रदूषक कणों को कैद कर लेती है, के बजाय अक्टूबर में पड़ रही है. लेकिन पिछले आंकड़ों से पता चलता है कि इससे पहले के वर्षों में इस चीज से कोई खास फर्क नहीं पड़ा था.

भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) में पर्यावरण निगरानी और अनुसंधान केंद्र के प्रमुख डॉ. विजय कुमार सोनी ने कहा, ‘दिवाली के आसपास प्रदूषण का स्तर दो कारकों पर निर्भर करेगा – पटाखों और वाहनों से होने वाला उत्सर्जन और उस समय के आसपास की मौसम संबंधी स्थितियां.’

उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि दिवाली के बाद राष्ट्रीय राजधानी में वायु प्रदूषण हमेशा ‘बहुत खराब’ से लेकर ‘गंभीर’ के बीच रहा है, चाहे वह किसी भी महीने में क्यों न पड़ रही हो. उन्होंने कहा कि साल 2020 में इसके बाद हुई बारिश ने प्रदूषण के स्तर को काफी हद तक कम करने में मदद की थी, लेकिन इस साल ऐसा होने की संभावना काफी कम है.

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केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़ों से पता चलता है की साल 2017 में, जब दिवाली 19 अक्टूबर को मनाई गई थी, तो अगले दिन 24 घंटे का औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक (एयर क्वालिटी इंडेक्स या एक्यूआई) 403 (गंभीर स्तर) था. फिर 2019 में, जब दिवाली 27 अक्टूबर को पड़ी, तो वायु प्रदूषण का स्तर 368 (बहुत खराब) तक पहुंच गया. साल 2020 में, दिवाली (14 नवंबर) के अगले दिन वायु प्रदूषण 435 (गंभीर) और 2021 में, जब यह त्यौहार 4 नवंबर को पड़ा था, इसे 462 (गंभीर) दर्ज किया गया था.


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क्रेडिट: दिप्रिंट टीम.

अगर कोई अच्छी खबर है, तो वह यह है कि पंजाब के खेतों में जलाई जा रही पराली का असर इस साल कम होगा. सोनी ने कहा, ‘इस बार हम देश के पूर्वी हिस्से से चलने वाली हवाओं का अनुभव करेंगे, जो प्रदूषण में पराली जलाने के योगदान को सीमित कर देगी.’

एक जहरीला मौसम

पिछले महीने दिल्ली सरकार ने पटाखों के निर्माण, भंडारण, बिक्री और उपयोग पर 1 जनवरी 2023 तक के लिए ‘पूर्ण प्रतिबंध’ लगा दिया था. हालांकि, बहुत सारे लोगों द्वारा नियमों का उल्लंघन किये जाने की वजह से पिछले वर्षों में लगे ऐसे ही प्रतिबंधों को दिल्ली में केवल सीमित सफलता ही मिली है. पटाखों की दबे-छुपे तरीके से बिक्री अब भी जारी है. उदाहरण के लिए, सिर्फ इसी हफ्ते दिल्ली पुलिस ने चार अलग-अलग अभियानों में 2,000 किलोग्राम से अधिक पटाखे जब्त किए.

बेशक, पटाखे ही एकमात्र समस्या नहीं हैं. बायोमास जलाने और पड़ोसी राज्यों में फसल अवशेष (पराली) के जलाये जाने के साथ सर्दियों की शुरुआत, दिल्ली में हर त्यौहारी मौ0सम के दौरान खराब वायु गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार प्रमुख कारक हैं.

वायु प्रदूषण का विश्लेषण करने वाले एक प्लेटफार्म अर्बन एमिशन्स के संस्थापक और निदेशक डॉ. सरथ गुट्टीकुंडा ने कहा, ‘मौसम विज्ञान 12 घंटों के भीतर अपना चेहरा बदल सकता है, इसलिए हमें बस इंतजार करना होगा और देखना होगा कि दिवाली के बाद हवा की गुणवत्ता कैसी होगी. हम इसमें योगदान करने वाले सभी स्रोतों – परिवहन, बिजली संयंत्र, खाना पकाने, गर्मी पाने के साधन, कचरा जलाना, सड़क और निर्माण कार्य से उड़ी धूल, और दिवाली पर हुई आतिशबाजी निकले धुएं – पर नजर रखने की उम्मीद करना जारी रख सकते हैं.’

‘इस साल खेतों में आग की घटनाएं कम हुईं हैं’

दिवाली आम तौर पर धान की फसल के अवशेष को जलाये जाने के मौसम, जो आमतौर पर 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक रहता है, के साथ ही आती है. यह इस समय अवधि के दौरान राष्ट्रीय राजधानी के वायु प्रदूषण में योगदान करने वाला सबसे बड़ा कारक भी होता है.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट- आईएआरआई) के आंकड़ों के अनुसार, उपग्रहों ने 15 सितंबर और 19 अक्टूबर के बीच पराली जलाने के कुल 3,491 मामलों का पता लगाया है, जिनमें से अधिकांश दिल्ली के उत्तर में पंजाब में दर्ज किए गए थे.

विशेषज्ञों ने कहा कि 3 अक्टूबर को हुई भारी बारिश, जो ऐसे समय में हुई थी जब मानसून को वापस चले जाना चाहिए था, ने पराली जलाने के चरम काल – जो आमतौर पर नवंबर के पहले सप्ताह में ख़त्म हो जाता है – को एक सप्ताह से 10 दिनों तक पीछे खिसका दिया हो सकता है.

Stubble burning has increased 40% in Punjab this year | Photo: Suraj SIngh Bisht | ThePrint
पराली जलाने की प्रतीकात्मक तस्वीर | सूरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

आईएआरआई के कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनिटरिंग एंड मॉडलिंग फ्रॉम स्पेस के प्रमुख वैज्ञानिक वी के सहगल ने दिप्रिंट को बताया, ‘मुझे उम्मीद है कि इस साल पराली जलाने की घटनाओं में कमी आएगी. पराली जलाने के मौसम में इनकी संख्या तो बढ़ेगी, लेकिन हमें उम्मीद है कि पिछले साल की तुलना में खेतों में कम आग लगाई जाएगी और साल 2020 की तुलना में काफी कम आग लगाने की घटनाएं होंगीं.’

पंजाब में खेत में आग लगाने की घटनाओं की संख्या 19 अक्टूबर 2020 को 8,509 तक पहुंच गई थी, लेकिन इस साल इसी तारीख को यह संख्या घटकर 2,625 रह गई है. साल 2021 में, इनकी संख्या मामूली रूप से अधिक – 2,942 – थी.

सहगल ने कहा कि उनका मानना है कि यह कमी ‘कुछ हद तक’ तो मानसून की वापसी में देरी के कारण भी हुई है, मगर यह इसलिए भी है क्योंकि ‘राज्य और केंद्र सरकारें फसल अवेशष को जलाने के विकल्प प्रदान करके इस समस्या का समाधान करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर रही थीं.’

विशेषज्ञों का लंबे समय से कहना रहा है कि इस मसले की अंतर्निहित समस्या पानी की कमी वाले क्षेत्र में धान की खेती है, जहां खरीफ की फसल की कटाई और रबी फसल की बुवाई के बीच का समय बहुत कम है.

आईएआरआई के सहगल ने कहा कि रिमोट सेंसिंग से प्राप्त अनुमानों के मुताबिक इस साल पंजाब और हरियाणा में से धान की खेती का रकबा पंजाब में थोड़ा बढ़ा है. यह साल 2021 के 2.968 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 3.026 मिलियन हेक्टेयर हो गया है.


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सिर्फ दिवाली से परे भी है समस्या

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और भारत के गंगा के मैदानों में वायु प्रदूषण सिर्फ पटाखों और फसल अवशेषों को जलाने – जिनका असर नवंबर के मध्य तक समाप्त हो जाता है – से परे भी कई कारकों से प्रेरित है.

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दिल्ली के एक अध्ययन से पता चला है कि दिवाली के बाद के दिनों में, बायोमास के जलने – खाना पकाने और गर्मी के लिए लकड़ी या अन्य पदार्थों में आग लगाना – से दिल्ली की हवा खराब हो जाती है. पटाखों का बुरा असर तो दिवाली के 12 घंटे के बाद खत्म हो गया था.

काउंसिल ऑन एनवायरनमेंट, एनर्जी एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा साल 2021 के किये गए एक अध्ययन में भी यह पाया गया था कि 15 नवंबर से लेकर सर्दियों के मौसम के अंत तक वायु प्रदूषण में परिवहन, धूल और खाना पकाने तथा गर्मी पाने के लिए आग जलाने का सबसे बड़ा योगदान था.

दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी केंद्र सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की कार्यकारी निदेशक, रिसर्च एंड एडवोकेसी अनुमिता रॉय चौधरी ने कहा, ‘कुल मिलाकर वाहन प्रदूषण ही दिल्ली में प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत है. दिवाली के आसपास, अगर वाहनों की आवाजाही बढ़ जाती है, तो इससे अधिक मात्रा में उत्सर्जन हो सकता है. वैज्ञानिक समुदाय अब समझ गया है कि प्रदूषण एक साझा समस्या है, इसलिए दिल्ली सरकार द्वारा किए गए उपाय पर्याप्त नहीं होंगे, एनसीआर क्षेत्र में जो होता है वह भी एक फैक्टर है.‘

सीईईडब्ल्यू के अनुसार, ‘स्रोतों के पूर्वानुमानित योगदान और प्रदूषण के चरम काल के पूर्वानुमान’ का उपयोग करके ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान को लागू करने से वायु प्रदूषण को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने में मदद मिल सकती है.

सीईईडब्ल्यू के अध्ययन के लेखकों में से एक तनुश्री गांगुली ने कहा, ‘सीएक्यूएम ने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है, लेकिन सीएक्यूएम की नीतियों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना अभी बहुत जल्दबाजी होगी.‘

उन्होंने कहा, ‘हमने पाया है कि पूर्वानुमान वायु प्रदूषण की प्रवृत्ति का अनुसरण कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने प्रदूषण के पूर्ण सघनता (जमाव) के स्तर की लगातार कम करके भविष्यवाणी की है. इसमें सुधार की गुंजाइश है, विशेष रूप से वायु प्रदूषण के लिए विभिन्न स्रोतों को जिम्मेदार ठहराने की हमारी क्षमता में.’

अर्बन एमिशन्स के गुट्टीकुंडा के अनुसार, प्रदूषण के पूर्वानुमान मॉडल की कुछ सीमायें हैं. ‘पूर्वानुमान मॉडल बेसलाइन उत्सर्जन के विवरण पर निर्भर करते हैं – उत्सर्जन की तीव्रता और इन उत्सर्जन के स्थानिक/ लौकिक प्रतिनिधित्व दोनों के लिए. अक्सर, इन दोनों गतिविधियों को सूचना के कुछ ज्ञात क्षेत्रों द्वारा समर्थन दिया जाता है, जैसे उपयोग में लाई गई प्रौद्योगिकी, भौगोलिक डेटा, गतिविधि स्तर, ईंधन खपत का पैटर्न, आदि, लेकिन इन उत्सर्जन का अनुमान लगाने और उन्हें पेश करने की हमारी समझ में अभी भी अंतराल हैं.‘

गुट्टीकुंडा ने कहा, ‘चुनौतियां तब कई गुना हो जाती हैं जब न सिर्फ व्यापक रूप से प्रदूषण के ज्ञात स्रोतों को कवर करने, बल्कि इसके अज्ञात स्रोतों की भी गणना में शामिल करने की कोशिश की जाती है.’

उन्होंने कहा, ‘हम इन अनिश्चितताओं को क्षेत्र में हो रहे प्रयोगों, सर्वेक्षणों और अन्य टिप्पणियों के नोट्स – जब भी वे उपलब्ध हों – के साथ कम करने की पूरी कोशिश करते हैं.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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