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Friday, 26 April, 2024
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विकास की राजनीति: कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे…

मोदी ने लाल किले से धार्मिक झगड़ों को दरकिनार कर विकास के पथ पर बढ़ने का आह्वान किया था, लेकिन आज विकास की राजनीति मंदिर और मूर्ति के पीछे छुपती दिख रही है.

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गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब लोकसभा चुनाव के पहले नई दिल्ली के श्रीराम कॉलेज में अपना भाषण दिया था, तो उस भाषण को एक आशा की किरण के तौर पर देखा गया. उस जोशीले और उम्मीद जगाने वाले भाषण के बाद मोदी एक के बाद एक रैलियां करते गए और वे जहां भी जाते, जनता मोदी के नारे से रैली को गुंजायमान कर देती थी.

मनमोहन सिंह की कमज़ोर प्रधानमंत्री की छवि और उनकी सरकार के बारे में भ्रष्ट होने की धारणा ने लोगों में घोर निराशा भर दी थी. एक के बाद एक घोटालों की खबरों ने मतदाताओं को विचलित कर दिया था. इस निराशा के रेगिस्तान में मोदी नाम की बारिश ने लोगों में जोश भर दिया. खासकर उन करोड़ों युवाओं में जो नये भारत के उदय का सपना देखते हैं.

कॉलेज और विश्वविद्यालयों के युवाओं में अधिकांश ऐसे थे जो मोदी की विकास की राजनीति में मुरीद हो गए. मोदी अपनी हर रैली में ज्ञान-विज्ञान, अर्थव्यवस्था, तकनीक, बाज़ार, सबको आगे बढ़ाने की बात करते थे. उन्होंने अपने पहले भाषण से ही कहना शुरू किया कि पिछले 70 साल के कांग्रेसी शासन ने देश में कुछ भी अच्छा करने की जगह बहुत बुरा किया है, वरना भारत फिर से ‘विश्वगुरु’ होता और भारत का प्राचीन गौरव वापस लौट आता.


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उन्होंने विकास और सौहार्द की बात तब भी की जब वे प्रधानमंत्री बन गए. लाल किले से उन्होंने कहा कि जाति और धर्म के झगड़ों को दरकिनार करके हमें सिर्फ विकास पर फोकस करना चाहिए. सर्वाधिक युवाओं वाले देश को यह विकास की राजनीति का आइडिया बेहद पसंद आया.

लेकिन पांच साल बाद, जब गंगा-यमुना में अथाह पानी बह चुका है, विकास की गंगा भाषणों में तो अब भी बह रही है, लेकिन ज़मीन पर ठहरी हुई दिखती है. करीब से देखने पर लगता है कि विकास की गंगा में जाति धर्म और प्रोपेगैंडा का मलबा इतना ज़्यादा हो गया कि सड़ांध आने लगी है. मोदी के भाषण में अब भी विकास है, लेकिन अब वे भी मौका हाथ लगते ही ‘​क​ब्रिस्तान, श्मशान और पाकिस्तान’ पर बयानबाजी कर गुजरते हैं.

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हर सरकार के कार्यकाल के पूरा होने के साथ उसकी कुछ खास उपलब्धियां होती हैं. मोदी सरकार ने सत्ता में आने के साथ तमाम महत्वाकांक्षी परियोजनाओं की घोषणा की थी. वे परियोजनाएं तब बहुत सराही गई थीं. लेकिन आज खुद मोदी जी उनमें से बहुत कम योजनाओं का नाम लेते हैं. क्या उन योजनाओं में इतना भी काम नहीं हुआ कि मोदी उन्हें अपनी उपलब्धि के तौर पर गिना सकें?

सौ स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया, नमामि गंगे, विदेशों के काला धन लाना आदि ऐसी घोषणाएं थीं जिनका दिल खोलकर स्वागत किया गया था, लेकिन सरकार खुद आज उनके बारे में बात नहीं करती. नोटबंदी सरकार के सबसे बड़े निर्णयों में से एक रहा. उस समय नोटबंदी के कारणों में कालाधन वापस व्यवस्था में लाना, कैशलेस इकोनॉमी को बढ़ावा देना, आतंकवाद और नक्सलवाद पर लगाम कसने जैसे तर्क दिए गए थे. मार्केट में नोटबंदी के पहले से ज़्यादा कैश हैं, नक्सलवाद जस का तस है, कश्मीर में आतंकवाद के बढ़ने की बात कही जा रही है. सरकार ने नोटबंदी के भी फायदे के बारे में चुप्पी साध ली है.


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मौजूदा पांच राज्यों के चुनाव और आगामी लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा जाति और धर्म की राजनीति पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करती हुई दिख रही है. उनकी और उनकी पार्टी का मुख्य फोकस अब भी कांग्रेस परिवार है. भाजपा के पास अमोघ अस्त्र के रूप में मौजूद राम मंदिर का मुद्दा फिर से झोली से बाहर निकाल लिया गया है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और दूसरे धार्मिक-राजनीतिक संगठन उसे धार देने में लगे हैं. मोदी का गुजरात मॉडल अब चर्चा में नहीं है, अब वे नया वाराणसी अर्थात ‘क्योटो मॉडल’ पेश करते हुए दिख रहे हैं. विकास का मुद्दा नरम है, राम मंदिर और धार्मिक झगड़ों का मुद्दा गरम है.

प्रधानमंत्री बन चुके मोदी ने लाल किले से जिस जाति धर्म के ‘तुच्छ’ मुद्दों को दरकिनार करने की अपील करके विकास के पथ पर आगे बढ़ने का आह्वान किया था, वे खुद अपनी अपील पर आगे बढ़ने में असमर्थ दिख रहे हैं. विकास की राजनीति अब मंदिर और मूर्ति के पीछे छुपना चाहती है.

मोदी के गुजरात से दिल्ली आगमन के समय विकास की जो आंधी चली थी, उसने जड़ताग्रस्त सियासी शहर में कोई खास रचनात्मक उथल पुथल नहीं किया. उस आंधी से डरे विपक्ष ने यह कहना शुरू किया कि संविधान और लोकतंत्र को कमज़ोर किया जा रहा है. रचनात्मक विकास की आंधी पर विध्वंसक होने का आरोप लगने लगा.

विकास की राजनीति से कांग्रेस भी दूर

फिलहाल अभी के हालात यह हैं कि कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष मोदी के सामने इतना बेचारा दिखता है कि लोकतांत्रिक मूल्यों, अपनी पुरानी उपलब्धियों और भविष्य की योजना की जगह उसे भी मंदिर में छुपने की रणनीति ही सुहावनी लग रही है.  पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का खुलकर सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेलना सत्ता पक्ष की जीत जैसा है. विकास पर बात करने की जगह सारी बहस धार्मिक झगड़े पर केंद्रित होता दिख रहा है. अगर आशान्वित समर्थक जनता को मोदी ने निराश किया तो विपक्ष भी कोई नई उम्मीद दे सकने में नाकाम रहा है.


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डरी हुई कांग्रेस पार्टी सॉफ्ट हिंदुत्व पर राफेल विमान खरीद में घोटाले का आरोप लगाकर चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है, लेकिन फिलहाल उसे सफलता मिलती नहीं दिख रही है. जनता में यह धारणा अब भी बनी है कि मोदी निजी तौर पर ईमानदार आदमी हैं और कांग्रेस एक बेईमान पार्टी है.

भ्रष्टाचार अब उस तरह से मुद्दा नहीं है, जिस तरह पांच साल पहले था. जैसा कि दावा किया जा रहा है, अगर राफेल विमान खरीद में घोटाला हुआ भी है तो जमीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं की कमी से जूझ रही कमजोर कांग्रेस इसे जनता तक पहुंचाने में नाकाम साबित हो रही है. अन्य विपक्षी दलों ने भी मोदी सरकार के कथित भ्रष्टाचार पर चुप्पी ही अख्तियार की है.

कन्फ्यूज कांग्रेस इस भ्रम में है कि वह सॉफ्ट हिंदुत्व के सहारे कट्टर हिंदुत्व को हरा देगी. राम मंदिर, गाय, वैदिक तकनीक और हिंदू मुस्लिम की कट्टर राजनीति को कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व से मात देना चाहती है. अब विकास की जगह धार्मिक उन्माद ही प्रभावी दिख रहा है.

अब जब पांच साल बीतने को हैं, लगता है कि वह आंधी शहर में दाखिल हुए बिना बाहर-बाहर ही निकल गई है. विकास की राजनीतिक आंधी से आस लगाए लोग कह रहे हैं: कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे.

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