साल का यह वह समय है जब अगले वित्त वर्ष के लिए बजट तैयार करने की गतिविधियां शुरू हो जाती हैं. यह बंदूक बनाम रोटी की पहेली पर फिर से बहस शुरू करने का भी समय है. देश की रक्षा किसी भी सरकार के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता रही है और हमेशा रहेगी, क्योंकि रक्षा की ज़िम्मेदारी किसी दूसरे को नहीं सौंपी जा सकती, उसे ‘आउटसोर्स’ नहीं किया जा सकता. इसलिए यह सवाल बना रहता है कि स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास तक तमाम बेहद जरूरी मसलों के बरअक्स किसी देश को रक्षा पर कितना खर्च करना चाहिए?
इस सवाल का जवाब आसान नहीं है, खासकर इसलिए कि राजनीतिक हलके का एक पक्ष यह मानता है कि जिस दौर में सशस्त्र युद्ध की संभावना घटती जा रही है तब रक्षा मामलों पर खर्च पैसे को डुबाने जैसा ही है. लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से ये खतरनाक विचार हैं.
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ज्यादा खतरा, ज्यादा आवंटन
कोई भी देश अपने सामने खड़े बाहरी और आंतरिक खतरों के मद्देनजर फैसला करता है कि रक्षा पर कितना खर्च पर्याप्त होगा. रक्षा पर खर्च को बीमा की किस्त के समान माना जा सकता है. जोखिम जितना बड़ा होगा, बीमा की किस्त उतनी बड़ी होगी. इसी तरह, देश के सामने खतरे जितने ज्यादा होंगे, उसे रक्षा बजट उतना बड़ा बनाना होगा. लेकिन एक बड़ा है. बीमा तब लागू होता है जब कोई अप्रिय घटना घट जाती है, लेकिन रक्षा बजट के रूप में दी गई किस्त घटना को रोक सकती है. वह किस्त अपने आपमें अवरोधक का काम करती है.
यहां यूक्रेन का उदाहरण लिया जा सकता है. बढ़ते खतरों के बावजूद उसने अपनी सेनाओं को पर्याप्त रूप से तैयार नहीं किया. पर्याप्त चुनौती के अभाव ने रूस को ‘स्पेशल मिलिटरी ऑपरेशन’ शुरू करने की हिम्मत बढ़ाई. यूक्रेन को अकेले अमेरिका से 75 अरब डॉलर से ज्यादा की सहायता मिल चुकी है, जिसका 61 फीसदी सैन्य सहायता के रूप में है. दूसरे ‘नाटो’ देशों से मिली सहायता को भी जोड़ लें तो आंकड़ा 100 अरब डॉलर से ऊपर जा सकता है. इसके एक हिस्से के बराबर भी अगर अवरोधक शक्ति बनाने पर खर्च किया गया होता तो रूसी हमले को टाला जा सकता था.
लेकिन बात इतनी ही नहीं है. युद्ध ने यूक्रेन में जान-माल की भारी हानि और विनाश किया है. पूरा देश नेस्तनाबूद हो गया है और उसकी हालत को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी की हालत जैसी भी नहीं कहा जा सकता. युद्ध जारी है और नुकसान अनुमानों में अंतर दिख रहा है. मार्च 2023 की एक रिपोर्ट बताती है कि युद्ध के पहले ही साल में जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई में पुनर्निर्माण पर 411 अरब डॉलर की जरूरत पड़ेगी. इसमें सैनिक-असैनिक जन हानि और घायल हुए लोगों का हिसाब नहीं जोड़ा गया है. 1 करोड़ से ज्यादा लोग देश के भीतर और बाहर विस्थापित हुए हैं. अगर इस विशाल राशि का एक हिस्सा भी प्रतिरक्षा पर खर्च किया गया होता तो इतने भारी पैमाने पर विनाश को अगर पूरी तरह रोका नहीं गया होता, तो कम किया जा सकता था. इन तथ्यों के मद्देनजर भारत के लिए बेहतर होगा कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा की अपनी जरूरतों का पुनराकलन करे.
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रक्षा बजट पैसे को डुबोना नहीं होता
एक गलत धारणा यह है कि प्रतिरक्षा पर किया गया खर्च पैसे को डुबोना है. वास्तव में, सेनाएं जो पूंजीगत और राजस्व व्यय करती हैं उससे अर्थव्यवस्था को गति मिलती है और निवेश पर अच्छा लाभ मिलता है. वित्त वर्ष 2023-24 के लिए प्रतिरक्षा पर खर्च के लिए जो 5.94 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं उनमें से 1.63 लाख करोड़ का पूंजीगत खर्च आधुनिकीकरण और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास पर किया जाएगा. इसका 75 फीसदी हिस्सा यानी करीब 1 लाख करोड़ घरेलू उद्योग के लिए रखा गया है. यानी खर्च का इतना हिस्सा अर्थव्यवस्था में वापस डाल दिया जाएगा, जिससे रोजगार पैदा होंगे और आर्थिक वृद्धि को गति मिलेगी.
किसी भारतीय कंपनी को दिया गया हरेक ऑर्डर स्थानीय अर्थव्यवस्था, खासकर माइक्रो, स्माल औंद मीडियम उपक्रम (एमएसएमई) को लाभ पहुंचाएगा, जो सेना-उद्योग कांप्लेक्स के बड़े खिलाड़ियों की फीडर यूनिट होते हैं. ऊपर से नीचे जाने वाला लाभ देश भर में फैली आबादी के बड़े हिस्से तक पहुंचेगा. सेना की ओर से दिए गए ये ऑर्डर संपदा निर्माण में योगदान देते हैं. उदाहरण के लिए, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के शेयर की कीमत 22 अक्टूबर 2022 से 23 सितंबर 2023 के बीच 1,180 रु. से 42 फीसदी बढ़कर 2.052 रु. हो गई. यानी उसके कामगारों को ज्यादा बोनस मिलेंगे और शेयरधारकों को बेहतर लाभांश मिलेंगे. सेना को आधुनिकीकरण के लिए जरूरी साजोसामान मिलेंगे और कंपनियों को मुनाफा मिलेगा, यानी सबको लाभ-ही-लाभ.
राजस्व व्यय के मामले में भी यही बात लागू होती है. इसका बड़ा हिस्सा ‘मेंटेनेंस ऐंड ऑपरेटिंग’ (एम ऐंड ओ) पर खर्च होता है. भंडार के सभी साजोसामान का रखरखाव जरूरी है ताकि वह लड़ाई के लिए तैयार रहे, उनमें से अधिकतर तो हमारी सीमाओं (थल, समुद्र, वायु) पर हमेशा तैनात रहते हैं. सैनिकों को निवास, कपड़े, भोजन आदि देने पड़ते हैं. ये सब स्थानीय बाज़ारों से हासिल किए जाते हैं, चाहे वह स्टेशनरी हो, कपड़े से लेकर मसाले तक हों. सैन्य प्रतिष्ठानों के आसपास के छोटे व्यापारियों को इससे लाभ होता है.
सेना की यूनिटें और अड्डे देश के सभी भाग में हैं, इसलिए उनसे होने वाले लाभ भी दूरदराज़ के ग्रामीण समुदायों या सीमावर्ती क्षेत्रों के बीच बंटते हैं. ‘वोकल फॉर लोकल’ केवल नारा नहीं है बल्कि इसे पूरी तरह अमल में लाया जा रहा है. कई ठेके सीमावर्ती क्षेत्रों के स्थानीय सहकारी समितियों को दिए जाते हैं हालांकि उनकी कीमतें मैदानी इलाकों में लागू कीमतों से ज्यादा होती हैं. अरुणाचल प्रदेश में सेना की अधिकांश जरूरतें जंग लार्ज-साइज्ड मल्टी-पर्पज़ को-ऑपरेटिव सोसाइटी लि. से पूरी की जाती हैं. इसी तरह लद्दाख में भी उसकी जरूरतें स्थानीय उपक्रमों के जरिए पूरी की जाती हैं जिससे स्थानीय आबादी को ही काफी लाभ पहुंचता है.
खासकर सीमावर्ती क्षेत्रों की स्थानीय आबादी को मालूम है कि उनके शहर या गांव के पास फौजी अड्डा हो तो उसके क्या फायदे हैं. बात केवल सुरक्षा की नहीं होती बल्कि उससे होने वाले आर्थिक संपन्नता की भी होती है. यह इस तथ्य से भी पुष्ट होता है कि जब भी किसी यूनिट को कहीं स्थानांतरित करने की बात उठती है तो स्थानीय समुदाय इसका ऐसा जोरदार विरोध करते हैं कि संसद तक में उसकी आवाज सुनाई देती है.
रक्षा बजट के लिए आवंटन में वृद्धि को शांति तथा विकास के चश्मे से देखा जाना चाहिए और उस खर्च को ऐसे निवेश के रूप में देखा जाना चाहिए जिससे अच्छे लाभ मिलते हैं. विकास के लिए शांति जरूरी है और यह तभी बनी रहती है जब हम युद्ध के लिए तैयार रहते हैं. ‘आत्मनिर्भर भारत’ के लिए भारत को प्राथमिकता देनी होगी.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)
(संपादन: ऋषभ राज)
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