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Tuesday, 7 May, 2024
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थिएटरीकरण का अर्थ तीनों सेनाओं में यूनिटों का दोहराव करना नहीं है

थलसेना के अफसरों को नौसेना या वायुसेना की यूनिटों में तैनात करना एकीकरण के विचार पर जबानी जमा खर्च करना ही है. इससे सेनाओं के बीच अपेक्षित तालमेल नहीं होने वाला.

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हाल के दिनों में प्रतिरक्षा के क्षेत्र में एक सबसे अहम बदलाव यह हुआ है कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का पद बना दिया गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी घोषणा 15 अगस्त 2019 को लालकिले के प्राचीर से की थी. इसे एक जनवरी 2020 को लागू किया गया जब तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत को पहला CDS नियुक्त किया गया.

इसके साथ ही सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) का भी गठन किया गया जिसमें सीडीएस को इस विभाग का सचिव बनाया गया और उन्हें चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी (सीओएससी) का स्थायी अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया. सीडीएस को जो जिम्मेदारियां सौंपी गईं उनमें ये भी शामिल हैं — तीनों सेनाओं के ऑपरेशनों, उनके साजोसामान, परिवहन, प्रशिक्षण, सपोर्ट सर्विसों, संचारतंत्र, रखरखाव, मरम्मत आदि के कामों को संयुक्त रूप से चलाने की व्यवस्था करना; तीनों सेनाओं की संयुक्त कार्रवाइयों के जरिए इन्फ्रास्ट्रक्चर के अधिकतम उपयोग की व्यवस्था करना; फिजूलखर्ची कम करके सेनाओं की युद्ध क्षमता में वृद्धि करने के मकसद से उनके कामकाज में सुधार लाना.

इसके साथ ही डीएमए के लक्ष्य ये भी हैं — ‘‘मिलिटरी कमांडों का ऐसा पुनर्गठन करना कि संयुक्त/थिएटर कमांड्स के गठन समेत संयुक्त ऑपरेशनों के जरिए संसाधनों का अधिकतम उपयोग हो’’. ‘थिएटरीकरण’ नाम से मशहूर हुए इस पहलू ने सबसे ज्यादा ध्यान खींचा है, लेकिन बाकी समान रूप से महत्वपूर्ण कार्यों को गौण कर दिया गया है. ऑपरेशनों को बेहतर कुशलता से पूरा करने के लिहाज़ से ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें ज्यादा व्यावहारिक रवैया अपना कर तीनों सेनाओं के बीच तालमेल बनाया जा सकता है.


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सीडीएस के कार्य

देश की सुरक्षा को खतरे कई रूपों में सामने आ सकते हैं. इसलिए सेना के तीनों अंगों — थलसेना, नौसेना और वायुसेना— की ज़रूरत है. अमेरिका में एक चौथा अंग भी है जिसे मरीन कोर कहा जाता है, जिसमें एक कमांडर के अधीन तीनों अंगों को रखा गया है. इन खतरों का मुकाबला उपलब्ध वेपन सिस्टम की मदद से किया जाता है. ज़मीन से उभरे खतरे के लिए ज़मीन पर तैनात हथियारों का, हवाई खतरों के लिए विमानों का और समुद्री खतरों से युद्धपोतों और पनडुब्बियों का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन समय बीतने के साथ इन कुछ हथियारों का घालमेल किया जाता है, जिसकी समीक्षा युद्ध के बदलते स्वरूप के अनुसार की जाती है.

ऐसा एक क्षेत्र है रॉकेट फोर्स का प्रबंधन. आमतौर पर माना जाता है कि अगर लक्ष्य ज़मीन पर है और उससे निबटने के लिए ज़मीन आधारित वेपन प्लेटफॉर्म सबसे सटीक होगा, तो वह वेपन सिस्टम या प्लेटफॉर्म थलसेना के भंडार में होना चाहिए. तटों पर तैनात तोपें हालांकि, समुद्र पर मौजूद पोतों को निशाना बनाती हैं, लेकिन वे पारंपरिक रूप से थलसेना के अधीन होती हैं.

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यह बात तब भी लागू थी जब ब्रह्मोस मिसाइल सिस्टम (बीएमएस) पहली बार विकसित की गई थी, जो मीडियम रेंज वाली सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल है. शुरू में इसके हवाई या समुद्री संस्करण नहीं आए थे, लेकिन सेना के अंग के लिए उपयुक्त इन संस्करणों के आने के बाद बीएम एस रेजीमेंटों को वायुसेना को भी उपलब्ध कराया गया. बीएमएस थलसेना या वायुसेना के लिए जिन लक्ष्यों को निशाना बनाता था वे समान किस्म के होते थे और प्रायः उनमें दोहराव हो जाता था. इसके कारण संयुक्त लक्ष्य की लिस्ट बनाने की ज़रूरत पैदा हो जाती थी जो कि ऑपरेशन की कुशलता के लिहाज़ से अनावश्यक उपक्रम है. दो भिन्न सेनाओं के साथ समान यूनिटों का गठन तैयारियों के उपक्रम को काफी बढ़ा देता है जिनमें साजोसामान की कड़ी, रखरखाव के उद्यम, और प्रशिक्षण शामिल हैं. इस उपक्रम के कारण फिज़ूलखर्ची बढ़ती है.

इसी को ध्यान में रख कर सीडीएस के कार्यों में इन चीज़ों को शामिल किया गया— ‘‘तीनों सेनाओं के ऑपरेशनों, उनके साजोसामान, परिवहन, प्रशिक्षण, सपोर्ट सर्विसों, संचारतंत्र, रखरखाव तथा मरम्मत आदि के कामों को संयुक्त रूप से चलाने की व्यवस्था करना; आदि’’. इसलिए अधिकतम उपयोग के लिए पहले कदम के तौर पर ज़मीन आधारित सभी सिस्टम थलसेना के हवाले की जाए और तीनों सेनाओं के बीच आदान-प्रदान ज़रूरत के मद्देनज़र की जाए.

यह सब ज़मीनी, समुद्री, हवाई खतरों से निबटने की व्यापक नीति के तहत और पूरी तरह रक्षा मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र के तहत को हो. यह ऐसा लक्ष्य है जिसे आसानी से हासिल किया जा सकता है, जिसके कारण वित्तीय बोझ नहीं पड़ेगा. थलसेना के अफसरों को नौसेना या वायुसेना की यूनिटों में तैनात करना एकीकरण के विचार पर जबानी जमा खर्च करना ही है. इससे अपेक्षित तालमेल नहीं होने वाला, लेकिन नौसेना और वायुसेना पोतों (और पनडुब्बियों), हवाई मार करने वाले सिस्टम पर अपना स्वामित्व बनाए रखें, क्योंकि उनकी तैनाती की कसौटियां अलग-अलग हैं.


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रॉकेट तो थलसेना के हैं

इसके अलावा, पारंपरिक बैलिस्टिक मिसाइलों को भी शामिल करने की योजना है. इन्हें थलसेना के भंडार में शामिल किया जाना चाहिए. तीनों अंगों को हर चीज थोड़ी-थोड़ी मात्र में देने के लोभ से हर कीमत पर बचना चाहिए. भारत अगर चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की तरह अलग रॉकेट फोर्स बनाना चाहता है तो बैलिस्टिक मिसाइलों की यूनिटों के लिए सैनिक मूलतः थलसेना से ही लिए जाएं. यह इसलिए भी ज़रूरी है कि दोनों सिस्टम में लांचर वाहन या कामन्द पोस्ट आदि के मामलों में काफी समानता होगी. इसलिए रखरखाव और प्रशिक्षण संबंधी ज़रूरतें स्वतः आसानी से पूरी की जा सकेंगी. वायुसेना के लिए रॉकेट विमानों और एअर डिफेंस सिस्टम के बाद तीसरे नंबर पर हैं. थलसेना के लिए बीएमएस या दूसरी मिसाइल सिस्टम अपनी रेंज के कारण सबसे मारक हथियार होंगे इसलिए सबसे अहम होंगे.

ब्राइस जी. हॉफमैन ने अपनी किताब ‘रेड टीमिंग : ट्रांसफॉर्म योर बिजनेस बाय थिंकिंग लाइक द एनेमी’ में अधिकतम समाधान की जगह ‘सैटिसफाइसिंग’ (सैटिसफाई यानी संतोषजनक, और सफाइस यानी पर्याप्त को मिलाकर बना शब्द) समाधान खोजने में निहित खतरों की बात की है. हर एक (तीनों सेनाओं) को संतुष्ट करने की कोशिश में हर किसी को तात्कालिक ज़रूरत के लिए महज़ पर्याप्त देना सबसे बुरा समाधान है. हर किसी को संतुष्ट करने की कोशिश का नतीजा यह निकलता है कि कोई संतुष्ट नहीं होता.

सैटिसफाइसिंग समाधान व्यवसाय जगत में तो चल सकता है लेकिन युद्ध में यह विनाशकारी साबित हो सकता है. इसलिए तीनों सेनाओं को वही करना चाहिए जो वे जानती हैं और सबसे अच्छी तरह से कर सकती हैं और उन्हें ऐसे प्लेटफॉर्म से बचना चाहिए जो उनकी प्राथमिक भूमिका और चार्टर के अनुकूल नहीं हैं. सीडीएस को ‘सीओएससी’ के स्थायी अध्यक्ष के तौर पर इसी संदर्भ में अहम भूमिका निभाने, राष्ट्र के हित में, और व्यक्तिपरक सैन्य लक्ष्यों और ख़्वाहिशों की जगह ऑपरेशन से जुड़ी शर्तों के मद्देनज़र फैसले करने की जरूरत है.

(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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