scorecardresearch
Thursday, 26 December, 2024
होममत-विमतक्या भारत में भावनाओं की लहर पर सवार है समूची दलित राजनीति

क्या भारत में भावनाओं की लहर पर सवार है समूची दलित राजनीति

समूचे बहुजन आंदोलन का ध्यान हंगामा करने के मकसद पर ज्यादा रहा. सूरत बदली कि नहीं इसपर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया.

Text Size:

भारत में कोई भी काम भावनाओं से ज्यादा चलता है और तथ्यों से कम. दलित आंदोलन भी इससे अछूता नहीं है. दलितों का एक तबका कांग्रेस से सबसे ज्यादा इसलिए नाराज़ रहता है क्योंकि डॉ आंबेडकर को उन्होंने चुनाव में हराया था. क्या दुनिया में चुनाव हारने के लिए कोई लड़ता है?

बहुजन समाज पार्टी ने इस बात को सबसे ज्यादा प्रचारित किया कि बाबा साहब को चुनाव नहीं जीतने दिया गया. तथ्यात्मक रूप से यह बात सही नहीं है. हुआ यह था कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एस ए डांगे को दो वोट दिया गया था, जबकि एक ही देना चाहिए था. उस समय की चुनाव प्रणाली में एक से अधिक प्रत्याशी जीत कर आते थे.

मान लिया जाए कि अगर कांग्रेस ने उन्हें हराया होता तो भी यह कोई मुद्दा नहीं है. जहां तक बात है हिंदू कोड बिल ना पास होने कि वजह से, उन्होंने इस्तीफ़ा दिया था. नेहरू चाहते थे कि विधेयक पास हो जाए. लेकिन, उस समय के सांसद बगावत पर उतर गए. मान लिया जाए कि इसे कांग्रेस ने पास नहीं होने दिया तो भी यह आरोप नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि देश का जनमत कांग्रेस के साथ था.

देश के बटवारे के बाद उनकी सदस्यता समाप्त हो गयी थी और कांग्रेस ने उन्हें जितवाकर फिर से संविधान सभा में भेजा.


यह भी पढ़ें : उदित राज की बीजेपी से विदाई है संघ के समरसता प्रोजेक्ट की असफलता


बाबा साहेब को कानून मंत्री के साथ-साथ संविधान निर्माण समिति का अध्यक्ष भी बनाया गया. अगर तर्कसंगत तौर पर देखें तो कांग्रेस ने उन्हें सम्मान और अवसर ही दिया था. लेकिन आरोप लगाने वाले क्या ये नहीं जानते कि बाबा साहब अंतिम दिनों में अकेले पड़ गए थे और उनके सचिव नानक चंद रत्तू ही साथ रहा करते थे. तब तक शत प्रतिशत दलित, कांग्रेस को अस्सी के दशक तक वोट देते रहे और बाबू जगजीवन राम दलितों के एकक्षत्र नेता हुआ करते थे.

ऐसा लगता है कि बहुजन समाज पार्टी का तथ्य और भागीदारी से कोई कोई लेना-देना ही नहीं हो. शुरुआत में बसपा ने प्रशिक्षण शिविर आदि लगाये गए जिसमें शुरू से लेकर अंत तक सत्ता हासिल करने को लक्ष्य निर्धारित किया गया. इस तरह कि शुरुआत करना कोई गलती नहीं थी. लेकिन दशकों तक इसी भावना के इर्द-गिर्द आंदोलन को चलाए रखना धूर्तता और मूर्खता दोनों है.

पिछड़ा वर्ग के लोग अपने से ऊपर वालों का नेतृत्व तो आसानी से स्वीकार कर लेते हैं लेकिन दलित नेतृत्व को वो स्वीकार नहीं कर पाते. ऐसे में जो दलित बचते हैं वो भी भयंकर जातिवादी हैं.

बाबा साहब ने यह बात जरूर कही थी कि सत्ता की चाबी से कई ताले खुल जाते हैं लेकिन उन्होंने यह उस परिपेक्ष्य में कहा था कि भविष्य में जातिवाद कम होगा लेकिन राजनीति में तो जात-पात बड़ी तेजी से बढ़ा ही है. काफी तेजी से जाति आधारित दल बनते चले गए. तथाकथित उच्च जाति के हाथों में जो मीडिया है वो सत्ता को बहुत प्रभावित करने लगी है. अकेला एक पूंजीपति देश में होने वाले पूरे चुनाव को प्रभावित करने सकता है.

राजनीतिक नेतृत्व को भी दिन-प्रतिदिन के आधार पर कार्यकर्ताओं से मिलने की अब फिक्र नहीं है और न ही अधिकार और अलग-अलग मुद्दों को लेकर सड़क पर उतरने कि जरूरत रह गई है. संसद और विधानसभाओं में भी अब आवाज़ उठाने कि कोई जरूरत नहीं रह गई है.

कार्यकर्ता इस हद तक अंधभक्त हो गया है कि चिट्ठी लिखवाना, उत्पीड़न, वजीफ़ा, हॉस्टल, निजीकरण, आरक्षण और आर्थिक सशक्तिकरण आदि कि बात करना बेवकूफी समझा जाने लगा. इसी मूर्खतापूर्ण भावना के आवेग और इंतज़ार में लगभग सबकुछ खोता चला गया.


यह भी पढ़ें : आरपीआई, बीएसपी और आजाद समाज पार्टी: दलितों को अपनी पार्टी क्यों चाहिए


कुछ लोग अभी भी इतनी बड़ी भूल को महसूस नहीं करेंगे. वहीं मानसिक ईमानदारी का भी अभाव हो चला है. बहुजन आंदोलन का ध्यान हंगामा करने के मकसद पर ज्यादा रहा. सूरत बदली कि नहीं इसपर किसी ने ध्यान नहीं दिया.

सूरत बदलने कि स्थिति तब कहते जब न्यायपालिका, मीडिया, कला-संस्कृति, नाटक, साहित्य, फिल्म, कॉर्पोरेट उद्योग आदि में बहुजनों की भागीदारी हुई होती. इससे अच्छा तो समाजवादी पार्टी और राजद मॉडल है, जो अपने कार्यकर्ताओं को कई क्षेत्रों में भागीदारी दिलाते हैं और मनोबल भी बढ़ाते हैं.

(लेखक डॉ उदित राज, पूर्व लोकसभा सदस्य एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं .यह उनके निजी विचार हैं)

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. I absolutely love all your reporting – the print, cut the clutter, national interest, etc. I urge you not to use anglicized hindi for your reporting as we annoyingly and appallingly do when chatting on social media. “Law minister” is not a hindi phrase. Please use HINDI words…

Comments are closed.