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Friday, 3 May, 2024
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आरपीआई, बीएसपी और आजाद समाज पार्टी: दलितों को अपनी पार्टी क्यों चाहिए

भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद पर ये आरोप तो कतई नहीं चिपकता कि उनके पार्टी बनाने से बीजेपी आ जाएगी. बीजेपी उनसे पहले से ही आई हुई है.

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भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक और राजनीतिक पार्टी का उदय हुआ है. दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के नोएडा शहर के एक इवेंट हॉल में भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद रावण ने अपने राजनीतिक फ्रंट- आजाद समाज पार्टी (एएसपी) के गठन की घोषणा की.

चंद्रशेखर आजाद ने इस पार्टी के लॉन्च के लिए बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की जयंती का दिन चुना. घोषित तौर पर पार्टी ने अपना लक्ष्य संविधान की रक्षा करना और बहुजनों यानी एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों को संगठित करना बताया है. आजाद के मुताबिक ये पार्टी जातिवाद और सांप्रदायिकता दोनों से एक साथ लड़ेगी.

वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य में चंद्रशेखर आजाद की नजर कहां लगी है, इस बारे में शक की कोई गुंजाइश नहीं है. पार्टी लॉन्च करने के दिन उन्होंने एक ट्वीट में लिखा, ‘साहब कांशीराम तेरा मिशन अधूरा, आजाद समाज पार्टी करेगी पूरा’. जाहिर है कि चंद्रशेखर आजाद ये कह रहे हैं कि कांशीराम के सपनों को उनकी पार्टी पूरा करेगी, जिसका ये मतलब भी है कि उन सपनों को कोई और है, जो पूरा नहीं कर रहा है.

दिलचस्प है कि एक समय आरपीआई ही दलितों की प्रतिनिधि पार्टी हुआ करती थी और 1980 के दशक के मध्य में जब कांशीराम ने बीएसपी का गठन किया तो उनकी पार्टी ने ये नारा दिया कि– ‘बाबा साहेब तेरा मिशन अधूरा, हम सब मिलकर करेंगे पूरा’. जाहिर है कि बीएसपी उन सपनों को पूरा करने की बात कर रही थी, जिनकी बात कभी आरपीआई किया करती थी. आरपीआई की स्थापना डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने की थी.

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आरपीआई को बेदखल करके बढ़ी बीएसपी

इस मायने में समय का चक्र बीएसपी के लिए पूरी तरह घूम गया है. ये नहीं कहा जा सकता है कि आजाद समाज पार्टी अपनी राजनीतिक यात्रा में कहां तक पहुंच पाएगी. लेकिन फिलहाल उसने बीएसपी को वही नारा वापस दे दिया है जो नारा कभी बीएसपी ने आरपीआई को सुनाया था.

आजाद समाज पार्टी का तर्क है कि वह बहुजन आंदोलन को वहां ले जाना चाहती है, जिसका सपना कांशीराम ने देखा था. उसका मानना है कि बीएसपी न सिर्फ उस लक्ष्य को भूल चुकी है, बल्कि उसने उस सपने को भी त्याग दिया है, जिसे पूरा करने के लिए उसकी स्थापना की गई थी. इसी वजह से एक नई पार्टी बनाने की जरूरत पड़ी.

यूं तो सहारनपुर की ‘हरिजन कॉलोनी’ (ये नाम बदला नहीं है) से निकलकर आए एक युवा वकील चंद्रशेखर आजाद के लिए अब तक का सफर संघर्ष का रहा लेकिन उन संघर्षों और जेल यात्राओं ने उन्हें एक राष्ट्रव्यापी चमक भी दी है.

सहारनपुर के दलित आंदोलन के बाद रविदास मंदिर आंदोलन और फिर एनआरसी-सीएए के खिलाफ जामा मस्जिद की सीढ़ियों से संविधान की प्रस्तावना पढ़ने तक एक आंदोलनकारी के रूप में उनका कद बढ़ता गया. लेकिन राजनीति एक अलग ही दुनिया है, जहां कई राजनीतिक पार्टियां बनती है और मिट जाती हैं और उन्हें लोग याद भी नहीं रखते. ये सचमुच भीड़ भरी दुनिया है.

इस समय ऐसा लगता है कि चंद्रशेखर आजाद का सीमित लक्ष्य ये देखना है कि क्या बीएसपी और मायावती दलितों का नेतृत्व छोड़ती हैं या फिर क्या दलितों का बीएसपी से मोहभंग होता है. अगर ऐसा होता है तो आजाद समाज पार्टी दलितों के लिए एक विकल्प के रूप में खुद को पेश करने की कोशिश करेगी. इसलिए बेशक चंद्रशेखर मनुवाद से लड़ने की बात कर रहे हैं लेकिन उनकी असली कोशिश मायावती के मुकाबले खुद को विश्वसनीय दलित-बहुजन नेता के तौर पर पेश करने की है.

बीएसपी का टिकाऊ वोटबैंक और आजाद समाज पार्टी

बीएसपी के पुराने और अब तक टिकाऊ साबित हुए जनाधार को देखते हुए चंद्रशेखर का रास्ता आसान नहीं है. बीएसपी ने 2007 के बाद कोई चुनाव नहीं जीता है लेकिन यूपी में उसका वोट 20 प्रतिशत के आसपास टिका हुआ है. महत्वपूर्ण सवाल ये है कि क्या ये स्थिति आगे भी कायम रहेगी और चुनावी जीत न हासिल करने के बावजूद क्या दलित वोट बीएसपी के साथ बना रहेगा?

इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में है और इस बारे मे किसी तरह की कयासबाजी करने का फिलहाल कोई कारण नहीं है.


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लेकिन इस समय एक और बड़े सवाल पर बातचीत हो सकती है. वो प्रश्न ये है कि आधुनिक भारतीय लोकतंत्र में किसी जाति या जाति समूह की कोई पार्टी क्यों होनी चाहिए? सामुदायिक गोलबंदियां दरअसल सामंती अवधारणा है और पूंजीवाद के आगमन के साथ जब आधुनिक लोकतंत्र आया, तो ये माना गया कि सामुदायिक पहचान कमजोर पड़ेगी और हर व्यक्ति की प्राथमिक पहचान एक नागरिक के रूप में होगी. अगर ऐसा हुआ होता, तो भारत में किसी समूह या जाति आधारित पार्टी के लिए संभावना न होती.

जाति और धार्मिक पहचान के आधार पर चलता लोकतंत्र

लेकिन भारतीय लोकतंत्र दरअसल बेहद घालमेल के साथ आया. समाज का ढांचा भारत में अब भी काफी हद तक सामंती रह गया है और शासन प्रणाली के तौर पर हमने आधुनिक लोकतंत्र को अपना लिया है. इसलिए भारतीय लोकतंत्र में गोलबंदी, जिसमें चुनावी गोलबंदी शामिल है, का बुनियादी आधार आज भी जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र या ऐसी ही कोई पहचान है. हर चुनाव से पहले चुनाव क्षेत्र के जातीय समीकरण की चर्चा होती है और उम्मीदवार दिए जाने का एक प्रमुख आधार उनकी जाति और धर्म जैसी पहचान होती है.

सवाल उठता है कि ऐसी स्थिति में सवर्ण अपनी अलग पार्टी क्यों नहीं बनाते? दरअसल ये एक मिथ्या धारणा है कि भारत में सवर्णों की पार्टियां नहीं हैं. आजादी के बाद भारत में सवर्णों की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस थी. कोई ये तर्क दे सकता है कि कांग्रेस में तो सभी जातियों के लोग थे. लेकिन ये बात तो बीएसपी, सपा, आरजेडी और डीएमके के लिए भी सच है. तो क्या किसी पार्टी को जातिवाद से इतर तभी माना जाएगा, जब उसके शिखर पर कोई गैर-सवर्ण बैठा हो? हो सकता है कि ऐसा ही हो.

वर्तमान समय में सवर्णों की प्रतिनिधि पार्टी बीजेपी है और उसने कांग्रेस को इस स्थान से बेदखल कर दिया है. एक्जिट पोल के आंकड़े लगातार दिखा रहे हैं कि 2014 के बाद से सवर्णों ने बीजेपी के लिए एकमुश्त वोटिंग करना शुरू कर दिया है. इसी तरह मझौली जातियों के नेतृत्व वाली पार्टियां भी सक्रिय हैं.

दलितों की अपनी पार्टी होनी चाहिए

ऐसे में कोई कारण नहीं है कि दलित अपनी पार्टी क्यों न बनाए और क्यों न चलाएं. मेरा मानना है कि भारत में जब तक समूह की जगह समाज नहीं ले लेता और सामुदायिक पहचान कमजोर होकर, नागरिक की पहचान प्रभावी नहीं हो जाती, तब तक दलितों को अपनी पार्टी बनाने और चलाने का काम छोड़ना नहीं चाहिए. दलितों को अपने हितों को पूरा करने का दायित्व किसी और सामाजिक समूह वाली पार्टी के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए.

ये दिलचस्प है कि जिस दिन चंद्रशेखर आजाद अपनी पार्टी की घोषणा कर रहे थे, उसी दिन लखनऊ में बसपा के कई प्रमुख दलित नेताओं ने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया. ये याद रखा जाना चाहिए कि दलित विरोध में सपा एक समय कांग्रेस और बीजेपी से भी आगे निकल गई थी और प्रमोशन में आरक्षण का विधेयक उसके विरोध के कारण लोकसभा में कभी पास नहीं हो पाया. सपा के सामने जब भी अपने कोर वोट और दलितों के हितों के बीच चुनने की बारी आएगी, तो वह कभी कोई गलती नहीं करेगी.


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दलितों के हितों को पूरा करने में बिहार में लालू प्रसाद यादव भी कामयाब नहीं रहे और न ही नीतीश कुमार ही इस काम को कर पाए. बिहार के दलितों ने अपना नेतृत्व समाजवादियों (जनता दल और इससे निकले नेताओं) को सौंप रखा है. बिहार में होने वाले बीसियों दलित नरसंहारों को रोकने में लालू यादव प्रशासन की नाकामयाबी के कारण ये सवाल उठा कि क्या दलितों ने बिहार में अपनी पार्टी न बनाकर कोई गलती तो नहीं कर दी.

चंद्रशेखर आजाद के राजनीति में उतरने से वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवियों को दुख हुआ है. उन्हें लगता है कि इस तरह तो सेकुलर वोट और बंट जाएगा. वे ये तथ्य को भूल रहे हैं कि आजाद समाज पार्टी के बनने से पहले, 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में सपा-बसपा और आरएलडी ने महागठबंधन बनाया था और इसके बावजूद वे बीजेपी को नहीं रोक पाए. इसलिए चंद्रशेखर आजाद पर ये आरोप तो कतई नहीं चिपकता कि उनके पार्टी बनाने से बीजेपी आ जाएगी. बीजेपी उनसे पहले से ही आई हुई है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)

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11 टिप्पणी

  1. आपका आधार है की बसपा ने rpi का स्थान लिया यह बिलकुल कोरी बकबास और तथ्यहीन बात है।
    Rpi बाबा साहेब के बाद कोई भी सफलता हासिल नही कर पाई थी महाराष्ट्र तक में भी यूपी की तो बात ही अलग है। बसपा न सिर्फ राजनीतिक रूप से सफल है बल्कि यह विचारधारा को भी स्थापित करने में सफल हुई उसी का नतीजा।
    चंद्रशेखर हो या देवाशीष जरारिया या 50 iit वालों की पार्टी,
    कांग्रेस की राजनीति दलित मुस्लिम के वोट को upper कास्ट के हाथ बेचने तक ही है जिसे बसपा ने खत्म किया सिर्फ यूपी में ही नही पुरे देश ने भी।
    जिसके बाद मीरा कुमार ,pl पूनिया,खड़गे, सुशिल शिंदे जैसे दलित समाज के मजबूरी में लोगों को पद देना पड़ा।
    उसी प्रोजेक्ट के तहत ही चंद्रशेखर को खड़ा किया जा रहा है लेकिन हम ऐसे बिकाऊ नेतृत्व को बहुजनों का नुकसान नही करने देंगे

  2. आजाद समाज पार्टी से जुड़ने हेतु आवेदन पत्र आमंत्रित किए हैं

    • मै सद्दाम राणा जिला सहारनपुर से मे आजाद समाज़ पार्टी से जुड़ना चाहता चाहता हूँ और पार्टी के साथ रात दिन खड़ा रहूँ गा जय भीम 7669693078

  3. पता पड़े बेसे भी समाज में दरार तो पैदा कर ही दी

  4. Mai bhi party ke sath judna chahta hun Mr Neeraj Kumar district Shahjahanpur Uttar Pradesh 9621971998

  5. I’m Chandan Kumar sahgal. From Purnea district bihar. I want to join your party
    mob 9315098758

  6. मै तो अपना पूरा जीवन इस आजाद समाज पार्टी के लिए जीना चाहता हूं।

  7. जिस दिन आज़ाद पार्टी मैदान में उतर गई बीजेपी को कोई नहीं हरा सकता ये बीजेपी का ही उतारा गया खिलाड़ी है क्यू कि दलित और मुस्लिम कभी बीजेपी को वोट नहीं करते मुस्लिम 95% और दलित 70% वोट नॉन बीजेपी वोट है इसीलिए इसे खड़ा करके इनका वोट बीएसपी कांग्रेस और आज़ाद पार्टी को बट जयेगा और बीजेपी जीवन पर्यंत चुनाव नहीं हारेगी ।।।।।

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