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Thursday, 25 April, 2024
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भारत के शहरों में भी ज़िंदा है जाति, अलग-अलग रह रहे हैं सवर्ण और दलित

गुजरात में ये देखा जाना चाहिए कि जिस राज्य के बारे में ये मिथक है कि यहां हिंदू और मुसलमान अलग-अलग रहते हैं, उस राज्य में दलितों को शहरी मोहल्ले से दूर रखने का चलन सबसे ज्यादा क्यों हैं. गुजरात का जातिवाद इतने लंबे समय से छिपा हुआ क्यों रहा?

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जातियां और जाति व्यवस्था शहरीकरण और आधुनिकीकरण से ज़्यादा शक्तिशाली साबित हुई हैं. अब तक ये माना जाता था कि शहरीकरण और आधुनिकीकरण के साथ जाति और गोत्र जैसी प्राचीन और परंपरागत पहचानें धूमिल हो जाएंगी. लेकिन इस बारे में किया गया एक शोध-पत्र बता रहा है कि शहरों में भी बस्तियां जातियों के आधार पर बसी हुई हैं और सवर्णों के मोहल्लों में दलितों को अक्सर ठिकाना नहीं मिलता.

इस शोध को नवीन भारती, दीपक मलगन और अंदलीब रहमान ने किया है. इस शोध पत्र का शीर्षक है- ‘आइशोलेटिड बाई कॉस्ट: नेबरहुड स्केल रेसिडेंशिएल सेग्रिगेशन इन इंडियन मेट्रोस.’ इसे इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ बेंगलुरु ने प्रकाशित किया है.

इस शोध को करने वाली टीम के सदस्य नवीन भारती ने दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में अपने आंकड़ों के बारे में जानकारी देते हुए कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने रखे-

1. दलितों को शहरी मोहल्लों से बाहर रखने का सबसे ज़्यादा चलन गुजरात में है. मिसाल के तौर पर, राजकोट शहर की 80 प्रतिशत बस्तियों में कोई दलित निवासी नहीं है.

2. कोलकाता शहर में, जिसके बारे में ये मिथक है कि यहां ढेर सारे समाज सुधार आंदोलन हुए, लगभग 60 प्रतिशत मोहल्लों में कोई दलित नहीं रहता.

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3. बेंगलुरु शहर में आईटी क्रांति के बाद बसी आधुनिक बस्तियों में भी दलितों के न होने का चलन नज़र आता है और इन आधुनिक अपार्टमेंट में भी दलित बेहद कम हैं.

ये सारा तथ्य इसलिए सामने आ पा रहा है क्योंकि 2011 की जनगणना में पहली बार जनगणना ब्लॉक के आधार पर आंकड़ें इकट्ठा किए गए. एक जनगणना ब्लॉक में 900 के आसपास लोग होते हैं. इससे पहले की जनगणना में जनगणना वार्ड के स्तर पर आंकड़ें जुटाए जाते थे. एक जनगणना वार्ड में 30,000 से लेकर दो लाख लोग तक हो सकते हैं.


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जनगणना वार्ड के आंकड़ों में जातियों के आधार पर मोहल्लों के बसे होने का पता नहीं चलता क्योंकि वार्ड एक बड़ी इकाई है और उसमें आम तौर पर विविधता नज़र आ जाती है. जबकि जनगणना ब्लॉक के आधार पर समाज की सच्चाई सही तरीके से सामने आती है.

जनगणना ने बताई शहरों की हकीकत

अभी तक ये माना जाता था कि शहरों में धर्म के आधार पर लोगों की अलग अलग बस्तियां और मोहल्ले बसे हुए हैं. इसकी आलोचना भी होती रही है. हालांकि इस विभाजन को सही और स्वाभाविक बताने की भी प्रवृति देखी गई है. इसके लिए ये तर्क दिया जाता है कि धर्म दरअसल संस्कृति और खानपान को भी निर्धारित करता है और इस आधार पर जो लोग अलग हैं, उनके अलग रहने में कोई बड़ी बात नहीं है.

लेकिन नया आंकड़ा और इसके आधार पर सामने आया शोध बता रहा है कि शहरों में विभाजन सिर्फ धर्म नहीं, बल्कि जाति के आधार पर भी है.

इस शोध से कई मिथक भी टूटे हैं. जैसे –

– शहरों में जातिवाद कम है.

– जातिवाद गांवों की समस्या है.

– आधुनिकीकरण और शहरीकरण के साथ जातियां टूट जाएंगी.

– शहरों में अमीरी-गरीबी, शिक्षा और नौकरी के आधार पर का भेद है. यहां कोई जाति नहीं पूछता.

शहरी बस्तियों में जाति के आधार पर भेदभाव के बारे में किए गए शोध से इस पहलू को नए तरीके से देखने और परखने का आधार मिला है. ये शोध ये तो बता रहा है कि शहरों में दलितों को सवर्णों की बस्तियों में जगह नहीं मिलती. लेकिन इस शोध के दायरे में ये सवाल नहीं थे कि इस काम को किस तरीके से अंजाम दिया जाता है. आखिर वो कौन से तरीके हैं, जिससे शहरों में कॉलोनियां बसाने से लेकर किराए पर मकान देने वाले ये जान लेते हैं कि कोई व्यक्ति दलित है? साथ ही ये जानना भी दिलचस्प होगा कि इस तरह अलग-अलग रह रहे समुदायों में एक दूसरे के बारे में कैसी धारणाएं काम करती हैं.

जिन दो स्थानों पर इस बारे में सबसे ज़्यादा नज़र होगी, वे हैं कोलकाता और गुजरात.

कोलकाता के बारे में ये माना जाता है कि ये आधुनिकता की भूमि है और यहां के लोग काफी आधुनिक हैं. ये सामाजिक नवजागरण का भी केंद्र रहा है. लंबे समय तक वहां वामपंथियों का भी शासन रहा. फिर ऐसी क्या वजह है कि कोलकाता के भद्रलोक मोहल्लों में दलित अनुपस्थित हैं. शोध का विषय ये भी है कि कोलकाता में सिर्फ 5 फीसदी दलित क्यों हैं, जबकि पश्चिम बंगाल में 23 फीसदी से ज़्यादा दलित हैं.

वहीं गुजरात में ये देखा जाना चाहिए कि जिस राज्य के बारे में ये मिथक है कि यहां हिंदू और मुसलमान अलग-अलग रहते हैं, उस राज्य में दलितों को शहरी मोहल्ले से दूर रखने का चलन सबसे ज्यादा क्यों हैं. गुजरात का जातिवाद इतने लंबे समय से छिपा हुआ क्यों रहा?


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हालांकि शहरों में जातिवाद के न होने के मिथक को एक और शोध ने पहले भी तोड़ा है. सुखदेव थोराट और पॉल अटवेल के शोध ने ये दिखाया कि आधुनिक और मल्टिनेशनल कंपनियों को अगर एक ही बायोडाटा सवर्ण और दलित सरनेम के साथ भेजा जाए तो सवर्ण सरनेम वाले बायो डाटा को इंटरव्यू के लिए कॉल आने के चांस ज्यादा होंगे.

इसी तरह शिक्षा के आधुनिक केंद्र यानी विश्वविद्यालयों में भी जातिवाद की जकड़न कायम हैं और वहां भी दलित, आदिवासी और पिछड़े स्कॉलर्स के शिक्षक बनने के रास्ते लगभग बंद हैं.

अब शहरी मोहल्लों के बारे में आए शोध से ये धारणा और मजबूत हुई है कि जातिवाद को तोड़ पाने में शहरीकरण और आधुनिकीकरण अब तक सक्षम साबित नहीं हुए हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)

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2 टिप्पणी

  1. ये दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि भारत में संविधान लागू होने के सत्तर वर्षों के बाद भी जातिवाद को जिंदा रखना कौन सी मजबूरी है एक तरफ हम आधुनिकता का दम भरते हैं वहीं दूसरी ओर दकियानूसी को ढोये जा रहे हैं एक तरफ गीता के कर्मवादी सिद्धांत की दुहाई देते हैं वहीं दूसरी ओर जन्म जन्मांतर की कुप्रथाओं का अनुसरण करने को आमादा हैं
    हमारी सोच इतनी संकुचित और स्वार्थ पूर्ण क्यों ?

  2. जातिवाद जिंदा रखने में स्वर्ण व दलित दोनो ही दोषी है। स्वर्ण अगर दलित को हेय दृष्टि से देखता है तो दलित भी पूर्वाग्रह कि भावना से ग्रस्त है। दलित दलितों उठाना ही नही चाहता । कई सम्पन्न दलित परिवार अन्य गरीब दलित का हक खा जाते है व सामान्य होना ही नही चाहते । अगर एक उच्च पद पर आसीन अधिकारी का परिवार क्या दलित ही रह जायेगा । किसी परिवार में कोई पति पत्नी बड़े पद पर हो व बच्चे किसी उच्च विद्यालय में अध्ययन कर रहे है तो क्या उनको दलित बना रहना तर्क सहमत है । अतः उस परिवार को स्वयं को समय घोषित करना चाहिये। लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी वह दलित शब्द का इस्तेमाल कर फायदा उठाना चाहता है । आप दलित जब तक दलित है जब तक अपने से दलित शब्द जोड़ते हो अन्यथा सब सामान्य है ।

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