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Sunday, 13 October, 2024
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ओबीसी क्रीमी लेयर को आर्थिक आधार पर निर्धारित करना भाजपा के लिए बिहार में भारी पड़ेगा

केंद्र सरकार ओबीसी रिजर्वेशन से जुड़े क्रीमी लेयर के प्रावधानों में बदलाव करने जा रही है. इनके लागू होने से बड़ी संख्या में ओबीसी आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे.

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भारतीय जनता पार्टी आरक्षण से जुड़े एक बारूदी ढेर पर बैठी है, जो बिहार चुनाव से ठीक पहले फट सकता है. केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने एक नोट तैयार किया है, जिसके लागू होने से ओबीसी आरक्षण के लागू होने का तरीका पूरी तरह से बदला जा सकता है. अगर ये लागू होता है, जिसकी संभावना बहुत ज़्यादा है, तो देश की 50 प्रतिशत से अधिक ओबीसी आबादी के शिक्षा और रोज़गार के अवसरों पर इसका असर पड़ सकता है.

इस नोट का मकसद ओबीसी क्रीमी लेयर के प्रावधान को पूरी तरह बदलना है और इसका आधार आर्थिक बना देना है. इस नोट में ये सुझाव दिया गया है कि वेतन को आमदनी का हिस्सा मानकर क्रीमी लेयर लागू किया जाए. इस प्रावधान के लागू होने से बहुत सारे वे लोग, जो अभी नॉन क्रीमी लेयर ओबीसी हैं और इस कारण जिनको ओबीसी आरक्षण का लाभ मिलता है, आरक्षण से वंचित हो जाएंगे. ऐसे लोगों की संख्या दसियों लाख होगी.

दिलचस्प ये है कि बीजेपी सरकार ओबीसी क्रीमी लेयर की परिभाषा उस समय बदल रही है, जब बिहार का विधानसभा चुनाव करीब है. अगर ऐसा होता है तो –

1. बिहार में बीजेपी की चुनावी संभावनाओं पर असर पड़ सकता है.

2. बीजेपी के पार्टनर नीतीश कुमार का चुनावी गणित गड़बड़ा सकता है.

3. सेकुलरिज्म और सामाजिक न्याय को अपनी राजनीति का केंद्र बनाने वाले राष्ट्रीय जनता दल को एक चुनावी बड़ा मुद्दा हाथ लग सकता है.

क्रीमी लेयर का विवादास्पद मामला

संविधान के मौलिक स्वरूप में आरक्षण के आर्थिक आधार का कहीं ज़िक्र नहीं है. आरक्षण देने के लिए सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन (अनुच्छेद 340) और सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने (अनुच्छेद 16-4) को आधार बनाया गया. ईडब्ल्यूएस यानी एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण से बाहर रह गए लोगों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिए 103वां संविधान संशोधन किया गया.


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लेकिन, उससे काफी पहले 1992 में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण में आर्थिक आधार डालते हुए ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान कर दिया और आदेश दिया कि ओबीसी आरक्षण सिर्फ उन लोगों को मिलेगा जो क्रीमी लेयर में नहीं आते. इस आदेश के बाद 1993 में केंद्र सरकार ने क्रीमी लेयर की शर्तें तय कीं. इस सरकारी आदेश के पेज-5 में साफ लिखा गया है कि क्रीमी लेयर के लिए आमदनी का हिसाब लगाते हुए वेतन और कृषि आय को आमदनी को नहीं जोड़ा जाएगा.

इसी सरकारी आदेश को बदलने की कोशिश इस समय हो रही है. केंद्र सरकार द्वारा कार्मिक और पेंशन विभाग के तत्कालीन सचिव बीपी शर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित कर उसे क्रीमी लेयर के प्रावधानों में संशोधन करने की सिफारिश करने को कहा गया. इस कमेटी ने दो विकल्प सुझाए हैं. पहला विकल्प है कि वेतन और कृषि समेत अन्य आय को आमदनी में शामिल करके क्रीमी लेयर लागू किया जाए. दूसरा विकल्प है कि पुरानी व्यवस्था कायम रखी जाए और क्रीमी लेयर की सीमा बढ़ा दी जाए. कमेटी ने अनुशंसा की है कि पहले विकल्प को ही अपनाया जाए. कमेटी को सुझाव है कि क्रीमी लेयर की सीमा मौजूदा 8 लाख रुपए सालाना से बढ़ाकर 12 लाख रुपए सालाना कर दी जाए.

ओबीसी आरक्षण कमज़ोर हो जाएगा

अगर ये सिफारिश मान ली जाती है तो बड़ी संख्या में वेतनभोगी कर्मचारी, जो अभी क्रीमी लेयर में नहीं हैं, क्रीमी लेयर के दायरे में आ जाएंगे. वर्तमान में स्थिति ये है कि ज़्यादातर सरकारी सेवाओं में ओबीसी के पद खाली पड़े हैं. क्रीमी लेयर के नए प्रावधान के बाद ओबीसी कैंडिडेट की संख्या और कम हो जाएगी और ओबीसी रिज़र्वेशन काफी हद तक बेअसर हो जाएगा. ओबीसी संगठनों का कहना है कि कई राज्यों में तो 20 साल की सेवा के बाद हाई स्कूल के शिक्षक भी क्रीमी लेयर में आ जाएंगे. यही वो समय होता है कि जब उनकी संतानें ओबीसी रिज़र्वेशन का लाभ लेने की स्थिति में पहुंचती है.

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के एक अधिकारी का कहना है कि सरकार बीपी शर्मा कमेटी की सिफारिशों को मानने का मन बना चुकी है. इसके पीछे मंत्रालय का तर्क है कि इससे क्रीमी लेयर के निर्धारण की प्रक्रिया सरल हो जाएगी और ज़रूरतमंद लोगों को आरक्षण का लाभ मिलेगा. ऐसा मुमकिन है कि बीजेपी इसके ज़रिए ओबीसी के अपेक्षाकृत कमज़ोर तबकों को आकर्षित करना चाहती है.

बीजेपी के ओबीसी नेता भी इस बात को लेकर सशंकित हैं कि इस बदलाव का उनके समर्थक आधार पर क्या आसर पड़ेगा. खासकर बिहार में बीजेपी के नेताओं को आशंका है कि कहीं सरकार बैठे-बिठाए आरजेडी को ये मुद्दा तो नहीं थमा दे रही है. बिहार में इसी साल अक्टूबर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.

क्या बिहार में दोहराया जाएगा 2015?

2015 का बिहार विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए किसी बुरे सपने की तरह है. लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की बंपर जीत के कुछ ही महीने बाद हुए इस चुनाव में एनडीए का मुकाबला आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस गठबंधन से था. इस चुनाव के बीच में ही आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण की समीक्षा के बारे में बयान आया.

आरजेडी और जेडीयू ने इस मुद्दे को लपक लिया और चुनाव को आरक्षण पर जनमत संग्रह बना दिया. लालू प्रसाद ने घोषणा की कि– ‘मां का दूध पीया है तो आरक्षण खत्म करके दिखाओ.’ ये चुनाव बीजेपी बुरी तरह हार गई. 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में उसके सिर्फ 53 विधायक पहुंच पाए. ये हार उसे इसलिए भी ज्यादा चुभती है क्योंकि उस समय ऐसा माना जा रहा था कि देश में मोदी लहर चल रही है.


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इस बार बीजेपी ने बिहार में ओबीसी के कई नेताओं को आगे किया है. नित्यानंद राय को केंद्रीय गृह मंत्रालय में राज्य मंत्री बनाकर सीधे अमित शाह के साथ जोड़ा गया है. प्रदेश अध्यक्ष पद पर भी एक ओबीसी नेता संजय जायसवाल को लाया गया है. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष भगवान लाल साहनी भी बिहार के ओबीसी ही हैं. इसके अलावा नीतीश कुमार के साथ तालमेल के ज़रिए भी बीजेपी ओबीसी वोट को एनडीए के पाले में रखने की कोशिश कर रही है. अगर ओबीसी क्रीमी लेयर के नए प्रावधान लागू होते हैं तो मुमकिन है कि नीतीश कुमार गठबंधन जारी रखने पर पुनर्विचार करें.

बीजेपी के पास ये विकल्प है कि बिहार चुनाव होने तक क्रीमी लेयर के प्रावधानों में बदलाव को टाल दे. लेकिन जो लोग इस बदलाव को लागू कराना चाहते हैं, वे बेहद शक्तिशाली हैं और उनकी तरफ से सरकार पर भारी दबाव है. बीजेपी के लिए ये जटिल स्थिति है. वो भी ऐसे समय में जब बिहार के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)

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