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Friday, 26 April, 2024
होममत-विमतकोविड ने महिलाओं को दशकों पीछे धकेला, उनको मदद दिए बिना भारत 'आत्मनिर्भर' नहीं बन सकता

कोविड ने महिलाओं को दशकों पीछे धकेला, उनको मदद दिए बिना भारत ‘आत्मनिर्भर’ नहीं बन सकता

भारत में ज्यादातर महिलाओं पर घरेलू जिम्मेदारियों को बोझ अब बढ़ गया है. जिनके पास रोजगार बचा है वो तो 'डबल-डबल शिफ्ट' कर रही हैं.

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भारत में कोरोनावायरस संकट के कारण लागू किए गए लॉकडाउन ने महिलाओं को दशकों पीछे धकेल दिया है. इनमें से ज्यादातर का जीवन कुछ वैसा ही हो गया है जैसा कभी उनकी दादी-नानी का था. वो दिन का ज्यादातर हिस्सा खाना-पकाने, साफ-सफाई करने और घर-परिवार को संभालने में बिता रही हैं. और जो घर से काम कर रही हैं, अगर उनके पास अब भी नौकरी बची है तो, वो ‘डबल-डबल शिफ्ट‘ कर रही हैं. महिलाओं पर न केवल लॉकडाउन की मार अप्रत्याशित तौर पर पुरुषों के मुकाबले ज्यादा पड़ी है, बल्कि उन्हें कोविड-19 स्वास्थ्य संकट और उसके कारण आई आर्थिक मंदी की चोट सहनी पड़ रही है.

उस पर भी आलम यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से उठाए गए राहत और बचाव वाले कदमों में महिलाओं की समस्याओं की एकदम अनदेखी कर दी गई है. हालांकि, ऐसे समय में लैंगिक असमानता बढ़ने देना देश की आर्थिक स्थिति सुधारने और आत्मनिर्भर बनाने की कोशिशों पर भारी पड़ेगा.

हर मोर्चे पर मुसीबत

शहरों में लॉकडाउन के दौरान स्कूल और डे केयर सेंटर बंद होने और घरेलू कामकाज करने वालों के छुट्टी पर चले जाने के साथ ही महिलाओं पर पूरे परिवार की देखभाल और कामकाज की जिम्मेदारी खासी बढ़ गई है, जो पहले से ही बिना किसी वेतन तमाम जिम्मेदारियों का बोझ संभाले हुए हैं. हालांकि पुरुष भी इसमें सहयोग कर रहे हैं और वैतनिक और अवैतनिक कार्य की चुनौतियों के बीच संतुलन साधने को लेकर उनकी सराहना भी कर रहे हैं लेकिन फिर भी काम का ज्यादा बोझ महिलाओं को ही वहन करना पड़ा रहा है. इससे इतर वह जरूरी यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी का खामियाजा भुगतने के साथ-साथ घरेलू हिंसा में वृद्धि जैसी ‘परोक्ष महामारी‘ को भी झेल रही हैं.

तथाकथित अनलॉक के बावजूद निकट भविष्य में महिलाओं के लिए स्थितियां सुधरने की कोई गुंजाइश नज़र नहीं आ रही है. देखभालकर्ता के तौर पर महिलाओं को स्कूल और डे-केयर खुलने तक तो अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को निभाना ही होगा, जिसमें कोविड-19 वैक्सीन के विकास तक लंबा समय लग सकता है. इसके अलावा महिलाओं पर बुजुर्गों की देखभाल की जिम्मेदारी भी बढ़ रही है क्योंकि अस्पताल और नर्सिंग सहायता उपलब्ध नहीं हो पा रही है. आने वाले महीनों में ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य किया जा सकता है. यह खासकर उन मामलों में तो होगा ही जिसमें दूरस्थ व्यवस्था से काम करना संभव न हो, लेकिन जो परिवार-बच्चों के बीच रहकर भी घर से काम संभालने में सक्षम होंगी उन्हें भी कैरियर में ब्रेक लेने को मजबूर किया जा सकता है.


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यह सब आर्थिक मंदी के संभावित असर को और बढ़ाएगा ही, जिसे दुनिया के कुछ हिस्सों में महिलाओं से जोड़कर सी-सेसन की संज्ञा दी जा रही है. शुरुआती आकलन, आईएएनएस-सी वोटर इकोनॉमिक बैटरी वेब सर्वे और अशोका यूनिवर्सिटी की रिसर्च ने ही यह साफ कर दिया था कि भारत में आर्थिक मंदी महिलाओं के कैरियर को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाने वाली है. महिलाओं के दबदबे वाले, रिटेल, हॉस्पिटैलिटी, पर्सनल केयर और डे केयर जैसे कामकाज सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं और इनके जल्द उबरने की कोई उम्मीद भी नहीं है.

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साथ ही महिला उद्यमियों द्वारा संचालित उद्योगों पर नकारात्मक असर पड़ा है और इनमें कई को अपना कामकाज समेटना पड़ा है. भारत में सिर्फ आठ फीसदी महिला संचालित उद्योग पंजीकृत हैं और केवल 20 फीसदी ही प्रतिमाह पांच हजार रुपये से ज्यादा कमा पा रहे हैं. ऐसे में इसकी कोई गुंजाइश नज़र नहीं आती कि इनमें से ज्यादतर को मोदी सरकार के आर्थिक राहत पैकेज के तहत सूक्ष्य, लघु और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) के लिए घोषित गारंटी मुक्त ऋण सुविधा का कोई लाभ मिल पाएगा.

महिलाओं को नौकरी और व्यवसाय में होने वाले नुकसान का असर दीर्घकालिक होगा, क्योंकि इसके आगे नेटवर्किंग, पुनः कौशल और प्रशिक्षण जैसे मौके मिलने भी कम हो जाएंगे. वहीं, चूंकि संगठन उत्पादकता बढ़ने की उम्मीद के साथ-साथ कर्मचारी लागत में कटौती भी चाहेंगे इसलिए ऐसी कामकाजी मांओं और युवा महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह बढ़ेगा, जिन्हें आने वाले समय में मातृत्व अवकाश और चाइल्डकैअर पे-आउट की जरूरत पड़ सकती है. महिला उद्यमियों और स्वतंत्र पेशेवरों को भी इसी तरह के भेदभाव का शिकार बनना पड़ सकता है.

एक और बड़ी हकीकत यह है कि देश में अग्रणी मोर्चे पर जूझते स्वास्थ्यकर्मियों में 83 फीसदी महिलाएं है और अपने साथी पुरुषों की तुलना में उनमें संक्रमण का खतरा दोगुना हो सकता है. आशा कार्यकर्ताओं में भी संक्रमण और तनाव बढ़ रहा है, जो गांव-शहरों सब जगह कोविड-19 रोगियों की जांच, परीक्षण और निगरानी का आधारबिंदु बनी हुई हैं. यही स्थिति रही तो निकट भविष्य में महिला नर्सों, आशा कार्यकर्ताओं और अन्य स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की संख्या चिंताजनक स्तर तक घट जाएगी.

अब किया क्या जा सकता है?

सरकार और निजी क्षेत्र को इस तथ्य पर खासतौर पर ध्यान देना चाहिए कि महिलाएं, जो उपभोक्ता खरीद से जुड़े 70 फीसदी फैसलों में निर्णायक होती हैं, की आर्थिक स्वतंत्रता और क्रय शक्ति घटने से होने वाला नुकसान लॉकडाउन के घाटे से उबरने की कोशिश कर रहे व्यवसायों पर खासा प्रतिकूल असर डाल सकता है. उन्हें महिलाओं के आगे बढ़ने से होने वाले फायदों को भी ध्यान रखना चाहिए, जिससे 2030 तक 15-17 करोड़ रोजगार के अवसर पैदा हो सकते हैं या यह भी कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने से 2025 तक जीडीपी में 170 बिलियन डॉलर की वृद्धि हो सकती है.

इसलिए, सभी हितधारकों को महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर होने से बचाने के लिए तत्काल दीर्घकालिक कदम उठाने चाहिए.

महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करें

नीति निर्धारण की बात करें तो सरकारी नीतियां तय करने वाले कार्यबलों और कार्य समितियों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने की सख्त जरूरत है. यह पीएमओ, एनडीएमए, पीएम की कोविड-19 टास्क फोर्स, इकोनॉमिक रिस्पांस टास्क फोर्स और अधिकांश राज्यों की नीति निर्धारण मशीनरी का नेतृत्व करने वाली टीमों में पुरुषों के वर्चस्व जैसे पूर्वाग्रहों को दूर करने में मददगार होगा. इसके अलावा, सरकार की पैरोकारी करने वाले सलाहकार संगठनों, थिंक टैंक और क्षेत्र विशेष से जुड़े उद्योग संघों में भी महिलाओं की आवाज मुखर होनी चाहिए.


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माइक्रो लेवल पर, सभी संगठनों को नई सामान्य स्थिति में कार्यस्थल की नीतियां तय करते समय महिलाओं को भी शामिल करना चाहिए.

चाइल्डकेयर गैप और सभी कर्मचारियों की देखभाल सुरक्षा में सुधार हो

यह देखते हुए कि आने वाले कई महीनों तक स्कूल और डे-केयर नहीं खुल सकते हैं, सरकार को सार्वजनिक अभियानों के माध्यम से देखभाल के काम में पुरुषों के समान रूप से हाथ बंटाने को प्रोत्साहित करना चाहिए और यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि नियोक्ता बीमार होने अवकाश और जरूरत के मुताबिक लचीली कार्य व्यवस्था प्रदान करें. यहां तक कि यह पैटरनिटी या पितृत्व अवकाश की नीति को लागू करने का भी उपयुक्त समय हो सकता है. नियोक्ताओं को भी, अपने स्तर पर, कर्मचारी के प्रदर्शन के मूल्यांकन के समय चेहरे को अहमियत देने की पुरानी परिपाटी अब छोड़ देनी चाहिए.

महिलाओं के लिए आर्थिक अवसर बढ़ें

मोदी सरकार और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आत्मानिर्भर पैकेज के तहत राहत उपायों में जेंडर बजटिंग या फिर कोटा निर्धारण के जरिये महिलाओं को समुचित हिस्सेदारी मिले. इससे इतर दीर्घकालिक राहत उपायों के तहत महिला उद्यमियों के लिए आर्थिक सहायता प्रोत्साहन और ज्यादा महिलाओं को नौकरी देने वाले संस्थानों को कर प्रोत्साहन जैसे कदम उठाए जा सकते हैं. यह सभी संगठनों में विविधता लाने और समावेश बढ़ाने की प्रतिबद्धता को बढ़ाने वाला होगा.

स्वास्थ्य कर्मियों को सुरक्षा और प्रोत्साहन

अग्रणी कार्यकर्ताओं को सुरक्षा उपकरण, परीक्षण, इलाज और जब भी तैयार हो तब वैक्सीन उपलब्ध कराने का भरोसा दिया जाना चाहिए. उन्हें उनकी सेवाओं के लिए बोनस और नकद पुरस्कार भी दिए जा सकते हैं.


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यौन आधारित डाटा जुटाना और प्रकाशित करना

संक्रमण की बदलती दर, आर्थिक असर और देखभाल का बढ़ता बोझ, और घरेलू हिंसा के रुझानों पर केंद्रित यह डाटा, साक्ष्यों के आधार पर प्रभावी निर्णय लेने में मददगार हो सकता है.

अर्थव्यवस्था को उबारने के भारत के प्रयासों में सामाजिक दूरी और आर्थिक मंदी के लैंगिक असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. सरकार, उद्योग संघों और निजी क्षेत्रों की तरफ से महिलाओं के कौशल और अनुभव का समुचित इस्तेमाल करने पर आधारित साझा प्रयास समय के साथ बदलती और ‘आत्मनिर्भर’ भारतीय अर्थव्यवस्था के हमारे दृष्टिकोण का अहम हिस्सा होने चाहिए.

(लेखक एक स्वतंत्र आर्थिक नीति रिसर्च कंसल्टेंट और एलिनॉमिक्स (महिलाओं को आगे बढ़ाने का मंच) की संस्थापक हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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