बांग्लादेश के बाद नेपाल की घरेलू राजनीति में अराजकता… पड़ोस के दो देशों में उथलपुथल… और तीसरे की हालत भी बहुत बेहतर नहीं. जाहिर है, भारत अपने क्षेत्र में चुनौतियों से रू-ब-रू है. ये दिक्कतें जबकि भारत से ठोस कार्रवाई करने की जरूरत पर ज़ोर दे रही हैं, ऐसी स्थिति में कभी-कभी सबसे बेहतर यही होता है कि कोई प्रतिक्रिया न दी जाए. इंतजार किया जाए कि हालात अपनेआप सुलटें और स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो जाए.
भारत जैसी क्षेत्रीय ताकत के लिए पड़ोस जोखिम पैदा करने वाला क्षेत्र साबित हो सकता है. लेकिन अपने क्षेत्र में ताकतवर होने के कुछ फायदे भी हैं. भारत छोटे देशों को प्रोत्साहन और संभावित सजा आदि के जरिए अपने दबदबे में रखने की क्षमता रखता है. पड़ोसी देश यह जानते हैं, और प्रायः भारत से ज्यादा बेहतर रूप में जानते हैं. इसलिए, हड़बड़ी में कुछ न करना और भ्रामक घरेलू राजनीति में स्थिति स्पष्ट होने तक इंतजार करना क्षेत्र के अंदर उतना जोखिम नहीं पैदा कर सकता है जितना अन्य परिस्थितियों में पैदा हो सकता है.
यह खास तौर से सच है क्योंकि क्षेत्र में उथलपुथल हालांकि एक बड़ी समस्या बन सकती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि भारत इस मामले में ज्यादा कुछ कर सकता है या नहीं. कोई जवाबी कार्रवाई भलाई से ज्यादा बुराई भी कर सकती है. याद रखने वाली बात यह है कि विदेशी ताक़तें, अपने क्षेत्र में मजबूत भारत जैसी ताक़तें किसी देश की घरेलू राजनीति में उथलपुथल में ज्यादा कुछ कर नहीं सकतीं. नेपाल और बांग्लादेश, दोनों की समस्या यही है.
‘डीप स्टेट’ की साज़िशों का मामला
अक्सर संदेह किया जाता है कि ये क्षेत्रीय क्लेश भारत विरोधी ताकतों की साजिश के कारण उभरते हैं. इन ताकतों में अमेरिका के उदारवादी ‘डीप स्टेट’ (आंतरिक मंडली) की ओर पहले उंगली उठती है. लेकिन साजिश का यह सिद्धांत कई कारणों से बेमानी है. सबसे पहले तो इसका कोई तार्किक आधार नहीं है. बिल क्लिंटन के बाद से अमेरिका में बनीं कई सरकारें भारत को ताकतवर बनाने की कोशिश करती दिखीं ताकि वह चीन का जवाब बनकर खड़ा हो सके. भारत को कमजोर करने का अर्थ होता अमेरिका की खुद अपनी रणनीति को कमजोर करना. अमेरिका की कुछ सरकारों ने भले यह चाहा होगा कि भारत विचारधारा के मामले में कम परेशानी पैदा करने वाला देश साबित हो लेकिन यह मान लेना कि यह उसे चीन के संदर्भ में उसके अपने रणनीतिक हितों को नुकसान पहुंचाने तक ले जाएगा, अमेरिका की प्राथमिकताओं के बारे में थोथी समझ को ही उजागर करेगा.
दूसरी उतनी ही बेमानी धारणा है किसी ‘डीप स्टेट’ के अस्तित्व की. जो लोग इसकी बात करते हैं उन्हें नौकरशाही राजनीति के बारे में बिलकुल नहीं मालूम, या वे जानबूझकर साजिश की आम बकवास का सहारा ले रहे हैं. यह सोच बेतुका है कि किसी सरकार के अंदर एक ऐसी कोई प्रतिबद्ध और तालमेल रखने वाली मंडली होती है जो राष्ट्रीय शक्ति को ऐसे मकसदों के लिए निर्देश देती हो. कई देशों में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद जैसी समन्वयक व्यवस्था का गठन करने वाले नेताओं और नौकरशाहों तक की हमेशा ऐसी महत्वाकांक्षा रही है. ऐसी एजेंसियां नीतियों के मामले में समन्वय करने के लिए गठित की जाती हैं क्योंकि नौकरशाही उन्हें अलग-अलग दिशाओं में खींचती है. लेकिन ऐसी समन्वय एजेंसियों से प्रायः खराब अनुभव ही हासिल हुआ हौ, और वैसा समन्वय व्यवहार में शायद ही हासिल हुआ है.
वैसे, बाहरी दखल के कुछ सफल मामले जरूर हुए हैं, जैसे 1953 में सीआइए की साजिश से ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोस्सादेग का तख़्ता पलट दिया गया था, या सोवियत संघ ने कई बार पूर्वी यूरोप के कई देशों पर हमले किए. लेकिन ऐसे सफल उदाहरण गिनती के ही हैं. वर्षों तक कोशिश करके भी अमेरिका क्यूबा के फिडेल कास्त्रो से छुटकारा नहीं पा सका जबकि वे उसके फ्लोरिडा तट से कुछ ही किलोमीटर दूर थे मगर दशकों तक वाशिंगटन की नाक दबाते रहे. कई ऐसे उदाहरण भी हैं कि दूसरे देश की राजनीतिक व्यवस्था पर कब्जा करने की दूसरे पक्षों की कोशिश उनके लिए बुरी तरह नुकसानदेह साबित हुई. याद कीजिए, अमेरिका को दुनिया के कई भागों में राष्ट्र-निर्माण की कोशिशों का अनुभव कैसा रहा, चाहे वह दक्षिण-पूर्व एशिया हो या मध्यपूर्व, या हाल में अफगानिस्तान. क्यूबा के अनुभव के बावजूद अमेरिका को दुनिया के पश्चिमी गोलार्द्ध में ज्यादा सफलता मिली, हालांकि वह अमेरिका के लक्ष्यों के प्रति समर्थन से ज्यादा, नाराजगी से उपजी निष्क्रियता का नतीजा था. लेकिन यह क्षेत्रीय दबदबे के फायदे को ही उजागर करता है, जिस मामले में भारत भी फायदे की स्थिति में है.
इसी तरह, मध्य यूरोप में सोवियत संघ के यजमान देश उसके काबू में तब तक ही रहे जब तक उसकी सत्ता का खौफ कायम 1980 के दशक के आखीर में जब सोवियत संघ कमजोर हुआ तो पूर्व यूरोपीय देशों और सोवियत के कुछ हिस्सों ने बगावत कर दी. क्षेत्रीय वर्चस्व खत्म होने का अर्थ यह था कि रूस को अपने ‘करीब के विदेश’ से भी समस्याएं पैदा होने लगीं, लेकिन भारत के सामने आज ऐसी कोई समस्या नहीं है.
साजिश के ऐसे सिद्धांत की पूर्ण विसंगति इस तथ्य से जाहिर होती है कि उसके प्रवर्तक इस बात के लिए अमेरिक और चीन, दोनों को दोष देते हैं. दूसरे शब्दों में, इस तरह के सिद्धांतों को पेश करने वाले यह तय नहीं कर पाए कि दोष किसे दें, इसलिए उन्होंने सभी कोणों वाला नजरिया अपनाया और इस बात पर विचार नहीं किया कि बांग्लादेश में शेख हसीना, नेपाल में के. पी. ओली की सरकारों का राजनीतिक तथा आर्थिक कुशासन उनकी तख़्तापलट का कारण बना. इसके परिणाम भारत के लिए बेशक बुरे थे लेकिन ऐसे बुरे नतीजे हमेशा दूसरों की साजिश के चलते नहीं मिलते. ये अक्सर जटिल राजनीतिक प्रक्रिया के कारण मिलते हैं जिन पर किसी का नियंत्रण नहीं होता. इसे सोची-समझी कार्रवाई के फल के रूप में देखना अपने दुश्मन को जरूरत से ज्यादा श्रेय देना है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके कारण कभी-कभी अनावश्यक दुश्मन पैदा हो जाते हैं.
विदेश नीति पर विचारधारा की साया
यह याद रखना भी उतना ही जरूरी है कि भारत एक क्षेत्रीय ताकत है इसलिए उसका विरोध स्वाभाविक है. यह भारत की गलती नहीं है, हालांकि जाहिर तौर पर यह भारत में रणनीतिकारों के लिए शायद ही राहत की बात होगी जिन्हें इसके नतीजों से निबटना है. भारत अगर पड़ोस में राजनीतिक उथलपुथल के बीच अपनी पसंद के बारे में प्रचार करने जैसी गलतियां करेगा तो हालात को खराब कर सकता है. यह मददगार नहीं साबित होगा. बांग्लादेश के मामले में भारत की आधिकारिक नीति तो इंतजार करने और हालात पर नजर रखने की है, लेकिन यहां की अर्द्ध-सरकारी मीडिया काफी कड़वेपन के साथ वहां की नयी सरकार के पीछे पड़ गई और हसीना सरकार के तख्तापलट को कई भारतीय एजेंसियों के हवाले से भारत के खिलाफ साजिश बता दिया. इससे बेशक आधिकारिक नजरिए के बारे में यह संकेत मिला कि सरकार खुद खुल कर कहने से कतरा रही है.
इस क्षेत्र के बाकी लोग बेशक कोई मूर्ख नहीं हैं, इसलिए वे इसे सरकार के विचारों की प्रतिध्वनि मानेंगे क्योंकि यह वही है. समस्या यह है कि यह मसले के प्रति तटस्थ रहने भारत के रुख को कमजोर करेगा, जो कि सही और व्यावहारिक रुख है क्योंकि हम यह नहीं बता सकते कि हालात किस तरह क्या मोड़ लेंगे. भारत या किसी के पास ऐसे साधन नहीं हैं कि वे ऐसे राजनीतिक आंदोलनों को निर्देशित कर सकें. बाहरी और आंतरिक खिलाड़ी भी दरअसल बिना ड्राइवर वाले वाहन में सवार हैं और बस यही उम्मीद कर सकते हैं कि वाहन उनकी पसंद की दिशा में ही आगे बढ़े.
इस तरह के अविवेकपूर्ण कदम कुछ तो इस वजह से उठाए जाते हैं कि विदेश नीति पर विचारधारा की छाया फैलती जा रही है. विवेक का तकाजा है कि सभी पक्षों से निबटा जाए, उनसे भी जो असहमत हो सकते हैं; जबकि विचारधारा के गहरे प्रभाव से ग्रस्त रुख पूरी दुनिया को बस दोस्त और दुश्मन की नजर से देखेगा. चाहे अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से निबटना हो या भारतीय उपमहादेश क्षेत्र से, विचारधारा की छाया से ग्रस्त ऐसी विदेश नीति एक खतरा है, क्योंकि आपकी आंखों पर ऐसी पट्टी चढ़ा देती है जिसके कारण आपका रणनीतिक नजरिया सीमित हो जाता है. और यह किसी अरुचिकर स्थिति को और बुरा बना देता है.
राजेश राजगोपालन जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU), नई दिल्ली में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @RRajagopalanJNU है. ये उनके निजी विचार हैं.
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