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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतचीन पिछले कुछ सालों से ‘शीप्लोमेसी’ आगे बढ़ा रहा था, दुनिया तो अब जान पाई

चीन पिछले कुछ सालों से ‘शीप्लोमेसी’ आगे बढ़ा रहा था, दुनिया तो अब जान पाई

चीन नई विश्व-व्यवस्था बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाते हुए दूसरे देशों के मामलों में दखलंदाजी नहीं चाहता, यही तो है ‘शी-कूटनीति’

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चीन की कोविड-19 से निपटने के कड़े रुख से ऐसी धारणा बनी कि बीजिंग ज्यादा दूसरों पर ध्यान न देने वाला बन जाएगा. लेकिन इस विश्लेषण में एक प्रमुख मुद्दा गायब है जिसकी चीन लगातार पैरवी कर रहा है. वह यह है कि चीन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उलटफेर करने की मंशा रखता है और हर देश की संप्रभुता के पुराने विचार पर आधारित विश्व-व्यवस्था को बदलना चाहता है. चीन मौजूदा विश्व-व्यवस्था को अपने इस इरादे की शर्त पर चाहता है कि ताइवान और क्षेत्रीय अखंडता सहित उसके बुनियादी संप्रभु हितों पर सवाल न किया जाए.

राष्ट्रपति शी जिनपिंग का अपने तीसरे कार्यकाल में चीन को ‘बड़े देशों’ की कतार में खड़ा करना महत्वपूर्ण लक्ष्य होगा.
20वीं पार्टी कांग्रेस से पहले, पीपुल्स डेली ने देश की प्रमुख कूटनीति पर हे यिन (सद्भाव) टिप्पणियों की एक शृंखला छापी, जिसका मकसद चीन की विदेश नीति और कूटनीति में शी के विचारों के महत्व को बताना था. ‘शी जिनपिंग थिंक ऑन डिप्लोमेसी’ को ‘शीप्लोमेशी या शी-डिप्लोमेसी’ की तरह पेश किया जाता है. उस पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना उनके इकोलॉजिकल सिविलाइजेशन और मजबूत सेना के विचारों पर गौर किया जाता है. दुनिया इकोलॉजिकल सिविलाइजेशन को विवादास्पद मानती है.

पीपुल्स डेली ऑनलाइन की एक कमेंट्री में लिखा गया, ‘कूटनीति पर शी जिनपिंग के विचारों में ऐतिहासिक नियम-कायदों और आज के दौर की प्रवृत्तियों की गहन समझ है. उसमें चीनी विशेषताओं के साथ देश की प्रमुख कूटनीति को आगे बढ़ाने की राह है.’

‘शीप्लोमेशी’ महज एक और चीनी अवधारणा नहीं है, बल्कि यह चीन की अंतरराष्ट्रीय हैसियत को ऊंचा उठाने का रणनीतिक नजरिया है.

प्रकाशित पीपुल्स डेली में 2 अक्टूबर को छपी हे यिन टिप्पणी में कहा गया, ‘चीनी विचारों और समाधान में दुनिया के सवालों का जवाब है, इतिहास के और आज के दौर के सवालों के जवाब हैं और दुनिया के अभूतपूर्व महान परिवर्तनों को मानव सभ्यता की प्रगति की अनुकूल दिशा में प्रभावी ढंग से ले जाते हैं.’

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संदिग्ध खिलाड़ी

विदेश नीति के एक लेखक के मुहावरे को दोहराए बगैर कहा जा सकता है कि ‘ताओ गुआंग यांग हुई’ के दिन बीत गए. चीन संदिग्ध ‘प्रमुख देश’ खिलाड़ी कहलाना पसंद करता है.

चाइनीज जर्नल ऑफ इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में शू जिन और डू झेयुआन ने लिखा, ‘दूसरे देशों के दिशा-निर्देश के मामले में ‘कभी पहले न करने’ की नीति बदल जाएगी, जो कमजोर देशों के लिए सही है, या कमजोरी का संकेत देने वाली नीति है… चीन को अधिक मुखर और सक्रिय रहने की दरकार है, अमूमन ठोस स्टैंड लेने और अधिक जिम्मेदारी उठाने की जरूरत है.’

बीजिंग का मानना है कि देश ने अंतरराष्ट्रीय मामलों में नकारात्मक या सकारात्मक प्रमुख भूमिका निभानी शुरू कर दी है, और आगे इसे बढ़ाना ही है, दुनिया के लिए दरवाजे बंद नहीं करना है.

चीनी संकेताक्षर बा (霸) का मतलब विद्वानों के बीच अक्सर चीन की नई क्षेत्रीय व्यवस्था के संदर्भ में ‘दबदबे’ के अर्थ में लिया जाता है. दबदबे की चीनी समझ से देशों की ऊंच-नीच हैसियत का ठीक-ठीक पता नहीं चलता, लेकिन बा में निहित सांकेतिक संबंधों में ‘उदार दबदबे’ के संदर्भ में भी चीन के वर्चस्व की मनाही नहीं करता. कई विशेषज्ञों के मुताबिक, बा की अवधारणा पेचीदा है, मगर ‘तियानशिया’ के मुकाबले आज की व्यवस्था के ज्यादा करीब है. तियानशिया चीन और दूसरे पूर्वी एशियाई देशों के बीच की सहयोगी व्यवस्था थी, जो विभिन्न चीनी राजवंशों के दौरान जारी रही. बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव को तियानशिया व्यवस्था के फिर लागू होने जैसा नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उसे संबंधों के ऐसे संकेत समझना चाहिए, जिससे चीन ‘बड़े देशों’ की कतार या दबदबे की स्थिति में पहुंच गया.

द इकोनॉमिस्ट के बीजिंग ब्यूरो के प्रमुख डेविड रेनी की दलील है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उलटफेर का चीनी नजरिया कुछ पुराने विचारों को पुनर्जीवित करना चाहता है – और विश्व व्यवस्था को बदलने में भी सफल हो सकता है. इन पुराने विचारों के केंद्र में देश की संप्रभुता और उसके मामलों में वैश्विक राजनीति की कम से कम दखल है. राज्य की संप्रभुता के कट्टर समर्थन का पहला निशाना उस पर है जिसे बीजिंग पश्चिम के ‘सार्वभौमिक मूल्यों’ का अस्पष्ट वादा कहता है.
रेनी लिखते हैं, ‘जब उसे अपनी इस कोशिश में प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, तो वह कुछ अस्पष्ट-से कायदों पर जोर देता है, जिसका नतीजा आखिरकार राजनीतिक सौदेबाजी होती है. अक्सर, वह पुराने, बदनाम कायदों को पुनर्जीवित करना चाहता है, जिनमें व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की कीमत पर देश को ऊपर रखा जाता रहा हैं.’


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स्पष्ट ऐक्शन

बीजिंग की उलटफेर वाली हरकतों के साफ-साफ दर्शन रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान हुए हैं. द इकोनॉमिस्ट के लिए एक विशेष रिपोर्ट में रेनी लिखते हैं, ‘बीजिंग में नियुक्त राजनयिकों के मुताबिक, चीन का लक्ष्य पश्चिमी एकता को चरमराते हुए और उसके प्रतिबंधों को पुतिन को हमले की कीमत चुकाने में नाकाम होते देखना है.’

यह विरोधाभास जैसा लगता है. चीन नए तरह की विश्व व्यवस्था बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाते हुए दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता. बीजिंग को इस विरोधाभास की कोई फिक्र नहीं है, बस वह अपनी कूटनीति और विदेश नीति के विचारों पर ही केंद्रित रहता है.

विरोधाभास को बीजिंग की मौजूदा विश्व-व्यवस्था में कुछ को कायम रखने की इच्छा से समझाया जा सकता है जिससे उसे अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बढ़त दिलाई है और झोंगनानहाई नजरिए के मुताबिक दूसरे संस्थानों में बदलाव आया है. संयुक्त राष्ट्र में बीजिंग की उलटफेर वाली भूमिका को संयुक्त राष्ट्र समूहों की पड़ताल से समझा जा सकता है जिनमें चीनी राजनयिक अपना अधिकांश समय लगाते हैं.

चीन संयुक्त राष्ट्र में सामान्य मामलों में दूसरा सबसे बड़ा योगदानकर्ता है लेकिन जीडीपी के आधार पर योगदान में वह ब्रिटेन, फ्रांस और रूस से बहुत पीछे है. क्यू डोंग्यू को संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम का मुखिया बनाने में चीन कामयाब रहा और इस तरह उस पर चीन का कब्जा हो गया और बाद में खाद्य संकट में रूस की भूमिका को कम आंकना संयुक्त राष्ट्र संगठनों में उसके दबदबे की ही मिसाल है.

राष्ट्र-राज्यों को अपने संशोधनवादी एजेंडे के लिए तैयार करने की चीन की रणनीति वैसी ही है. रेनी द इकोनॉमिस्ट में अपने लेख में अंत में लिखते हैं, ‘चीन अंतरराष्ट्रीय यथास्थिति से नाखुश और विकल्प की ओर देखने वाले देशों को भांपने की अद्भुत समझ रखता है. ऐसा संतुलन हमेशा मौजूदा स्थिति के उलट नहीं होता. मसलन, रूस पर निर्भरता कम करने के लिए मध्य एशिया के देश जब चीन निर्मित कार्गो रेलवे पर राजी होते हैं तो वे सर्वसत्तावादी रवैए वाले से दूसरे की गोद मेें जा रहे होते हैं.’


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नए विचार

मौजूदा व्यवस्था में उलटफेर और संशोधन के अपने मंसूबे को पूरा करने के लिए, चीन अब ‘ग्लोबल सेक्युरिटी इनिशिएटिव’ (जीएसआई) या वैश्विक सुरक्षा पहल का नया विचार लेकर आ रहा है. जीएसआई शी जिनपिंग के विचारों का नया संस्करण है, ताकि महामारी और आतंकवाद जैसे गैर-पारंपरिक सुरक्षा मुद्दों पर गौर करने के लिए दूसरे देशों से सुरक्षा सहयोग लिया जाए.

फॉरेन अफेयर्स में शीना चेस्टनट ग्रिटेंस लिखती हैं, ‘उसके बाद के महीनों सरकार के करीबी चीनी राजनयिकों और जानकारों ने स्पष्ट किया है कि जीएसआई चीनी विदेश नीति में एक अहम बदलाव का प्रतीक है. यह वैश्विक सुरक्षा में अमेरिकी गठबंधनों और साझेदारियों की भूमिका को सीधे चुनौती देता है और वैश्विक सुरक्षा व्यवस्था को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन के सुरक्षा हितों के अधिक अनुकूल बनाया जाए.’

हालांकि जीएसआई का सटीक स्वरूप स्पष्ट नहीं है, शुरुआती संकेत बताते हैं कि चीन अपने घरेलू सुरक्षा और निगरानी उपकरण को ‘मित्र’ देशों को निर्यात करने की कोशिश करेगा.

बीजिंग शांत नहीं बैठने जा रहा है. इसके बजाय, चीनी राजनयिक चाहते हैं कि आप अपने मामलों में मशगूल रहें, और वे ‘चीनी विशेषताओं वाली कूटनीति पर शी जिनपिंग के विचारों’ को प्रशस्त करते रहें. चीन के अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में बदलाव का उद्देश्य देश की संप्रभुता के पुराने विचार को वापस लाना और ‘मूल्य आधारित’ विश्व व्यवस्था को कमजोर करना है.

(लेखक स्तंभकार और फ्रीलांस पत्रकार हैं, फिलहाल लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज (एसआऐएस), से चीन पर फोकस वाली अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एमएससी कर रहे हैं. वे पहले बीबीसी वर्ल्ड सर्विस में चीन के मीडिया पत्रकार थे. उनका ट्विटर हैंडल @aadilbrar है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

 


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