चीन द्वारा गांसु प्रांत में बड़ी संख्या में परमाणु ठिकानों (साइलो) के निर्माण को लेकर व्यक्त की जा रही चिंताएं स्वाभाविक हैं. वास्तव में भारत को इस ताज़ा घटनाक्रम पर कड़ी नज़र रखने की जरूरत है. हालांकि घबराने की ज़रूरत नहीं है. जहां नई दिल्ली को अपने परमाणु शस्त्रागार को अभी और विकसित करने की आवश्यकता है ताकि पूरे चीन को निशाने पर रखने के लिए पर्याप्त क्षमता मौजूद हो- जिसका वर्तमान में अभाव है- वहीं परमाणु भंडारों के विस्तार से परमाणु निरोधक क्षमता संबंधी संतुलन बदलने की संभावना नहीं है, न तो भारत और चीन के बीच और न ही अमेरिका और चीन के बीच.
चीन नए साइलो क्यों बना रहा है
चीन के साइलो निर्माण का औचित्य स्पष्ट नहीं है. जैसा कि कुछ परमाणु विशेषज्ञों का मानना है, यह अमेरिका के लिए कहीं अधिक लक्ष्य निर्मित कर चीनी परमाणु बलों की उत्तरजीविता सुनिश्चित करने का एक प्रयास हो सकता है. दोनों देशों के परमाणु भंडारों के आकार में बहुत बड़ा अंतर है. विश्वसनीय अनुमानों के अनुसार वर्तमान में अमेरिका ने लगभग 1,700 सामरिक परमाणु हथियार तैनात कर रखे हैं, जबकि 2,000 अन्य रिज़र्व में हैं. इसकी तुलना में चीन ने अपने कुल 350 परमाणु आयुधों के भंडार में से अंतरमहाद्वीपीय पहुंच वाली लगभग 130 भूस्थित मिसाइलें तैनात कर रखी हैं जोकि अमेरिका तक पहुंच सकती हैं.
चीन की परमाणु रणनीति हमेशा संभावित परमाणु संघर्ष में चीन के सभी हथियारों को सफलतापूर्वक नष्ट करने को लेकर हमलावर के समक्ष मौजूद अनिश्चितता पर आधारित रही है. यदि एक भी परमाणु हथियार बचता है निश्चित रूप से हमलावर को परमाणु प्रतिशोध का सामना करना पड़ेगा. चीन के सभी परमाणु हथियारों को नष्ट करने को लेकर अनिश्चितता और दूसरी ओर जवाबी कार्रवाई की निश्चितता संयुक्त रूप से उसे पर्याप्त निरोधक क्षमता प्रदान करती हैं. चीन ने अपने परमाणु हथियारों को छुपाकर किसी भी संभावित हमलावर के सामने आने वाली दुविधा को बढ़ा दिया है, क्योंकि इसका मतलब ये है कि कोई भी हमलावर सारे परमाणु हथियारों का पता लगाने और उन्हें नष्ट करने को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकता.
अधिक संख्या में परमाणु मिसाइल ठिकानों के निर्माण का उद्देश्य संभावित हमलावर के लिए अनिश्चितता बढ़ाना हो सकता है, क्योंकि इससे हमले के लक्ष्यों की सूची का विस्तार होता है, साथ ही चीनी परमाणु हथियारों के ठिकानों को लेकर बनी अनिश्चितता की स्थिति और भी जटिल हो जाती है. अगर वास्तव में रणनीति यही है, तो हमें चीन के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के अतिरिक्त मिसाइल साइलो बनाए जाने की अपेक्षा करनी चाहिए.
एक और संभावना ये है कि चीन कुछ हद तक अपने परमाणु शस्त्रागार का विस्तार करने का प्रयास कर रहा हो, विशेष रूप से लंबी दूरी की ऐसी मिसाइलों की संख्या बढ़ाने का जोकि अमेरिकी मुख्य भूमि को निशाना बना सकती हैं. पिछले साल सार्वजनिक किए गए एक आधिकारिक अमेरिकी आकलन में कहा गया था कि ‘अमेरिका तक पहुंचने में सक्षम चीन की भूस्थित आईसीबीएम मिसाइलों पर लगे परमाणु आयुधों की संख्या में अगले पांच वर्षों में लगभग 200 तक की बढ़ोत्तरी की उम्मीद है’, जबकि परमाणु हथियारों की कुल संख्या अगले दशक में ‘कम से कम दोगुना’ हो सकती है. ये स्पष्ट नहीं है कि ऐसा मुख्यत: मिसाइलों पर लगे आयुधों (वारहेड) की संख्या बढ़ाकर किया जाएगा या फिर खुद मिसाइलों की संख्या बढ़ाई जाएगी. ये बात मायने रखती है क्योंकि हमलावर द्वारा परमाणु आयुधों की तुलना में मिसाइलों को निशाना बनाए जाने की अधिक संभावना होती है.
इस तरह के विस्तार के पीछे ये सोच भी हो सकती है: चीन परमाणु हथियारों के अपने भंडार का विस्तार करके अपनी परमाणु निरोधक क्षमता बढ़ाने का प्रयास कर रहा है क्योंकि एक बड़ा परमाणु भंडार निश्चय ही हमलावरों के लिए जटिलताएं बढ़ाता है.
शक्ति प्रदर्शन?
हम इस संभावना से भी इंकार नहीं कर सकते कि चीन अमेरिका और रूस से बराबरी के लिए अपने परमाणु शस्त्रागार का बड़े पैमाने पर विस्तार करेगा. बीजिंग ऐसा इसलिए नहीं करेगा कि उसे परमाणु निरोधक क्षमता को लेकर कोई अतिरिक्त बढ़त मिलेगी, बल्कि उसका उद्देश्य हैसियत बढ़ाना हो सकता है, विशेष रूप से अमेरिका के बराबर की राजनीतिक हैसियत हासिल करना.
शी जिनपिंग का चीन बराबरी और हैसियत को प्राथमिकता देता है, जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के पद संभालने के बाद चीनी और अमेरिकी वरिष्ठ अधिकारियों के बीच विवादास्पद पहली द्विपक्षीय बैठक में देखा गया. जिसे एक वरिष्ठ चीनी विशेषज्ञ ने चीन की इस मान्यता का प्रतिबिंब बताया था कि ‘महान शक्ति की हैसियत हासिल करना उसे विश्व मामलों में एक नई भूमिका का अधिकार देती है- जो निर्विवाद अमेरिकी प्रभुत्व के तथ्य से मेल नहीं खाता’. अगर अब चीन के परमाणु फैसले निरोधक क्षमता के बजाय राजनीतिक कारकों से प्रेरित होते है, तो हमें चीनी परमाणु क्षमता के बड़े विस्तार की उम्मीद करनी चाहिए.
हालांकि चीन यदि अपनी परमाणु क्षमता के व्यापक विस्तार की प्रक्रिया शुरू करता है, जोकि अभी स्पष्ट नहीं है, तो भी भारत की परमाणु निरोधक क्षमता पर उसका प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है.
भारत को कड़ी नज़र रखनी होगी
भारतीय परमाणु निरोध रणनीति उसी धारणा पर आधारित है जोकि पारंपरिक रूप से चीन की भी रही है, यानि किसी भी हमलावर के लिए भारत के संपूर्ण प्रतिरोधक बल को खत्म करने को लेकर पेश अनिश्चितता, और इस बात की निश्चितता की भारत जवाबी कार्रवाई ज़रूर करेगा. यदि भारत के कुछेक परमाणु हथियार ही बचते हैं, तो भी भारतीय जवाबी कार्रवाई के परिणाम इतने भयानक होंगे कि भारत पर अपेक्षाकृत सफल हमला भी निरर्थक हो जाएगा.
हाल में इस दलील को भी बल मिला है कि बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा (बीएमडी) प्रणाली के विकास से नए समीकरण निर्मित होते हैं. यदि ऐसी बीएमडी प्रणाली आरंभिक हमले में बच निकली कुछेक मिसाइलों को सफलतापूर्वक रोक सके, तो हमलावर को पहले हमले में दुश्मन की सभी मिसाइलों को नष्ट नहीं करने के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं रहेगी. इससे परमाणु हमला शुरू करने के लिए प्रोत्साहन बढ़ सकता है.
सटीक प्रतीत होने के बावजूद ऐसी दलीलों को लेकर कुछ सवाल खड़े होते हैं. पहली बात ये कि अभी तक किसी भी देश ने इस तरह के राष्ट्रव्यापी बीएमडी सिस्टम की तैनाती नहीं की है. सभी प्रमुख देश- चीन, अमेरिका और भारत- भौगोलिक रूप से बड़े हैं. छोटे देशों के लिए इस तरह की प्रणाली स्थापित करना भले ही सैद्धांतिक रूप से संभव हो, लेकिन किसी स्थान विशेष या अधिकतम किसी शहर की रक्षा कर सकने वाली वर्तमान बीएमडी तकनीक का पूरे देश में विस्तार करना बहुत ही कठिन और महंगा उद्यम साबित होगा. राजधानी या कुछ बड़े शहरों की रक्षा करना संभव हो सकता है, लेकिन वर्तमान में उपलब्ध प्रौद्योगिकियों के सहारे एक बड़े देश की रक्षा सुनिश्चित करना संभव नहीं है. राष्ट्रव्यापी रक्षा कवच के बिना, ऐसे विकल्प की चर्चा एक रोचक सैद्धांतिक बहस से ज्यादा कुछ नहीं है. इसके अलावा, हाइपरसोनिक ग्लाइड यान जैसी नई प्रौद्योगिकियां ऐसी मिसाइल रक्षा प्रणाली के लिए अतिरिक्त मुश्किलें खड़ी करती हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि भारत सहित कई देश विभिन्न प्रकार की हाइपरसोनिक मिसाइलों पर काम कर रहे हैं.
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दूसरी समस्या ये है कि परमाणु हथियारों के मामलों में राजनीतिक नेता बेहद सतर्कता बरतते हैं. ये एक प्रशंसनीय बात है जो पूरे परमाणु काल के दौरान हर देश पर लागू होती है. इसकी वजह समझी जा सकती है, क्योंकि किसी भी गलत आकलन के परिणाम अकल्पनीय होंगे. ये विचार कि राजनीतिक नेता अपने विकल्पों पर इतनी बारीकी से विचार करेंगे, परमाणु इतिहास की तमाम प्रचलित धारणाओं के खिलाफ जाता है. शिक्षाविद इनके बारे में चाहे जितना सिद्धांत गढ़ें, लेकिन उनके पास नेताओं के समान राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं होती, खासकर खुद के राजनीतिक भविष्य को लेकर.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत को इन घटनाओं पर करीब से नजर रखने की जरूरत है. भारत की परमाणु क्षमताएं, विशेष रूप से चीन की तुलना में, पर्याप्त नहीं हैं और निश्चित रूप से इन्हें बढ़ाने की आवश्यकता है. लेकिन ये चीन द्वारा बड़ी संख्या में परमाणु मिसाइल साइलो बनाए जाने की बात सामने आऩे का परिणाम नहीं है, क्योंकि उनसे भारत और चीन के बीच, या चीन और अमेरिका के बीच भी, परमाणु निरोधक संतुलन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आएगा.
(लेखक नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है. ये उनके निजी विचार हैं.)