दक्षिण भारत में इंद्र की नई राजधानी अमरावती आकार ले रही है. इंद्र की इसलिए क्योंकि इसे कथाओं में वर्णित इंद्र नगरी को ही आधार बनाकर बुना गया है. यानी सुख-सुविधाओं से भरपुर. सुख – सुविधा मतलब शानदार सड़के, आईटी के सैकड़ों ऑफिस, मॉल्स, एयरकंडिशन्ड अपार्टमेंट, इंपोर्ट किया गया शानदार पैकेज्ड फूड और मिनरल एडेड बोतलबंद पानी सप्लाई. इस नगरी के इंद्र है- आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू. और उनकी राजधानी के लिए ज़मीन उपलब्ध कराने की जबावदारी कृष्णा नदी और उसके तट पर बसे किसानों की है.
कृष्णा और उसके किसानों की आगे बात करें उससे पहले कुछ बोरिंग ऐतिहासिक तथ्यों को जान लीजिए.
अब से करीब अठारह सौ साल पहले अमरावती सातवाहन साम्राज्य की राजधानी थी. इतिहास में अमरावती इसलिए सम्मानित रही क्योंकि यह कृषि प्रधान राजधानी थी. अकेले अमरावती क्षेत्र में इतना अनाज होता था कि किसान समुद्र से सुदूर क्षेत्रों में भेज मुनाफा कमाते थे. भारत के उत्तरी क्षेत्र में अकाल की स्थिती में सबसे बड़ी मदद यहीं से आती थी. यूं समझिए कि राजामौली ने सातवाहनों के ऐश्वर्य को ही बाहुबली की राजधानी महिष्मति में दिखाया है. अमरावती दुनिया की उन चुनिंदा बसाहटों में है जहां नदी दक्षिण से उत्तर की ओर बहाव रखती है. इसका मतलब है ज़्यादा, और भी ज़्यादा फर्टाइल लैंड. और पानी इतना कि आज भी कई गांवों में मात्र दस फीट पर उपलब्ध है. कहा जाता है कि द्वापर युग में अर्जुन ने पहाड़ में छेद कर कृष्णा बहाव विजयवाड़ा की ओर किया था. इसलिए इसे बैज्य कहा गया, बैज्य यानी छेद. बैजवाड़ा.अब बात 2019 की.
हमेशा की तरह सत्ता ने घोषणा कर दी है कि नदी का पानी समुद्र में बेकार जा रहा है. इसलिए कृष्णा के पूरे पानी को नई राजधानी के लिए रोका जाएगा. यहां से समुद्र की दूरी मात्र 70 किलोमीटर है. इसका मतलब होता है यह डेल्टाई क्षेत्र है और इस ज़मीन पर खेती और मछली से ही सोना पैदा किया जा सकता है. यह बात सातवाहनों को पता थी लेकिन एडवांस तकनीक की पक्षधर सत्ता पीछे मुढ़कर नहीं देखती. बहरहाल विजयवाड़ा में डैम बना हुआ है जो बारिश में भी कृष्णा के पानी को आगे नहीं जाने देता. जो लोग दक्षिण को नहीं जानते वे यूं समझे कि कृष्णा के एक ओर विजयवाड़ा है तथा दूसरी ओर गुंटूर है और प्रस्तावित अमरावती गुंटूर का ही हिस्सा हैं.
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अब इस डेल्टाई क्षेत्र में 2015 से ही खेती पूरी तरह बंद है. क्योंकि चंद्रबाबू नायडु ने अपने जाति भाईयों से कहा कि वे लैंड पूलिंग के तहत अपनी ज़मीनें दे दें. और उन्हे नई राजधानी के लिए 33 हज़ार एकड़ ज़मीन मिल गई. वास्तव में यहां कापू जाति की बहुलता है जिसका प्रतिनिधित्व नायडु करते हैं. कापू का मतलब होता है किसान या संरक्षक. ज़्यादातर लोग बड़े किसान है इसलिए विजयवाड़ा या हैदराबाद में रहते है. इनकी ज़मीनों पर लोग अधिया देकर खेती करते हैं. तो इन बड़े किसानों ने अपनी ज़मीन इस शर्त पर सरकार को दे दी कि बदले में हर एकड़ के बदले उन्हे 1400 गज का रिहायशी और 450 गज का व्यवसायिक प्लाट मिलेगा और दस वर्षों तक हर साल 50 हज़ार रूपए मुआवज़ा भी मिलेगा. यह सबकुछ ज़मीन के मालिक को मिलेगा उन मज़दूरों या छोटे किसानों को नहीं जो इस ज़मीन पर खेती करते हैं.
किसानों से ज़मीन लेने के बाद कृष्णा की तरफ रुख किया गया. उसे तो मुआवज़ा भी नहीं देना पड़ा. प्रकाशम बैराज के बाद की सारी ज़मीन खाली ही तो है क्योंकि अब वहां पानी तो कभी बहेगा नहीं. इसीलिए घाट बनाए गए और ब्यूटीफिकेशन के लिए पाम ट्री लगाए जा रहे हैं. होली बाथ के लिए एक धारा का इंतज़ाम भी किया जा रहा है. ताकि तीज त्यौहारों पर पानी निर्धारित दिशा में घाट की ओर आकर इस नाली में जमा हो और आस्था के प्रदर्शन के बाद इसे आगे बढ़ाया जाए. लोगों का ध्यान नदी की ओर नहीं बल्कि बैराज की सुंदरता की ओर जाए इसका पूरा इंतजाम किया गया है. प्रकाशम बैराज से लेकर कनक दुर्गा मंदिर तक लाइट और पेंटिंग आपका ध्यान आकर्षित किए रहते हैं. सरकार ने गोदावरी से एक कैनाल लाकर कृष्णा से जोड़ दिया है. अब इस मानव निर्मित संगम में सरकार पोषित कृष्णा आरती होती है. हर रोज़ होने वाली भव्य आरती का मज़ा लोग किसी ओपन थियेटर की तरह चिप्स खाते या कोल्डड्रिंक पीते हुए ले सकते हैं. वास्तव में सत्ता को आस्था यही रूप पसंद भी है. कृष्णा के कुंभ कहे जाने वाले पुष्कर से ही इस आरती का आयोजन शुरु हुआ.
कृष्णा में मछलियां ना के बराबर है और लेकिन रेवेन्यू को देखते हुए फिश कल्चर ने ज़ोर पकड़ा है और दो दशक पहले तक जो इलाका धान के लिए जाना जाता था अब फिश मार्केट में तब्दील हो गया है. हर कोई अपने खेतों में झींगा उगाने में लगा हुआ है. खेती में हुए इस बदलाव ने लोगों के जीवनस्तर में बढ़ाया है. लेकिन सरकार इस बदलाव को नदी के विकल्प के रूप में देख रही है गोया नदी का काम सिर्फ मछली पैदा करना है.
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रही सही कसर सीमेंट के नए प्लांटों ने पूरी कर दी, जो अमरावती की मांग के लिए यहां खड़े हुए है. सिर्फ कृष्णा के किनारे 50 से ज़्यादा सीमेंट प्लांट काम कर रहे हैं और अपना वेस्टेज डालने के लिए इन्हे कृष्णा की सूखी ज़मीन मिल रही है. कृष्णा का एक ओर दुर्भाग्य देखिए उसकी रेत निर्माण कार्यों के लिए बेहतरीन मानी जाती है. अब सोचिए जब नई नगरी बन रही हो तो उसे कितनी रेत चाहिए होगी. किसी दक्षिण भारतीय फिल्म की तरह रात में लाइन से चलते सैकड़ो डम्पर बताते है कि यह कोई भयावह सपना नहीं है. ऐसा अनुमान है कि कृष्णा से उसकी क्षमता से एक हज़ार गुना ज़्यादा रेत खनन किया जा रहा है.
तमाम आलोचनाओं के बावजूद अमरावती आकार ले रही है. चीनी यात्री ह्वेन सांग ने अमरावती का वर्णन अपने यात्रा वृतांत में किया था. नायडु ने उसे नहीं पढ़ा, वैसे भी वे पढ़ने में नहीं रचने में यकीन रखते हैं.
(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं.)