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Wednesday, 13 November, 2024
होममत-विमतकांग्रेस का बहिष्कार सही है; अयोध्या में मंदिर राम की नहीं, बल्कि हिंदुत्व की राज्य धर्म के रूप में स्थापना है

कांग्रेस का बहिष्कार सही है; अयोध्या में मंदिर राम की नहीं, बल्कि हिंदुत्व की राज्य धर्म के रूप में स्थापना है

अयोध्या में मौजूदगी राम का सम्मान नहीं है. बल्कि, यह भारतीय राज्य के धर्म के रूप में हिंदुत्व के राज्याभिषेक की स्वीकृति देना है.

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ऐसा कोई कर्मकांड नहीं है जो 22 जनवरी को अयोध्या में प्रतिष्ठित होने वाले मंदिर की उत्पत्ति को पवित्र कर सके. इसका अस्तित्व इसलिए है क्योंकि चरमपंथी हिंदुओं की एक भीड़ ने एक अन्य धार्मिक समुदाय के उपासना स्थल को तोड़ दिया था.

जो लोग इस बर्बरता को 16वीं शताब्दी में मीर बकी – जिसने बाबर को श्रद्धांजलि देने के रूप में उस जगह पर बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया था – द्वारा हिंदू पूजा स्थल के तोड़े जाने के पलटे जाने के रूप में देखते हैं, तो शायद उनकी स्थिति इस रूप में काफी दयनीय है कि वे उसी काम की तारीफ कर रहे हैं जिसके लिए वे मुगलों को बर्बर कहकर उनकी निंदा करते हैं.

लेकिन उन लोगों का क्या जो लोग इतने पर्याप्त प्रबुद्ध हैं कि धर्म को गणतंत्र – जो कि इसके कुल हिस्सों के योग से अधिक बड़ा और भव्य है – से अलग कर पाते हैं, और गणतंत्र के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करते हुए यह मानते हैं कि धर्म एक निजी मामला है?

इस क्षण के उन्माद के प्रति उनको झुक जाते हुए देखना दुखद है.

ऐसे कई लोग जिनके दामन पर इस सरकार के अत्याचारों से भारतीय बहुलवाद की रक्षा करने का निशान है, उन्होंने पिछले सप्ताह के दौरान, अयोध्या में मंदिर के अभिषेक में शामिल होने के “निमंत्रण” को अस्वीकार करने के लिए कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व की आलोचना की है. कुछ लोगों का तर्क है कि कांग्रेस ने उसे कमज़ोर करने वाले अंतर्विरोधों को सुलझाने और खुद को एक सुसंगत विपक्षी ताकत में बदलने का एक दुर्लभ मौका गंवा दिया.

अन्य लोगों ने कहा कि इसके नेतृत्व ने लोगों की “मनोदशा” को समझकर काम करने में असफल होकर पार्टी को नुकसान पहुंचाया है, बचकाने तरीके से इसे भाजपा द्वारा बिछाए गए जाल में फंसा दिया, और इस आरोप के प्रति पार्टी को और भी कमजोर बना दिया कि यह हिंदू बहुमत के प्रति शत्रुतापूर्ण है. “क्या विशाल हिंदू बहुमत के साथ जश्न में शामिल होना और साथ ही इसका राजनीतिकरण करने के लिए मोदी/भाजपा/आरएसएस की आलोचना करना बेहतर नहीं होता?” शेखर गुप्ता ने अपने बहुचर्चित कॉलम में यह सवाल करते हैं.

इस तर्क की समस्या है: अयोध्या में जो चकाचौंध होने वाली है उसे राजनीति से अलग किया जा सकता है, यह स्वीकार करना हमारी जिंदा यादों को झुठलाने को सही बताने जैसा है. अयोध्या में राम के मंदिर का उद्घाटन कोई धार्मिक कार्यक्रम नहीं है जिसमें राजनेताओं को शिष्टाचारवश आमंत्रित किया गया हो; यह भारत को एक हिंदू राज्य बनाने के लिए किए गए सबसे ज्यादा फलित हुए राजनीतिक आंदोलन का अंतिम नतीजा है जिसमें सभी विचारधाराओं के राजनेताओं को इसे वैधता देने के लिए बुलाया जा रहा है.

हिंदुत्व अंधराष्ट्रवाद को वैधता देने से इनकार

अयोध्या में मौजूदगी राम का सम्मान नहीं है. बल्कि, यह भारतीय राज्य के धर्म के रूप में हिंदुत्व के राज्याभिषेक की स्वीकृति देना, हिंदू सर्वोच्चता की घोषणा का हस्ताक्षरकर्ता बनना, किसी एक धार्मिक समुदाय के साथ सभी राजनीतिक पार्टियों की एकजुटता और अन्य सभी धर्मों को अस्वीकार करने का दिखावा करना और पीड़ित होने का धार्मिकीकरण करना है, जिसका यदि विरोध नहीं किया गया तो यह भारत को निगल सकता है.

भले ही कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को इनमें से कुछ भी समझ में नहीं आया हो – भले ही सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और अधीर रंजन चौधरी ने बहुत उत्साह के साथ यह फैसला न लिया हो – लेकिन, वहां अनुपस्थित रहने का विकल्प चुनकर वे गलत काम को रोकने की कोशिश करने में अपनी भूमिका निभाने में सफल रहे हैं.

अगले चुनाव में कांग्रेस के लिए जो भी नतीजे इंतज़ार कर रहे हों, उसके अयोध्या पर उसके नेतृत्व के फैसले से बदलने की संभावना नहीं है: भले ही सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे भगवा रंग में लिपटे हुए और राम के लिए भव्य चढ़ावा लेकर मंदिर में आ जाएं, फिर भी पार्टी भाजपा के प्रभाव को खत्म नहीं कर पाएगी.

उनके इस कदम का महत्व बहुत बाद में समझ आएगा. जब यह वक्त बीत जाएगा, जब इसके हीरो अपनी चमक खो देंगे और इसके अगुवा शर्म से डूब जाएंगे, तो आज उनकी बात को इनकार करने के लिए जिन लोगों की निंदा की जा रही है, बहादुरी से अपनी बात कहने और उस पर टिके रहने के लिए उन्हीं लोगों की बाद में तारीफ की जाएगी.

लेकिन क्या होगा अगर हम इस पल से कभी उबर नहीं पाते हैं – क्या होगा यदि भारत औपचारिक रूप से साम्यवादी राज्य के निर्माण के लिए झुक जाए, जो कि स्पष्ट रूप से पक्षपातपूर्ण हो? तब जो पीढ़ियां नैतिकता जैसी किसी चीज़ के लिए इस घिनौने युग की तफ्तीश करेंगी, उन्हें आशा की एक किरण दिखेगी.

भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी, जिसने एक बार लाभ के लिए समझौता कर लिया था, लेकिन उसमें फिर से हिम्मत आ गई. शायद बहुत देर हो चुकी थी, लेकिन यह अभी भी कुछ ऐसा है कि इसने धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में दुनिया के सबसे साहसी प्रयोग पर बदले की भावना से प्रेरित धार्मिक अंधराष्ट्रवाद की जीत का जश्न मनाने वाले एक राजनीतिक तमाशे को अपनी उपस्थिति से वैध बनाने से इनकार कर दिया.

(कपिल कोमिरेड्डी ‘मेलवोलेंट रिपब्लिक: ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द न्यू इंडिया’ के लेखक हैं. उन्हें टेलीग्राम और ट्विटर पर फॉलो करें. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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