भारतीय राजनीति में दलबदल आम बात सी हो गयी है. शीर्षस्थ नेता भी एक दल से दूसरे दल में बेहिचक आना जाना कर रहे हैं. भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों का खास महत्व है. इस बात को ध्यान में रखते हुए ही दलबदल कानून की आवश्यकता पड़ी. हालांकि, कानून को धता बताते हुए नेता कई बार दलबदल करने में सफल हो जाते हैं.
लोकतंत्र मे राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी अहम है और इस लिहाज से भारत के हर राजनीतिक दल को इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है. आज के संदर्भ में यह जिम्मेदारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कंधों पर अन्य की तुलना में कुछ अधिक है. इसलिए नहीं कि यह सत्ताधारी दल है बल्कि ये विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक दल है.
लेकिन इसके ठीक उलट दूसरे पार्टी के नेता भाजपा में आकर मुख्यमंत्री तक बन जा रहे हैं. असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा कुछ साल पहले तक कांग्रेस में थे. पश्चिम बंगाल में नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी तृणमूल कांग्रेस से हाल ही में भाजपा में आए हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया मध्य प्रदेश के पुराने कांग्रेसी रहे हैं, उन्होंने पिछले साल ही भाजपा का दामन थामा है. पूर्व केंद्रीय मंत्री जतिन प्रसाद भी कांग्रेस के पुराने नेता रहे हैं, जो अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं. ये सूची और भी लंबी है.
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दलबदल और अवसरवादी राजनीति
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भाजपा ही दलबदल और अवसरवादी राजनीति को बढ़ावा देती है. भारत के लगभग सभी राजनीतिक दल इस कृत में समान रूप से भागीदार हैं. लेकिन वाम दलों को छोड़कर सिर्फ भाजपा ही एक ऐसी पार्टी है जो कैडर आधारित है. देश के करोड़ों कार्यकर्ता भाजपा से विचारधारा और संगठन के आधार पर जुड़े हैं.
इतिहास बताता है कि इन्हीं समर्पित कार्यकर्ताओं की बदौलत भाजपा ने 1984 में 2 सीट से 2014 में पूर्ण बहुमत तक का सफर तय किया है. इन कार्यकर्ताओं के समर्पण और निष्ठा ने ही आज भाजपा को केंद्र में दोबारा और अधिकतर राज्यों में सत्ता तक पहुंचाया है. लेकिन दूसरे दलों से आयातित नेताओं को जब पार्टी और सत्ता में ऊंचे पदों पर भाजपा बिठाती है तब कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता है.
आयातित नेताओं का असर कार्यकर्ताओं के मनोबल गिरने तक ही नहीं सीमित है. विचारधारा के स्तर पर भी इसका व्यापक और गहरा कुप्रभाव पड़ता है. ऐसे नेता अवसरवादी होते हैं जो मौका मिलते ही फिर किसी अन्य दल की तरफ मुंह कर लेते हैं.
पश्चिम बंगाल में मुकुल रॉय का तृणमूल कांग्रेस में वापस जाना इसका ताज़ा उदाहरण है. आज एक तरफ पश्चिम बंगाल में चुनाव पूर्व और बाद में हो रही राजनीतिक हिंसा में भाजपा के समर्पित कार्यकताओं की हत्या हो रही है वहीं दूसरी ओर आयातित नेताओं की तृणमूल कांग्रेस में वापिस हो रही है.
इसके फलस्वरूप, विचारधारा की लड़ाई कमजोर होती है और इसका असर दीर्घकालिक होता है.
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पार्टी का विस्तार किस कीमत पर?
यह स्वाभाविक है कि हर राजनीतिक दल अपने कैडर और कुनबे को विस्तार देना चाहती है लेकिन किस आधार पर यह विस्तार दिया जाए यह महत्वपूर्ण है. क्या इसका विस्तार का आधार सिर्फ सत्ता हासिल करना उचित होगा?
सत्ता कभी स्थायी नहीं होती. यह संभव है कि चुनावी राजनीति के गणित में पार्टी जनादेश खो बैठे लेकिन विचारधारा और समर्पित कार्यकर्ता के अभाव में संगठन अपना जनाधार खो सकती है.
हाल के दिनों में यह भी देखा गया है कि दूसरे दलों से आए नेता भाजपा में आने के बाद मुसलमानों के खिलाफ अनाप शनाप बयान देते है. ऐसा वो हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रमाणित करने के लिए करते हैं .ऐसा करके वो हिंदुत्व की विचारधारा को नकारात्मक बनाने का ही काम कर रहे होते हैं. ऐसे भ्रमित नेताओं को विवेकानंद को पढ़ने की आवश्यकता है.
प्रधानमंत्री मोदी ने भी कुछ वर्ष पहले कहा था, ‘अगर स्वामी विवेकानंद के विश्व-बंधुत्व के संदेश का अनुसरण किया जाता, तो इतिहास को 9/11 जैसे नृशंस कृत्य नहीं देखने पड़ते’. उचित यही होगा कि हिंदुत्व के सकारात्मक पहलू को आगे रखकर ही भाजपा अपना विस्तार करे.
आज देश और समाज कोरोना महामारी, आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन, भौतिकवादी सोच जैसे मुद्दों पर चुनौती का सामना कर रहा है. हिंदुत्व एक जीवन दर्शन है. अतः इन सभी चुनौतियों का सामना हिंदुत्व के जीवन दर्शन को अपना कर किया जा सकता है. भाजपा को हिंदुत्व के जीवन दर्शन के सकारात्मक पहलू को आगे रखकर अपना राजनीतिक कार्यक्रम तय करना चाहिए.
भाजपा को हिंदुत्व की विचारधारा को मात्र सत्ता हासिल करने तक सीमित नहीं रखना चाहिए. आखिर सत्ता हासिल करने का मकसद एक बेहतर समाज का निर्माण करना होता है. भाजपा को इस दिशा में गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है.
(IIT Delhi से स्नातक और बिहार भाजपा के कला संस्कृति प्रकोष्ठ के प्रवक्ता हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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