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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतमोदी के नाम पर वोट मांगना बंगाल की जनता के साथ धोखा होगा, उन्हें भी योगी- बिप्लब जैसे नेता को बाद में झेलना पड़ेगा

मोदी के नाम पर वोट मांगना बंगाल की जनता के साथ धोखा होगा, उन्हें भी योगी- बिप्लब जैसे नेता को बाद में झेलना पड़ेगा

पश्चिम बंगाल को, जहां अगले वर्ष चुनाव होने हैं, बताया जाना चाहिए, कि अगर बीजेपी जीत जाती है, तो ममता बनर्जी की जगह कौन लेगा, और नरेंद्र मोदी सिर्फ एक प्रभाव का काम करेंगे, वो प्रचार को नहीं चलाएंगे.

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भारतीय जनता पार्टी को अगले साल पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ज़्यादा प्रोजेक्ट करके नहीं, बल्कि अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार को आगे लाकर लड़ना चाहिए. ऐसा करना मतदाताओं के लिए भी सही होगा, और बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों के लिए भी.

बीजेपी विधान सभा चुनावों को काफी हद तक, मोदी के नाम पर और उनकी भारी लोकप्रियता व साख के सहारे, लड़ने की आदी हो गई है. और इसमें उसे मुश्किल मैदानों पर जीत भी मिली है- 1916 में असम से लेकर, 2017 में उत्तर प्रदेश, और 2018 में त्रिपुरा तक.

और जब मतदाताओं को लगता है, कि कम से कम शासन और प्रशासनिक अनुभव के मामले में, अब उन्हें ‘अच्छा शासन’ और मोदी के वादे का ‘विकास’ मिलेगा, तो उन्हें मिलते हैं चिथड़े, जैसे योगी आदित्यनाथ और बिप्लब देब. ऐसे नए हासिल किए क्षेत्रों में, मोदी सिर्फ एक मुखौटा प्रतीत होते हैं, जो पार्टी के अंदर प्रतिभा की कमी को छिपाते हुए, मतदाताओं को लुभाने का काम करता है.

ऐसे में होता ये है कि विपक्ष को, चाहे वो अखिलेश यादव हों (2017 में यूपी), या माणिक सरकार (2018 में त्रिपुरा), समान मैदान नहीं मिलता. उन्हें प्रधानमंत्री को हराना होता है, अपने असली विरोधी को नहीं- जो बीजेपी का सीएम उम्मीदवार होना चाहिए.

पश्चिम बंगाल को, जहां अगले वर्ष चुनाव होने हैं, बताया जाना चाहिए, कि अगर बीजेपी जीत जाती है, तो ममता बनर्जी की जगह कौन लेगा, और नरेंद्र मोदी सिर्फ एक प्रभाव का काम करेंगे, वो प्रचार को नहीं चलाएंगे.


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चालाकी

स्वाभाविक है कि कोई भी राष्ट्रीय पार्टी, विधान सभा चुनावों के प्रचार में अपने राष्ट्रीय नेताओं का ख़ूब इस्तेमाल करेगी- उनकी रैलियां आयोजित करेगी, पोस्टर्स और होर्डिंग्स पर उनकी तस्वीरें छापेगी, और उनके इर्द-गिर्द ही नारे गढ़ेगी. लेकिन जिन राज्यों में बीजेपी के पास, स्थापित क्षेत्रीय नेता नहीं हैं, वहां ये बिल्कुल अलग तरह काम करती है. वो पूरा चुनाव नरेंद्र मोदी पर केंद्रित कर देती है, प्रचार का पूरा ताना बाना उनके इर्द-गिर्द बुनती है, और मतदाताओं को ऐसे भ्रम में डाल देती है, कि यदि बीजेपी सत्ता में आती है, तो वो मोदी के हाथों में सुरक्षित रहेंगे. जबकि सच्चाई ये है कि मोदी की नीतियां, बीजेपी-शासित राज्यों से भी वैसा ही बर्ताव कर सकती हैं, जैसा ग़ैर-बीजेपी शासित राज्यों से करेंगी.

बीजेपी राज्य चुनावों में गृह मंत्री अमित शाह को जिस तरह इस्तेमाल करती है, वो वैसा ही जैसे है सभी पार्टियां राष्ट्रीय नेताओं को करती हैं. मोदी ने जो किया है वो ये कि उन्होंने एक नया सामान्य पैदा कर दिया है, जिसमें पीएम नगरपालिका चुनाव तक का चेहरा बन जाता है.

2017 में उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में, मोदी का चेहरा इतना हावी था कि किसी और से कोई फर्क़ ही नहीं पड़ा. उस समय मैंने पूरे प्रदेश का व्यापक दौरा किया था, और आमतौर से यही सुनने को मिलता था, कि ‘हम मोदी जी के नाम पे वोट देंगे’. मोदी के वोटर्स को अपने चुनाव क्षेत्र में, बीजेपी उम्मीदवार का नाम तक पता नहीं होता था. सत्ता से जाते मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ही नहीं, हर उम्मीदवार मोदी से लड़ रहा था.

त्रिपुरा में भी ऐसा ही था. मेरी यात्रों के दौरान पूरे राज्य में मतदाताओं का यही रुख़ देखने को मिला. सीएम चेहरे की ग़ैर-मौजूदगी में, बीजेपी ने ये चुनाव पूरी तरह मोदी के नाम पर लड़ा, और एक थके हुए लेकिन लोकप्रिय माणिक सरकार को, उनकी जगह से उखाड़ फेंकने में कामयाब हो गई.

योगी या बिप्लब को लाने का फैसला बाद में लिया गया, और दोनों ही अनपेक्षित चयन थे. और नतीजा? क़ानून व्यवस्था के मामले में यूपी में आदित्यनाथ के समस्याग्रस्त रिकॉर्ड, और त्रिपुरा के सीएम के नाते बिप्लब देब की हरकतों ने, सुशासन को एक मिथ्या साबित कर दिया. योगी आदित्यनाथ सुशासन ब्रांड से ज़्यादा एक भगवा चेहरा ज़्यादा बन गए हैं. बिप्लब तो काफी हद तक एक हंसाऊ किरदार हैं.


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क्या वो बीजेपी के लिए विकल्प थे?

अगर वो चुनाव अखिलेश बनाम योगी, या माणिक सरकार बनाम बिप्लब देब के तौर पर लड़े जाते, और मोदी सिर्फ बैकग्राउंड में रहते, तो क्या उनके नतीजे कुछ अलग होते? कहना मुश्किल है क्योंकि बीजेपी की चुनावी जीत में बहुत से घटक होते हैं, जिनमें एक शानदार ज़मीनी रणनीति, और सूक्ष्म-स्तरीय मतदाता प्रबंधन शामिल होते हैं. लेकिन इस बात की बहुत संभावना है, कि बीजेपी को उतना बहुमत न मिल पाता, जितना दोनों राज्यों में मिला.

असम में ज़रूर बीजेपी ने पहले से ही, सीएम उम्मीदवार के तौर पर सर्बानंद सोनोवाल के नाम का ऐलान कर दिया था, चूंकि वो एक लोकप्रिय स्थानीय नेता रहे हैं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं, कि चुनाव पूरी तरह मोदी के नाम पर लड़ा गया. इस बीच सोनोवाल हर तरह से एक प्रशासनिक नौसीखिए साबित हुए हैं. असम में बीजेपी सरकार बड़ी शर्मिंदगियों से सिर्फ इसलिए बच पा रही है, क्योंकि हिमंता बिस्वा शर्मा के रूप में उसके पास, एक अनुभवी नेता मौजूद है.

2017 का गुजरात विधान सभा चुनाव भी मोदी के इर्द-गिर्द था, जिन्होंने अपना सियासी क़द इसी राज्य में बनाया था, विजय रूपाणी के नहीं, जो ज़ाहिरी तौर से एक कमज़ोर कड़ी थे.

ज़ाहिर है कि ये रुझान उन राज्यों में अलग रहा है, जहां बीजेपी के पास मजबूत क्षेत्रीय नेता हैं- चाहे वो राजस्थान हो, मध्य प्रदेश हो, या फिर छत्तीसगढ़. इन तीनों राज्यों में मतदाताओं ने, बीजेपी के सीएम चेहरों को ख़ारिज कर दिया.

बेशक, मोदी को मुख्य चेहरा बनाकर लड़ने के, बीजेपी को हमेशा वांछित परिणाम नहीं मिलते, जैसा कि 2020 के दिल्ली चुनावों में देखने को मिला, जब मतदातों ने आम आदमी पार्टी और उसके कनवीनर को फिर से चुन लिया.

पश्चिम बंगाल 2021

पश्चिम बंगाल में जो राजनीतिक लड़ाई सामने आ रही है, उसमें बहुत कुछ दांव पर लगा है. तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो और दो बार की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, अपने इलाक़े को मोदी-शाह के बढ़ते साम्राज्य से बचाने की पूरी कोशिश करेंगी. और अगर 2019 के लोकसभा चुनावों को देखें, तो ममता के पास चिंता करने के बहुत सारे कारण हैं.

ममता के लिए मोदी से लड़ना काफी मुश्किल रहने वाला है, और वो इसे जानती हैं. उनकी छवि अभी भी ‘साफ’ बनी हुई है, और वो ‘ईमानदारी’ तथा एक ‘कल्याणकारी चेहरे के साथ विकास’ को, अपने मुख्य पत्तों के तौर पर चलते हैं. अर्थव्यवस्था का बुरा हाल भी उन्हें उतना नुक़सान नहीं पहुंचा रहा, जितना किसी और नेता को पहुंचाता.

ऐसा नहीं है कि बीजेपी कोई सीएम चेहरा तलाश नहीं रही. ऐसी सुगबुगाहटें रही हैं कि बीजेपी पूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान सौरव गांगुली को, सीएम के चेहरे के तौर पर सामने लाना चाहती है, ताकि ये ‘दादा’ बनाम ‘दीदी’ लड़ाई बन जाए. लेकिन बीजेपी के लिए उस दिशा में, चीज़ें फिलहाल धुंधली लगती हैं. बीजेपी जानती है कि राज्य में उसके पास, कोई मज़बूत या ऊपरी तौर पर सक्षम क्षेत्रीय नेता नहीं है, और उसके मानव संसाधन विभाग में भी कोई गहराई नहीं है.

बीजेपी के लिए एक बड़ी दुविधा ये भी हो जाती है- कि वो एक नए नाम के साथ मैदान में उतरे और मात खा जाए, जैसा कि 2015 के दिल्ली विधान सभा चुनावों में, किरन बेदी के साथ हुआ था, या फिर सुरक्षित खेलते हुए, मोदी को केंद्रीय चेहरा बनाने के परखे हुए विकल्प को अपनाए.

राजनीतिक पार्टियों का चुनावों के बाद सीएम उम्मीदवार घोषित करना, निश्चित रूप से असामान्य नहीं है. कांग्रेस ने राजस्थान, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ में यही किया. लेकिन फर्क़ ये है कि मतदाता जानते हैं कि संभावित सीएम कौन हो सकता है, और सामने क्या विकल्प हैं- जबकि यूपी या त्रिपुरा में बीजेपी के उम्मीदवार ने वोटर को हैरान कर दिया.

पश्चिम बंगाल भी ऐसा ही होगा, क्योंकि वहां कोई मज़बूत क्षेत्रीय नेता नहीं हैं, और हल्के क़द के बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलिप घोष को, एक संभावित सीएम चेहरे के तौर पर देखे जाने की संभावना कम है.

जैसा कि कहते हैं एक परिचित शैतान, अंजान फरिश्ते से बेहतर होता है. लेकिन दो जाने पहचाने शैतानों की लड़ाई, हमेशा बराबर और ज़्यादा न्यायसंगत होगी.


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(यहां प्रस्तुत विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. दल कोई भी हो उसे चुनावी जीत से मतलब होता है चाहे वो किसी भी नेता के चेहरे से मिलती हो।

    राष्ट्रीय पार्टी में तो ऐसा ही होता है जहाँ मुख्यमंत्री बनने का सपना कोई भी नेता देख सकता है।जबकि क्षेत्रीय दल की सरकार बनने पर मुख्यमंत्री वही व्यक्ति बनता है जो उस दल के सर्वेसर्वा परिवार का सदस्य हो।

    फिर यदि योगी जी और विप्लव जी क्रमशः अखिलेश जी व माणिक जी से अच्छे नहीं है तो वे निश्चित ही आगे हार जाएंगे। पता चल जाएगा कि आपका ये लेख कितना निष्पक्ष है।या केवल विरोध के लिए ही कुछ भी लिख दिया है।

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