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Sunday, 5 May, 2024
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मुस्लिम, दलित व किसान जातियों के विरोध से चलती बीजेपी की राजनीति

एकात्म मानववाद सिद्धांत के मूल में मुसलमानों के खिलाफ सभी भारतीयों की विराट एकता की बात थी. लेकिन बीजेपी अब मुसलमान-विरोध से आगे बढ़ चुकी है. उसने समाज में नए अंतर्विरोध तलाश लिए हैं.

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पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कभी कहा था कि अंतर्विरोधों का मैनेजमेंट ही राजनीति है. अलग-अलग राजनीतिक और सामाजिक शक्तियों के आपसी झगड़ों का इस्तेमाल करके और उनके बीच अंतर्विरोधों का प्रबंधन करके वीपी सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन एक साथ वामपंथियों और बीजेपी को साथ लेकर चलने की उनकी कोशिश लंबे समय तक नहीं चल पाई और वे इतिहास का गुजरा अध्याय बन कर रह गए.

एकात्म मानववाद के पीछे क्या है?

राजनीति हमेशा ये नहीं होती कि पहले से मौजूद अंतर्विरोधों का इस्तेमाल किया जाए. इसके लिए कई बार अंतर्विरोध खड़े भी किए जाते हैं. दुश्मनियां पैदा भी की जाती हैं और छोटी दुश्मनी को बड़ी दुश्मनी में बदला भी जाता है. बीजेपी दीनदयाल उपाध्याय के विचारों पर चलने का दावा करती है और उनके दिए एकात्म मानववाद के सिद्धांत को मानती है. उस सिद्धांत में कहने को तो एकता की बात है और परस्पर विरोधी द्वेतों का निषेध हैं.

लेकिन उसका मूल वैचारिक आधार समाजवाद, लोकतंत्र के आधुनिक सिद्धांतों और साम्यवाद का विरोध है. एकात्म मानववाद का मूल राजनीतिक विचार मुसलमान विरोध है. इस विरोध के आधार पर ही उपाध्याय ‘भारतीय चिति’ की कल्पना करते हैं. यानी एकात्मकता की बात जरूर की जा रही है, लेकिन ये चुना जा रहा है कि एकात्मकता किनके बीच होगी और कौन इससे बाहर होंगे.


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बीजेपी को जल्द ही समझ में आ गया कि सिर्फ मुसलमान-विरोध की राजनीति की गंभीर सीमाएं हैं. सांप्रदायिक तनाव का चरम दिनों यानी बाबरी मस्जिद गिराए जाने और देश भर में हुए भयानक दंगों के दौरान भी बीजेपी केंद्रीय सत्ता से दूर ही रही. यहीं से उसने समाज में मौजूद अन्य अंतर्विरोधों के इस्तेमाल पर काम करना शुरू कर दिया. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि बीजेपी ने अपना मूल आधार यानी मुसलमान-विरोध को छोड़ दिया. उसके बिना तो बीजेपी के अस्तित्व की भी कल्पना नहीं की जा सकती.

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बीजेपी को राजनीति के लिए मुसलमान चाहिए

बीजेपी सरकार के कई बड़े राजनीतिक फैसलों में मुसलमान किसी न किसी शक्ल में मौजूद होते हैं और वे अक्सर विरोधी पक्ष होते हैं.

मिसाल के तौर पर –

– एनआरसी यानी नेशनल सिटिजन रजिस्टर के जरिए 1971 के बाद असम आए मुसलमान घुसपैठियों/शरणार्थियों को नागरिकता से वंचित किया जाना है. हालांकि एनआरसी में मुसलमान शब्द का जिक्र नहीं है. लेकिन इसे अगर प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक के साथ जोड़कर पढ़ा जाए तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी.

नागरिकता संशोधन विधेयक में ये प्रस्ताव है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से जो लोग आजादी के बाद भारत आए हैं, अगर वे हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई या पारसी हैं तो उनको भारत की नागरिकता दी जाएगी. इसमें सिर्फ मुसलमानों को नागरिकता न देने की बात है.

– तीन तलाक को अपराध बनाने का कानून स्पष्ट रूप से मुसलमानों को ध्यान में रखकर बनाया गया है.

– अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर में खत्म करने का हालांकि किसी धर्म से कोई लेना देना नहीं है, लेकिन ये ध्यान रखें कि कश्मीर घाटी में 97 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं और अनुच्छेद 370 का समर्थन वहीं पर है.


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– गैरकानूनी गतिविधि निरोधक (संशोधन) अधिनियम, यूएपीए, में हालांकि किसी धर्म की बात नहीं है. इसके जरिए जांच एजेंसियों को देश के किसी भी हिस्से में राज्य सरकार की अनुमति के बगैर छापामारी करने और किसी को भी आतंकवादी घोषित करके जांच पूरी होने से पहले उसकी संपत्ति जब्त करने का अधिकार मिल गया है. भारत में आतंकवाद को जिस तरह से धर्म से जोड़कर देखा जा सकता है उसके आधार पर इस कानून के राजनीतिक असर की व्याख्या हो सकती है.

इन तमाम कानूनों और सरकारी फैसलों के पक्ष और विपक्ष या सही या गलत होने की बहस को छोड़ भी दें तो एक बात तो साफ है कि इनमें मुसलमान एक पक्ष के रूप में मौजूद जरूर है. आगे चलकर अगर सरकार समान नागरिक संहिता या अयोध्या की विवादित जगह पर राम मंदिर बनाने की दिशा में आगे बढ़ती है तो वह भी बीजेपी की मुसलमान-विरोध की राजनीति के अनुरूप ही होगा.

बीजेपी जब गोरक्षा की बात करती है तो भी उसमें मुसलमान की बात होती है, हालांकि जरूरी नहीं है कि उनका नाम लिया ही जाए. मॉब लिंचिंग के अभियुक्तों का नागरिक सम्मान या उन्हें नौकरी देते हुए भी बीजेपी को पता होता है कि निशाने पर कौन है. कुल मिलाकर मुसलमान-विरोध के बगैर न बीजेपी की कल्पना की जा सकती है न ही बीजेपी की राजनीति की. लेकिन बीजेपी ने ये समझ लिया है कि सिर्फ मुसलमान-विरोध से बात नहीं बनती.

प्रभावशाली किसान जातियों के विरुद्ध सामाजिक गोलबंदी

बीजेपी ने कई राज्यों में वहां की सबसे प्रभावशाली जाति, जो अक्सर किसान जाति होती है, के खिलाफ वहां की अन्य जातियों और समूहों में मौजूद भय या घृणा जैसे भाव का इस्तेमाल जमकर किया है. ध्यान दें कि बीजेपी ने जाटों के प्रभाव वाले हरियाणा में एक गैर-जाट, मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया, जो खत्री हैं. महाराष्ट्र में उसने किसी मराठा नेता की जगह ब्राह्मण जाति से देवेंद्र फड़णवीस को मुख्यमंत्री बनाया. पटेल राजनीति के गढ़ गुजरात में बीजेपी का मुख्यमंत्री जैन समुदाय से है. आदिवासी बहुल झारखंड में उसने आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने से परहेज किया है. ये एक ऐसा पैटर्न है, जिसका इस्तेमाल बीजेपी बार-बार करती है.

ये दिलचस्प है कि बीजेपी ऐसा सिर्फ उन्हीं राज्यों में कर रही है, जहां मुसलमानों की आबादी लगभग 10 फीसदी या उससे कम है. इन राज्यों में मुसलमान विरोध की राजनीति की सीमाएं हैं क्योंकि कई गांवों में तो मुसलमान हैं ही नहीं, तो उनका विरोध कैसे किया जाए. मिसाल के तौर पर, हरियाणा के छोटे से मेवात इलाके को छोड़ दें तो मुसलमान वहां नाम मात्र के हैं. यहां बीजेपी गैर-जाट जातियों को ये भय दिखाती है कि अगर बीजेपी नहीं आई तो फिर से कोई हुड्डा या चौटाला आ जाएगा और जाटों को फिर से दबदबा कायम हो जाएगा.

यूपी और बिहार में बीजेपी की राजनीति का एक प्रमुख तत्व यादव विरोध है. बीजेपी के तमाम नेता अपने भाषणों में सीधे या घुमा-फिराकर सपा या आरजेडी की आलोचना करते हुए यादव जाति के वर्चस्व की बात करते हैं और बाकी जातियों को इसके खिलाफ एकजुट होने का आह्वान करते हैं. यूपी में जाटव या चमार जाति का विरोध भी बीजेपी की राजनीति में अहम है. इन जातियों के तथाकथित वर्चस्व और इनके द्वारा आरक्षण का सारा लाभ ले जाने की कहानियां बीजेपी के नैरेटिव का प्रमुख हिस्सा है. इसलिए बीजेपी के नेता बीच-बीच में ओबीसी के विभाजन और एससी में क्रीमी लेयर लगाने की बात भी करते हैं. लेकिन वह ऐसा कोई विभाजन करती नहीं है क्योंकि इससे वह आधार ही खत्म हो जाएगा, जिस पर वह राजनीति कर रही है.

दलितों को लुभाने की अब और कोई कोशिश नहीं

नरेंद्र मोदी के पहले प्रधानमंत्रित्व काल में बीजेपी ने दलितों को अपने पाले में लाने की कई कोशिशें कीं. इसमें मोदी द्वारा बार-बार बाबा साहब की प्रतिमाओं के सामने सिर झुकाना, अपने भाषणों में उनका जिक्र करना, बाबा साहब से जुड़े स्थानों पर पंचतीर्थ बनाना, राम नाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाना आदि शामिल है. लेकिन इससे दलितों के बीच बीजेपी की बात बनी नहीं. हालांकि बीजेपी कहती है कि दलितों के लिए रिजर्व ज्यादातर सीटों पर वह जीतती है, लेकिन इससे दलितों के समर्थन की बात साबित नहीं होती क्योंकि उन सीटों पर ज्यादातर वोटर गैर-दलित होते हैं.

हाल के वर्षों में भारत में जो एक समुदाय लगातार आंदोलित है और अपनी नाराजगी का इजहार सड़कों पर कर रहा है, वो दलित ही हैं. रोहित वेमुला प्रसंग हो या गुजरात के ऊना में गाय की चमड़ी उतारते दलितों की पिटाई का, मामला एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किए जाने का हो या यूनिवर्सिटी की नियुक्तियों में आरक्षण को निरस्त करने वाले 13 प्वायंट रोस्टर का, दलितों ने जमकर सरकार का विरोध किया और दो बार तो भारत बंद भी किया. अभी हाल में दिल्ली में रविदास गुरुघर को तोड़े जाने के खिलाफ दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और यूपी में आंदोलन हुआ, जो अब भी जारी है.

बीजेपी अगर दलितों को विशाल हिंदू छतरी के नीचे लाने की कोशिश कर रही थी, तो इसमें उसे कम ही सफलता मिली है. यूपी में बीएसपी को अगर अब भी 20 परसेंट के आसपास वोट मिल रहे हैं तो समझना मुश्किल नहीं है कि ये वोट कहां से आ रहा है. बीजेपी समझ चुकी है कि दलितों और सवर्ण जातियों का अंतर्विरोध वास्तविक है और इसे मुसलमान विरोध के नाम पर ढका नहीं जा सकता. दूसरी बात ये कि अगर दलित बीजेपी को वोट नहीं देते हैं, तो भी बीजेपी जीतने वाला सामाजिक समीकरण बना पा रही है.


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बीजेपी बेशक दलितों का उस तरह विरोध नहीं करे, जैसा कि वह मुसलमानों का करती है, लेकिन वह दलितों को अब और कोई रियायत या छूट नहीं देगी. सवर्णों को नाराज करने की कीमत पर तो कतई नहीं. इसलिए बीजेपी-आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठन बीच-बीच में आरक्षण के खिलाफ भी माहौल बनाते रहेंगे.

इस तरह देखा जाए तो बीजेपी की राजनीति में मुसलमान, दलित और प्रभावशाली किसान जातियां दूसरे खेमे में हैं. लेकिन ये जरूरी नहीं है कि इन तीन विरोधी शक्तियों को बीजेपी एक साथ निशाने पर रखे. मुसलमान विरोध बीजेपी की राजनीति का स्थायी तत्व है. इसके अलावा, हर राज्य और यहां तक कि चुनाव क्षेत्र के स्तर पर भी बीजेपी अलग-अलग रणनीति बनाती है और अंतर्विरोधों का इस्तेमाल करती है.

(वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये लेख में उनके निजी विचार हैं)

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