scorecardresearch
Tuesday, 8 October, 2024
होममत-विमतआरक्षण के खिलाफ झाड़ू लगाने और जूता पॉलिश करने का मतलब

आरक्षण के खिलाफ झाड़ू लगाने और जूता पॉलिश करने का मतलब

आरक्षण विरोधी आंदोलनकारियों को इस बात का शायद अंदाजा नहीं है कि जब वे विरोध के दौरान रिक्शा चलाते हैं, जूते साफ करते हैं, झाड़ू लगाते हैं, तो वे श्रम का ही नहीं, श्रमिक जातियों का भी अपमान कर रहे होते हैं.

Text Size:

एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण को बढ़ाकर 72 परसेंट करने के छत्तीसगढ़ सरकार के फैसले का विरोध करते हुए प्रदर्शनकारियों ने बिलासपुर में सड़कों पर झाड़ू लगाई और झाड़ू पकड़कर नारेबाजी की. आरक्षण का विरोध कोई नई बात नहीं है. इसका लंबा इतिहास रहा है. अगर सवर्ण गरीबों के आरक्षण को छोड़ दें तो बाकी किसी भी तबके को आरक्षण दिए जाने का सड़कों पर विरोध हुआ है.

1990 में जब वीपी सिंह सरकार ने केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी को 27 परसेंट रिजर्वेशन देने की मंडल आयोग की सिफारिश को लागू कर दिया तो उत्तर भारत के शहरों में आंदोलन शुरू हो गया. ये एक हिंसक आंदोलन था, जिसमें सड़कें जाम की गईं, सरकारी दफ्तर बंद कर दिए गए, बसें जलाई गईं और कई युवाओं ने आत्मदाह भी किया. इस दौरान शरद यादव पर हमला किया गया और रामविलास पासवान, जो उस समय केंद्रीय कल्याण मंत्री थे, के घर को आग लगाने की कोशिश की गई.

उस दौरान भी मीडिया में खबरें छपीं कि आरक्षण विरोधियों ने जूते साफ किए, कार की सफाई की और रिक्शा चलाया.

2006 में जब उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू किया गया तो एक बार फिर उत्तर भारत के कई शहरों में आंदोलन शुरू हो गए. इनका नेतृत्व डॉक्टरों और मेडिकल के स्टूडेंट्स ने किया और कई जगहों पर उन्होंने सरकारी अस्पतालों में मरीजों का इलाज बंद कर दिया. आंदोलन का केंद्र दिल्ली का एम्स बना, जबकि हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक वहां कोई आंदोलन हो ही नहीं सकता था. इस दौरान भी मेडिकल के छात्रों ने सड़कों पर झाड़ू लगाया और जूते साफ किए. इस बार आरक्षण के समर्थन में भी आवाज उठी और समर्थक डॉक्टरों ने विरोध में हो रहे आंदोलन के इन जातिवादी स्वरूपों का विरोध किया.


यह भी पढ़ें: न्यायपालिका पर दलितों का बढ़ता अविश्वास लोकतंत्र के लिए बुरी खबर


इस लेख को लिखने का उद्देश्य आरक्षण विरोधी आंदोलन में झाड़ू लगाने और जूते साफ करने जैसे प्रतीकों के इस्तेमाल और इसके पीछे की मानसिकता का अध्ययन करना है. इस लेख में आरक्षण होना चाहिए या नहीं या उसके कानूनी, संवैधानिक और नैतिक पहलुओं की चर्चा नहीं की जाएगी क्योंकि वह एक और विषय है.

जाति व्यवस्था श्रम का विभाजन नहीं, श्रमिकों का विभाजन है

जाति व्यवस्था दक्षिण एशियाई समाज की एक विशिष्ट संचरना है, जिसमें न सिर्फ सामाजिक समूहों को ऊंच-नीच के क्रम में बांटा गया है, बल्कि उनमें से हर जाति के कर्म निर्धारित हैं और उन कामों में भी ऊंच और नीच का भेद है. श्रीमद्भागवत गीता में हर वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- का गुणधर्म बताया गया और उसके हिसाब से उसके लिए कर्म निर्धारित किए गए हैं. हर धार्मिक हिंदू का कर्तव्य माना गया है कि अपने वर्ण के लिए निर्धारित कर्म को ही करे.

जन्म और कर्म के इन रिश्तों और जातियों के साथ ही कर्म के भी ऊंचे और नीचे होने के कारण बनी आर्थिक व्यवस्था की समीक्षा बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपनी चर्चित कृति एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में की है. वे श्रमिकों के जन्मजात विभाजन की व्यवस्था की आलोचना पांच आधारों पर करते हैं.

1. जाति व्यवस्था श्रमिकों का अस्वाभाविक और अप्राकृतिक विभाजन है, जिसमें हर किसी की जगह निर्धारित है. ये श्रम का विभाजन नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन है. इसमें श्रमिकों को ऊंचे से नीचे के क्रम में रखा जाता है.

2. यह श्रम का सुचिंतित नहीं, बल्कि अंधाधुंध किया गया विभाजन है. यह व्यक्ति की प्रवृति या क्षमता के अनुसार किया गया बंटवारा नहीं है. किसी काम के लिए किसी व्यक्ति का चयन उसकी क्षमता की जगह उनके माता-पिता की सामाजिक स्थिति के आधार पर किया जाता है.

3. जाति व्यवस्था के कारण अगर किसी व्यक्ति को अगर ऐसा काम मिलता है जो उसकी जाति का निर्धारित कर्म नहीं है तो वह उस काम को नहीं करेगा. भारत में बेरोजगारी की ये एक बड़ी वजह है.

4. कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से किसी खास काम के लिए नहीं लगाया जाता. वह अपनी पसंद का काम नहीं कर रहा होता है. ये पहले से तय होता है कि उसे कौन सा काम करना है और कौन से काम नहीं करने हैं. ऐसे में आदमी अक्सर बेमन से काम करता है.

5. भारत में ऐसे कई काम हैं जिन्हें हिंदू नीच काम मानते हैं. इन कामों को करने वालों को नीची निगाह से देखा जाता है. ऐसे काम कोई करना नहीं चाहता क्योंकि हिंदू धर्म के अनुसार ये गंदे काम हैं.

हालांकि इस किताब को लिखे जाने के बाद काफी कुछ बदल चुका है. लेकिन बाबा साहब दरअसल देख पा रहे थे कि आर्थिक रूप से जाति व्यवस्था कितनी गैर-व्यावहारिक और अवैज्ञानिक है. हालांकि उनकी सलाह पर हिंदू समाज ने अमल नहीं किया.

कर्म, जाति और ऊंच-नीच के भेद वाली धार्मिक व्यवस्था की ट्रेनिंग लोगों को बचपन से ही मिल जाती है. इस कारण से वे कुछ कामों को नीचा मानने लग जाते हैं. झाड़ू लगाना या सफाई का कोई भी काम, चमड़े से जुड़ा हर काम और श्रम का हर काम उनकी नजर में नीचा काम है. यही वजह है कि आरक्षण विरोधी आंदोलनकारी इन कामों को प्रतीकात्मक रूप से करके ये बताते हैं कि आरक्षण की वजह से उन्हें ऊंचे दर्जे के काम नहीं मिल पाएंगे और मजबूरी में उन्हें ऐसे नीच काम करने पड़ेंगे, जो नीच जाति के लोग करते हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर एन. सुकुमार कहते हैं कि – ‘सार्वजनिक रूप से ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल ये बताया है कि ऊंची जाति के श्रेष्ठताबोध में ये बात धंसी हुई है कि वे ऊंचे काम करने के लिए ही पैदा हुए हैं.’

शुद्धता और अशुद्धता के बोध को मिलाकर बनी व्यवस्था

भारतीय जाति व्यवस्था में शुद्ध और अशुद्ध का सिद्धांत जीवन के कई क्षेत्रों में लागू होता है. यहां कुछ लोग शुद्ध हैं तो कुछ अशुद्ध. खास तरह का भोजन शुद्ध है तो कई तरह के भोजन अशुद्ध है. व्यक्ति भी खास समय में शुद्ध होता है और खास समय में अशुद्ध हो जाते है. जैसे बच्चे को जन्म देने और रजस्वला होने पर महिलाएं अशुद्ध हो जाती हैं. धर्मशास्त्रों में इस बात का विधान है कि जब कोई अशुद्ध हो जाए तो शुद्ध होने के लिए उसे क्या करना होगा.

इसी तरह से कुछ कामों को भी शुद्ध और कुछ को अशुद्ध माना गया है. दरअसल ये परस्पर विरोधी द्वेत है, जो एक दूसरे पर निर्भर भी है. किसी को शुद्ध बनाने के लिए किसी का अशुद्ध होना जरूरी है. शुद्ध की व्यावहारिक परिभाषा ये है कि जो कुछ अशुद्ध नहीं है, वह शुद्ध है.


य़ह भी पढ़ें: आरक्षण खत्म किया जा रहा है और सरकार कह रही है आरक्षण जिंदाबाद!


जाति व्यवस्था का अध्ययन करने वाले फ्रांसिसी दार्शनिक सेलेस्टिन बोगले ने लिखा है कि – शुद्ध और अशुद्ध के परस्पर विरोध में ऊंच और नीच का बोध भी निहित है. इसमें जो शुद्ध है वह ऊंचा है और जो अशुद्ध है वह नीचा है. ये साथ हैं लेकिन इनमें भेद है, जिस वजह से दोनों को एक व्यवस्था के अंदर अलग-अलग रखना आवश्यक है.” उनके मुताबिक, जन्मजात गुण, ऊंच-नीच का भेद और परस्पर नफरत और अलग होने का बोध, ये जाति व्यवस्था की विशेषताएं हैं.

कोई चाहे तो ये तर्क दे सकता है कि जिन कामों को नीच काम माना गया है, वे दरअसल गंदे काम है और स्वास्थ्य की दृष्टि से उन कामों और उन्हें करने वालों से दूरी रखना सही है. या कि इसका धर्म और जाति से कोई संबंध नहीं है. लेकिन ये बेहद खोखला तर्क है क्योंकि नीची जाति का माना जाने वाला व्यक्ति बेशक कई पीढ़ियों से अपने जाति का कर्म न कर रहा हो, तो भी उसे छुआछूत झेलनी पड़ सकती है. दरअसल ये अस्थायी व्यवस्थाएं नहीं है कि नहाकर अशुद्धता दूर हो जाएगी.

गांधी के अछूतोद्धार, संविधान में छुआछूत के निषेध, सिविल राइट्स एक्ट और एससी-एसटी एक्ट के बावजूद भारतीय समाज में ऊंच-नीच और छुआछूत जारी है, जो बार बार सामने आ रहे अध्ययनों से सिद्ध होती है. शहरों में भी इसका असर गया नहीं है. थोराट और जोशी का अध्ययन बताता है कि – ‘शुद्धता और शुद्धता की अवधारणाएं शिक्षा और आधुनिक जीवन शैली के बावजूद कायम हैं और इन्हें हमारी धार्मिक और सामाजिक असुरक्षा से ताकत मिलती है.’

इस तरह समझा जा सकता है कि शिक्षित और शहरी जीवन का हिस्सा होने के बावजूद आरक्षण विरोधी जब आंदोलन करते हैं तो उनके दिमाग में यही क्यों आता है कि सड़कों पर झाड़ू लगाना या जूते साफ करना ही विरोध का फॉर्म होना चाहिए.

अगर शिक्षा और शहरीकरण से भी शुद्धता और अशुद्धता का बोध खत्म नहीं हो रहा है तो फिर रास्ता क्या है?

इसका एक उपाय फ्रांस के ही नृतत्वशास्त्री यानी एंथ्रोपोलॉजिस्ट लुई दुमों बताते हैं, जिनकी किताब होमो हायरार्किकस भारतीय जाति व्यवस्था को समझने की बड़ी कोशिश मानी जाती है. वे कहते हैं- ‘जाति व्यवस्था के दो छोर हैं. एक छोर पर ब्राह्मण हैं तो दूसरे छोर पर अछूत हैं. अछूतों की अशुद्धता को ब्राह्मणों की शुद्धता से अलग करके नहीं देखा जा सकता. एक के अशुद्ध होने से ही दूसरा शुद्ध है. एक का शुद्ध और दूसरे का अशुद्ध होना या तो साथ-साथ हुआ है या फिर दोनों धारणाएं एक दूसरे के कारण मजबूत हुई हैं. हमें इन्हें एक साथ देखना चाहिए. छुआछूत तब तक खत्म नहीं हो सकती, जब तक कि ब्राह्मणों की शुद्धता की अवधारणा कमजोर नहीं होती.’

ये काम आसान नहीं है.

(दिलीप मंडल वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनके निजी विचार हैं)

share & View comments